गीतकार : साहिर लुधियानवी
चित्रपट : गुमराह – १९६३
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती हैं पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाईयाँ हैं मेरे माझी की
तुम्हारे साथ अभी गुज़री हुई रातों के साये हैं
तारूफ रोग हो जाये, तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लूक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
एक बेहतरीन नगमा है आज भी हर कोई गुनगुनाता है, बात जब फ़िल्मी है तो याद कीजिए उस गुजरे दौर को जब देश के सिनेमा घरों में टिकटों की कालाबाज़ारी होती थी और आज ऑनलाइन अग्रिम बुकिंग होती है?
कई दिनों से देश यह समझने की कोशिश कर रहा है की अब तक जो पुरुष्कार वपसी किये गए है और किये जा रहें वे सब क्या ऑनलाइन अग्रिम बुकिंग के तौर पे किये गए थे, पाकिस्तान और पंजाब में दिए गए व्यानो के पक्ष में या विरोध में सवाल यहीं पर आकर खड़ा हो जाता है?
एक नाकाम कोशिश इतिहास को झुठलाने की जब उजागर हुई तब खलबली मचनी लाजमी थी और है, नेताजी वह नाम है जिसके आते ही इतिहासकार पसीने पोछने लगते है? आगे इस बेइज़्ज़ती से अगर पीछा छुड़ाना है तो वापसी के अलावा क्या कोई ऐसा रास्ता है जो किसी चौराहे से निकल कर मंजिल की ओर जाती हो, तो सम्मान वापसी करने वाले के लिए इससे अच्छी खबर कोई हो ही नहीं सकती? उम्मीद पे दुनिया कायम है तलाश ज़रूर पूरी होगी और मंजिल भी मिलेगी?