कुर्सियां,मेज और मोटर साइकिल
नजर आती हैं हर तरफ
और चलती फिरती जिंदगी
मात्र भागती हुई
जमानत के लिए
निषेधाज्ञा के लिए
तारीख के लिए
मतलब हक के लिए!
ये आता यहां जिंदगी का सफर,
है मंदिर ये कहता न्याय का हर कोई,
मगर नारी कदमों को देख यहां
लगाता है लांछन बढ हर कोई.
है वर्जित मोहतरमा
मस्जिदों में सुना ,
मगर मंदिरों ने
न रोकी है नारी कभी।
वजह क्या है सिमटी है सोच यहाँ ?
भला आके इसमें क्यूँ पापन हुई ?
क्या जीना न उसका ज़रूरी यहाँ ?
क्या अपने हकों को बचाना ,
क्या खुद से लूटा हुआ छीनना ,
क्या नारी के मन की न इच्छा यहाँ ?
मिले जो भी नारी को हक़ हैं यहाँ
ये उसकी ही हिम्मत
उसी की बदौलत !
वो रखेगी कायम भी सत्ता यहाँ
खुद अपनी ही हिम्मत
खुदी की बदौलत !
बुरा उसको कहने की हिम्मत करें
कहें चाहें कुलटा ,गिरी हुई यहाँ
पलटकर जहाँ को वो मथ देगी ऐसे
समुंद्रों का मंथन हो जैसे रहा !
बहुत छीना उसका
न अब छू सकोगे ,
है उसका ही साया
जहाँ से बड़ा।
वो सबको दिखा देगी
अपनी वो हस्ती ,
है जिसके कदम पर
ज़माना पड़ा।
शालिनी कौशिक
[कौशल ]