देश ही नहीं, दुनिया भर की नजर आज 'नेशनल हेराल्ड मामले' पर टिकी है। ऐसे में 'इंडिया संवाद' के साथ अपनी यादें साझा कर रहे हैं वरिष्ठ उर्दू पत्रकार ओबैद नासिर...
साल 1988 का वह दिन आज भी याद है मुझे, जब मैंने हेराल्ड समूह के सिस्टर पब्लिकेशन 'कौमी आवाज' में बतौर युवा पत्रकार ज्वाइन किया था। 'नेशनल हेराल्ड' के मौजूदा विवाद से विक्षुब्ध हूं। कहने को मजबूर हूं कि कांग्रेस के लोगों ने बड़े ही प्यार से 'हेराल्ड' का धन लूटा और जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू किए गए इस प्रतिष्ठित अखबार को बर्बाद कर दिया।
प्रबंधक 'पैसाचोर' है और कर्मचारी 'कामचोर
1980 के दशक में लखनऊ के इस प्रतिष्ठित उर्दू अखबार में मैं युवा संवाददाता हुआ करता था। उस दिनों भी पैसों को लेकर घपले की बातें हमें अमूमन सुनने को मिलती थीं। इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी तब अक्सर लखनऊ के चक्कर लगाते थे। एक बार संजय ने कहा था, "यह अखबार कभी नहीं चल सकता क्योंकि प्रबंधक 'पैसाचोर' है और कर्मचारी 'कामचोर'।" आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो संजय की बात पूरी तरह से सही नजर आती है।
पत्रकार मूकदर्शक बने रहे
अखबार के प्रबंधकों की नियुक्ति गांधी परिवार द्वारा की जाती थी। इसके बावजूद लेन-देन के किसी भी मामले में प्रबंधन से जुड़े लोग कभी भी ईमानदार नहीं रहे। साल 2000 में जब हेराल्ड समूह खुद को नुकसान में दिखा रहा था तब गांधी परिवार एक योजना के साथ सामने आया। उन्होंने कहा कि लखनऊ के दिल में बसे केसरबाग स्थित विशाल हेराल्ड बिल्डिंग बेच दिया जाना चाहिए। इकरारानामा आरोही बिल्डर्स को दिया गया। लगभग 200 दुकानें बनाई गईं। पूरा काम कांग्रेस के निष्ठावान जितेंद्र प्रसाद और एक स्थानीय विधायक देख रहे थे। इस पूरे प्रोजेक्ट में वित्तीय अनियमितताओं की खबरें आ रही थीं लेकिन पत्रकार मूकदर्शक बने रहे।
कोर्ट के आदेश से बंद हुआ लखनऊ आॅफिस
झकझोर देने वाला सच यह है कि कोर्ट ने लखनऊ का हमारा आॅफिस बंद करने का आदेश दे दिया गया था। उसके बाद सोनिया गांधी और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोहरा ने 2004 में लखनऊ में हेराल्ड को बंद करने का निश्चय कर लिया था। हाई कोर्ट में केस चलने के बाद जस्टिस हैदर रजा ने आदेश दिया कि जब तक सबकुछ सेटल नहीं हो जाता, तब तक कर्मचारियों का वेतन चलता रहेगा।
रिक्शा चलाने को हुए मजबूर
उन दिनों हालात बद से बदतर हो चुके थे। हम सभी जाॅबलेस हो चुके थे। मेरे कुछ सहकर्मियों के हालात इतने बदतर हो चुके थे कि बच्चों को खिलाने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं थे। कर्मचारियों में से कुछ दैनिक कामगार में तब्दील हो चुके थे। कुछ तो रिक्शा चलाने को मजबूर हो चुके थे। मेरी वित्तीय स्थिति भी बदहाली की राह पकड़ने लगी थी। अपने बेटे को पब्लिक स्कूल से हटाकर मुझे सरकारी स्कूल में डालना पड़ा। मेरे कुछ वरिष्ठ सहकर्मियों को तो बेटियों की शादी तक टालनी पड़ी।
एक ही किरण थी बची
