खराब नीतियों द्वारा थोपे गए नुकसान भयानक हो सकते हैं, लेकिन टीवी के एंकरों का ध्यान इन पर कभी नहीं जाता। जनता की नजर भी इन पर तभी जाती है, जब कोई विशाल संख्या ऐसे नुकसानों के साथ नत्थी कर दी जाती है (मसलन 2 जी स्पेक्ट्रम और कोल ब्लॉक्स के मामले)। इन मामलों से जुड़ी संख्याएं बाद में बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई प्रतीत हुईं, लेकिन हर तरफ फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के गुस्से को आकार देने में इनकी एक भूमिका जरूर रही। दुर्भाग्यवश, खराब कानूनों और लालफीताशाही से होने वाले नुकसान को लेकर हमारे पास कोई आकलन ही नहीं है। ये चीजें आर्थिक सक्रियता की राह में रोड़ा बनती हैं और सरकार की आमदनी तथा कल्याणकारी कार्यों पर होने वाले खर्च में कटौती का सबब बनती हैं। हमारे श्रम कानून लोगों को काम पर रखना इतना मुश्किल बना देते हैं कि हाल के रोजगार आंकड़ों के मुताबिक, पिछले सात वर्षों में नौकरियां हमारे देश में नहीं के बराबर सृजित हो पाई हैं और कामगारों को मजबूरी में स्व-रोजगार का रास्ता अपनाना पड़ा है।
चाहिए पक्का हिसाब
डेढ़ लाख करोड़ रुपये की सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं तरह-तरह के क्लीयरेंस को लेकर अटकी पड़ी हैं। लेकिन नौकरी, गरीबी उन्मूलन और आर्थिक वृद्धि पर इसके असर को लेकर कोई भी आकलन हमारे पास नहीं है। यही कारण है कि इसे लेकर हम न तो जनता में कोई गुस्सा देखते हैं, न ही टीवी एंकरों और अदालतों में किसी तरह का ऐक्टिविज्म इस संबंध में दिखाई पड़ता है। सरकारी कृत्यों और अकृत्यों की कीमत का स्वतंत्र आकलन हमारे पास होना चाहिए। श्रम, पर्यावरण और भूमि अधिग्रहण संबंधी कानूनों की जरूरत से कोई इन्कार नहीं कर सकता। लेकिन हमारे पास इसका हिसाब भी होना चाहिए कि कौन सा कानून अपनी सबसे ज्यादा कीमत वसूलता है और इससे पैदा होने वाली रुकावट को कम कैसे किया जा सकता है। हमें गहरे सुधारों की जरूरत है, और इसका आधार नफे-नुकसान के सटीक आकलन को ही बनाया जा सकता है।
कानूनों का बढ़ता जंगल
न्यायिक सक्रियता के लिए भी यह फायदेमंद साबित होगा। कई देशों में न्यायाधीश सार्वजनिक मामलों में अपना फैसला सुनाने से पहले व्यापक कॉस्ट-बेनिफिट एनैलिसिस का आदेश देते हैं। भारत में ऐसी कोई परंपरा नहीं है। अदालतें यहां अक्सर लॉबियों और ऐक्टिविस्टों पर निर्भर करती हैं, जिनके अपने-अपने स्वार्थ होते हैं और जो मामले का अत्यंत पूर्वाग्रहग्रस्त आकलन प्रस्तुत करते हैं। हमें जरूरत है स्वतंत्र आकलन की। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद, जिसका नेतृत्व सी. रंगराजन कर रहे हैं, संभवत: इस काम के लिए सर्वाधिक उपयुक्त निकाय है। योजना आयोग का स्वरूप कुछ ज्यादा ही राजनीतिक है और संसदीय कार्य मंत्रालय को तो स्वतंत्र माना ही नहीं जा सकता। अमेरिका में कॉम्पिटीटिव एंटरप्राइज इंस्टिट्यूट (सीईआई) ने हाल में संघीय कानूनों की कीमत से जुड़ा एक व्यापक सर्वेक्षण किया। फेडरल रजिस्टर, जिसमें सभी कानूनों से जुड़े ब्यौरे दर्ज किए जाते हैं, 1936 में 2,620 पृष्ठ से फूलकर 1986 में 44,812 पृष्ठ मोटा हो गया और अभी यह 78,961 पृष्ठ का है।
