पत्रकारिता जगत और पत्रकारों का राजनीतिकरण और सामाजिक पत्रकारिता के सामाजिक दायित्व का आसमाजीकरण ?
सांप सपेरों का देश आज तरक्की के रस्ते पे चलते हुए उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में नया मुकाम हासील कर चूका है और दुनिया लोहा मानती है हमारा! मगर इतनी तरक्की के बाद भी देश का राजनैतिक और सामाजिक चेहरा अब भी नहीं बदला, जो चेहरा अब से पहले थी उसकी सुंदरता में चार चाँद की जगह कुरूपता ने वह मैली चादर ओढ़ ली है, जिसमे सभ्य और आधुनिक समाज का वो घिनौना चेहरा नज़र आता है जिसकी कल्पना शायद किसी ने भी नहीं की होगी?
जितने राजनैतिक दल कमोवेश उतने ही मीडियाहाउस है और जितने राजनेता है लगभग उतने ही मिडिया कर्मी / पत्रकार होंगे? जनता के बीच इनका राजनीतिकरण कब और कैसा हो गया और इसका जिम्मेदार कौन है यह विवेचना/बहस का हिस्सा ज़रूर हो सकता है मगर लांछन से अछूता कोई नहीं है? ABC मीडिया हाउस XYZ राजनैतिक दल का समर्थक, A B पत्रकार CBA राजनैतिक दल का समर्थक, इसी तरह इनका विभाजन होता गया और अंत में कोई भी पत्रकार जनता/समाज या देश का पत्रकार कहलाने की स्थिति में नहीं है यह भी एक विचित्र स्तिथि है, सामाजिक पत्रकारिता के नज़र में!
मुख्यधारा की मीडिया का जब से नागरिकों के नज़र में राजनीतिकरण हुआ और इनका गुटो में विभाजन, सामाजिक पत्रकारिता का दायरा और महत्व बढने लगा और मुख्यधारा की पत्रकारिता भी इससे जुड़ने लगी और अब तो लगभग सभी जाने माने पत्रकारों का कम से कम एक अकाउंट तो सामाजिक पत्रकारिता में किसी न किसी रूप में मौजूद है, यह एक अच्छा साधन भी है लोगो की राय/प्रत्रिक्रिया जानने के लिहाज से?
जाने अनजाने माने या न माने फेसबुक और ट्व्वीटर देश की राजनीती का लोकसभा और राज्यसभा भी है और राजनीति का अखाडा भी? यहाँ पर जो प्रत्रिक्रिया लोगो द्वारा व्यक्त की जाती है वह सभ्य समाज और अस्भय समाज के तरफ इशारा तो करती है जो एक दूसरे को गाली देने के साथ साथ निशाने पे पत्रकार और राजनेता भी इस संस्कृति से अछूते नहीं रह पायें है? जिसका ताजा उदहारण देश के प्रधानमंत्री की जनता से अपील और अपने दौर के चॉकलेटी/रोमांटिक हीरो श्री ऋषि कपूर जी के ट्विटर अकाउंट पे किसी असामाजिक तत्व से सामाजिक पत्रकारिता पे बहस और उनको उपदेश में संस्कार की बातों का उल्लेख आज मुख्यधारा की समाचार पत्रकारिता में अपना जगह बना लेती है!
हाल ही के दिनों में पत्रकरों द्वारा लोगो से राय जानने के दौरान या फिर उनकी सामाजिक पत्रकारिता पे की गई टिप्पणियों पे राजनैतिक गुटों में विभाजित जनता बाढ़ में पानी की तरह सुनामी बन कर टूट पड़ती है पोस्ट पर अपने कॉमेंट के साथ जो सभ्य और असभ्य के साथ साथ अभद्र भी होती है जिसका उल्लेख यहाँ पर करना उचित नहीं लगता है?
इस बिषय पर श्री अभिज्ञान जी एक कार्यकर्म भी कर चुके है और कुछ पत्रकार जो आलोचनाओ से अपने आप को वंचित रखना चाहते है तकनीक का उपयोग कर रहें है और कुछ जब ज्यादा परेशान हो जाते है तो अपनी प्रतिक्रिया भी देता है, चलिए आप सब फुटिये तो यहाँ से सुबह सुबह सब पहुंच जाते है और कचर कचर करते रहते है या फिर मैंने कभी किसी बात का बुरा नहीं माना, इस शालीनता को देश की जनता का सलाम!
देश में जनता को भी राजनैतिक दलों से कम से कम इस बात को सिखने की ज़रुरत महसूस की जा रही है की जैसे राजनैतिक दल जनता के सामने एक दूसरे से दुश्मनी को जनता के सामने खुलकर/जम कर प्रदर्शन/अंजाम देते है, मगर अंदर खाने इतनी गुंजाईश रखते है की फिर दुबारा मिले तो नज़रें मिलाकर बात कर सकें?
अनदर खाने सब राजनैतिक दल एक इसकी समझ अब शायद जनता महसूस करने लगी है, मगर सामाजिक पत्रकारिता पे गली गलौज सही है या मात्र दिखावा मात्र है जिसके लिये एक ही व्यक्ति द्वारा ७० -७० अकाउंट का संचालन कोई मजाक नहीं है शायद सामाजिक पत्रकारिता का सबसे असामाजिक चेहरा भी शायद यही है?