देश में १ अक्टूबर से १२ अक्टूबर तक राजस्थान में १५ वां अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन चल रहा है . लेखन कार्य में लगी हूँ तो ऐसे सम्मलेन का कौन लेखक होगा जो हिस्सा नहीं बनना चाहेगा किन्तु उसके लिए जो लेखन चाहिए उतनी उत्कृष्टता लिए मेरा लेखन तो नहीं है क्योंकि नहीं लिख सकती उन नियम कायदों को मानते हुए जो हिंदी साहित्य के लेखन के लिए आवश्यक हैं .
कहा जाता है और दृष्टिगोचर भी होता है ''कि साहित्य समाज का दर्पण है ''.हम स्वयं देखते हैं कि जैसे-जैसे समाज परिवर्तित होता है वैसे-वैसे साहित्य में भी परिवर्तन दिखाई देने लगता है .समाज में जैसे-जैसे उच्छ्रंखलता बढ़ती जा रही है वैसे ही साहित्य भी सीमायें लांघने लगा है . अब यदि मैं मुख्य मुद्दे पर आती हूँ तो वह मुख्य मुद्दा है ''बंधन''जिसमे हमारा समाज बंधा है और साहित्य भी ,समाज में रहना है तो बंधन मानने होंगे उसी तरह यदि साहित्य रचना है तो भी बंधनों में बँधकर ही साहित्य का सृजन करना होगा ,साहित्य जन-समुदाय को अपने से बांधता है किन्तु उसके लिए साहित्यकार को कितने बंधनों से गुजरना पड़ता है उसका अंदाजा लगाना भी जन-समुदाय के लिए कठिन है .
ग़ज़ल, कविता ,लघुकथा , कहानी सबको पसंद हैं और अधिकांशतः सामने आने पर पढ़ी भी जाती हैं ,सराही भी जाती हैं और आलोचना का शिकार भी होती हैं .पढ़ने वाले को कभी कभी ये भी समझ में नहीं आता कि कहने वाला कहना क्या चाह रहा है और ये सब होता है उसी सीमा-बंधन से जिसमे बँधकर निकलना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता. देखा जाये तो अभिव्यक्ति वह नदी है जो किसी सीमा बंधन को नहीं मानती ,जो शांतिकाल में सहज सीधे पथ पर चलती है और क्रोध में उफान पर चढ़ कह देती है-
'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है ,
दूर हटो-दूर हटो ए!दुनिया वालों ,हिंदुस्तान हमारा है ,''
और ऐसे ही बहा ले जाती है न केवल आस-पास का समूचा क्षेत्र बल्कि सारी दुनिया ही और विडम्बना ये है कि इसी अभिव्यक्ति को साहित्य सृजन के नियम निर्माताओं ने बांधकर उसकी लावण्यता पर,मोहकता पर ,गंभीरता पर ,उत्पादकता पर अंकुश लगाना चाहा है ,नहीं समझ पाए कि -
''सुनामी टल नहीं सकती भले ही बांध बनवा लो ,
कहाँ है राम का सेतु झलक तो उसकी दिखवा लो ,
बंधा तो रहता है जग में ज्वालामुखी भी यूँ तो
फटे पर उसके जो भुगता जरा नुकसान गिनवा लो .''
हम स्वयं देखते है समाज में लड़का-लड़की के घर से भागने की ,आत्महत्या करने की प्रवृति दिनों-दिन बढ़ रही है ठीक इस तरह निबंध लिखने की प्रवृति बढ़ रही है क्योंकि निबंध ही ऐसी एक विधा है जिसमे बिना किसी बंधन के मन में जो आये लिखते चलो .वैसे ही अब कविता की जगह अब मुक्तक ने ले ली जिसमे थोड़ी बहुत शब्दों में हेर-फेर की और लिख दिया ,बात गद्य की लिख दी पद्य में ,बस यही तरीका चल गया अब नव-साहित्य सृजन का ,वैसे भी जब बंधन ज़रुरत से ज्यादा हो जाये तो उसका परिणाम यही होता है ,येन -केन-प्रकारेण जिसे जो कहना है वह कहेगा तो है ही ,नियम है तो उन्हें तोड़ेगा भी और अपनी ओर से नए रस्ते तलाशेगा भी और अब यही हो रहा है . बंधन ने तोड़ दिया परिवार को ,समाज को और जब साहित्य समाज का दर्पण तो असर पड़ा साहित्य पर भी और टूटने लगे साहित्य नदी के तटबन्धन भी और सृजित होने लगा नव साहित्य जो किसी बंधन को नहीं मानता और कहता है वही जिससे अपनी अभिव्यक्ति को आवाज़ दे सके -
''जो कहना चाहे मेरा मन ,कहूंगा मैं खुले दिल से ,
न मानूंगा इस दुनिया की ,सुनूंगा न ताने तुम से ,
जन्म देकर जब माता ने ,कोई बंधा नहीं बाँधा
नहीं ब्रह्माण्ड में ताकत ,जो बांधे मुझको कहने से ,''
इसलिए अंतरष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन २०१७ के आयोजकों व् प्रतिभागियों से करबद्ध निवेदन है कि हम जैसे ''टुटपुँजिये''लेखकों पर भी ध्यान दें और उनके लिए हिंदी साहित्य लेखन को थोड़ी सी सरलता से सजाएँ ,अग्रिम धन्यवाद् और साथ ही सम्मलेन की सफलता हेतु हार्दिक शुभकामनाएं .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]