उर्दू पत्रिकाओं के लिए लिखकर ऐसे दौर में भी किसी तरह से पत्रकारिता के अपने काम को जारी रखने और अपना खर्च चलाने का साहसिक और जोखिम भरा काम मैंने किया। इस धुंधलके में उम्मीद की एक ही किरण बची थी कि श्री वोरा ने हमारा बकाया वापस करने का वायदा किया था। मेरे लिए भी अब लखनऊ छोड़ने की नौबत आ चुकी थी। ऐसे हालात में मुझे 6 लाख रुपये का एक चेक मिला जब मैंने देखा कि हेराल्ड बिल्डिंग मार्केट काॅम्प्लेक्स में तब्दील हो चुका है।
कांग्रेस परिवार का एक हिस्सा है हेराल्ड
तब शायद मुझे खुश होना चाहिए था लेकिन उस दौर में भी मेरा दिल रो रहा था। जो बात मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी वह यह थी कि एक युवा पत्रकार के तौर पर मैंने यहां काम शुरू किया था और लखनऊ में राजीव गांधी से जब भी मुलाकात होती थी, वह अक्सर कहते थे, "हेराल्ड कांग्रेस परिवार का एक हिस्सा है।"
एक मंच था हेराल्ड
पत्रकारों और लेखकों के लिए हेराल्ड एक मंच था। हेराल्ड वह अखबार था जिसके लिए नेहरू ने अपनी जेब से पैसे खर्च कर जमीन और मशीनें खरीदी थीं। जबकि सच्चाई यह थी कि नेहरू की दूसरी और तीसरी पीढ़ी प्रबंधकों में व्याप्त भ्रष्टाचार की जांच का बीड़ा तक नहीं उठाना चाहते थे।
सोनिया और वोहरा ने की मदद
दूसरी ओर, 2008 में गांधी परिवार ने हेराल्ड के दिल्ली आॅपरेशन को बंद करने का भी निर्णय ले लिया। तब लगा कि सचमुच हेराल्ड को इतिहास में दफन कर दिया गया है। इसके बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोहरा लखनऊ आए। उन्होंने कहा कि सोनिया जी से बात करके आप सभी के लिए कुछ करने की कोशिश करता हूं। सोनिया जी से बातचीत करने के बाद उन्होंने सबका पेमेंट करवा दिया था। उस वक्त सोनिया जी और वोहरा जी हमारे लिए बेहद मददगार साबित हुए थे।
अखबार को पुनर्जीवित करने की कोशिश
लखनऊ और दिल्ली के तकरीबन एक हजार कर्मचारी, जिनमें ज्यादातर पत्रकार थे, उन दिनों अपनी नौकरी गंवा चुके थे। उसके बाद हमें बताया गया कि लखनऊ के पूर्व पत्रकार सुमन दुबे, जो राजीव गांधी के करीबी थे, अखबार को फिर से शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं।
एक झोंके ने सब खत्म कर दिया
2012 में मुझे शीला दीक्षित के आॅफिस से एक फोन आया। फिर दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री का। मैं उनसे मिला और उन्होंने मुझसे पूछा, "अगर मैं कौमी एकता को फिर से शुरू कर सकूं?" यह आॅफर मुझे खुली हवा में ताजी सांस लेने जैसा लगा, लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी सीट बेल्ट बांधता, तेज हवा के एक झोंके ने सबकुछ खत्म कर दिया।
नेहरू के लिए होगी बड़ी श्रद्धांजलि
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि केवल नेहरू ही थे जिन्होंने एक बार लिखा था कि अगर हेराल्ड कभी नुकसान में हुआ तो आनंद भवन (नेहरूजी के पूर्वजों का अलाहाबाद स्थित बंगला) को बेचकर इसका खर्च उठाया जाए। आज मैं महसूस कर रहा हूं कि किसी भी विवाद में पड़ने के बजाय गांधी परिवार को एक बार फिर से हेराल्ड को शुरू करने के बारे में सोचना चाहिए, जिसने देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। नेहरू के लिए यही एक बड़ी श्रद्धांजलि होगी।