सीईआई ने इन कानूनों पर अमल से होने वाले नुकसान का अंदाजा 18 हजार करोड़ डॉलर प्रति वर्ष का लगाया है, जो अमेरिकी जीडीपी का लगभग 12 प्रतिशत है। भारत में भी ऐसे ही आंकड़ों की जरूरत है। कानून लागू करने की कीमत जब आसमान छूने जाती है तो भ्रष्टाचार स्वाभाविक रूप से उसकी जगह लेने लगता है। अमेरिका में कांग्रेसनल बजट ऑफिस (सीबीओ) नाम की एक सरकारी संस्था सरकारी आय-व्यय और किसी भी प्रस्तावित कानून के नफे-नुकसान का स्वतंत्र आकलन करती रहती है। इसकी साख इतनी ज्यादा है कि हर साल सभी महत्वपूर्ण कानूनों पर आने वाली इसकी दर्जनों रिपोर्टों पर कोई उंगली नहीं उठाता और सार्वजनिक बहसों के निर्देशन में इसकी अहम भूमिका हुआ करती है। हमारे पास तो इसके जैसी कोई चीज ही नहीं है।
खेती को लेकर प्रस्तावित एक नए सुधारवादी विधेयक के बारे में सीबीओ का आकलन है कि इससे अमेरिकी खेती की लागत में सिर्फ 3 करोड़ 30 लाख डॉलर की सालाना कमी आएगी जो कि 974 अरब डॉलर की सालाना अमेरिकी कृषि लागत को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे जैसी चीज है। निष्कर्ष यह कि इस विधेयक में वास्तविक सुधार जैसी कोई बात नहीं है। ऐसा हिसाब भारत में भी रखा जाना चाहिए, लेकिन इसमें पुराने कानून से पड़ने वाले बोझ के ब्यौरे भी होने चाहिए। आईएफसी / वर्ल्ड बैंक की साल में एक बार जारी होने वाली डूइंग बिजनेस रिपोर्ट में व्यापारिक सुविधाओं के लिहाज से की गई रैंकिंग में भारत को कुल 185 देशों में 132 वां स्थान मिला है और पिछले कई सालों में इसकी रैंकिंग जरा भी नहीं सुधरी है। व्यापार शुरू करने की सरलता के मामले में भारत का स्थान 173 वां है। कॉन्स्ट्रक्शन परमिट लेने में 182 वां, टैक्स चुकाने में 152 वां, विदेश व्यापार में 127 वां और कॉन्ट्रैक्ट लागू करा ले जाने में 184 वां। इस तरह की रैंकिंग खीझ पैदा करती है।
आखिर कितने का चूना
इतनी सारी जगहों से फाइलें निकलवाने में काफी सारी बर्बादी और भ्रष्टाचार की गुंजाइश पैदा होती है। लेकिन इस पर लोगों का गुस्सा इसलिए नहीं भड़कता, क्योंकि हमारे पास इसका कोई हिसाब ही नहीं है कि इन गड़बडि़यों का रोजी-रोजगार और आमदनी पर क्या असर पड़ता है और गरीबी को और बढ़ाने में ये कितनी बड़ी भूमिका निभाती हैं। एक ऐसे समय में, जब व्यापार घाटा बेकाबू हो रहा है और रुपया रसातल को जा रहा है, तब विदेश व्यापार में भारत का इतना नीचा मुकाम बहुत ज्यादा परेशान करने वाला है। लालफीताशाही का किस्सा खत्म करने, व्यापार से जुड़े खर्चे घटाने और विदेश व्यापार को सुगम बनाने से जुड़े सुधारों की हमें सख्त जरूरत है। इसके लिए जन दबाव बनना तभी शुरू होगा, जब हमारे पास एक ऐसी स्वतंत्र विशेषज्ञ संस्था हो, जो हमें बिल्कुल ठीक-ठीक यह बता सके कि बेवकूफी भरे कानून और भ्रष्ट अफसर हमें कितने का चूना लगा रहे हैं।