चुनाव आजकल जनता की सेवा के लिए नहीं सत्ता/कुर्सी के लिए लड़ी जाती है, और कुर्सी मिलने के बाद जनता के हिस्से की उत्थान राशि की बंदरबांट का मेवा को ही देश सेवा, इस देश कहा जाता है?
देश के एक प्रदेश का चुनावी गणित डगमगा रहा है और चुनाव के बाद अगर कोई नई राजनैतिक सूत्र/गठबंधन सामने आये तो चौकने की बारी राजनीती की नहीं जनता की होगी जिसकी उम्मीद/कयास लगाये जा रहें है?
देश की राजनीती सदियों से पुरे विस्व को चौंकाती आई है, और आगे भी अगर चाणक्य की पाटलिपुत्र कोई चौकाने वाले परिणाम देश के सामने रखती है तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए की देश की राजनीती करवट ले रही है?