क से कौवा भी होता है और L से Lion भी? देश को अब ऐसा क्यों लगने लगा की जो देश की न्यायिक व्यवस्था से देश की जनता का विस्वास अब उठने लगा है, और अगर वजह तलाशे तो बहुत हद तक सही भी लगता है नहीं तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश को क्या पड़ी थी की, जनता से राय मांगी जाये?
कौवे और Lion का ज़िक्र इसीलिए किया की न्यायालय की व्यवस्था देश के अंदर इससे बेहतर नहीं है वकीलों कि जिरह और भर्ष्टाचार रूपी भक्षक, अगर ख़बरों की माने तो देश में 52 प्रतिशत जज या तो जज के रिश्तेदार है, वकीलों के रिश्तेदार है या फिर जाने माने वकीलों के साथ या फिर उनके निचे कभी काम किया है, या फिर देश की व्यवस्था के तहत एक मशहूर खुलाशा है जिसे याद दिलाने की ज़रुरत नहीं सबके जहन में होगा?
जब नियुक्ति की प्रक्रिया में ही घाल मेल है तो प्रणाली कितने सुचारू रूप से काम कर रही होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है! देश के जाने माने वकील के अधीन जब कभी काम किया हो और अगर वह जज की कुर्सी पे बैठा हो तो जमानत क्या चीज़ है, सभी मामलों से गुनहगार को बरी भी किया जा सकता है?
फिल्म गंगा यमुना का मशहूर गाना "इन्साफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के" अब सवाल यहाँ यह उठता है की नेता बनकर क्या करोगे, देश को लूटोगे, खसोटोगे अगर उससे भी काम न बना तो आगे का रास्ता क्या अपनाना है राजनीती जानती है?
मगर इंसाफ़ नहीं मिलता मगर क्यों कानून में इतने पेंच है, और इनका इस्तेमाल कैसे करनी है न्यायिक व्यवस्था के लोग इसे वखूबी जानते है, कौन सी पेंच कब ढीली छोड़नी है, कब कसना है, किस पेंच को किस तरीके से कहाँ कहाँ फ़साना है और इस पेंच को कब हमेशा के लिए गुम करना है ये कुछ कानूनी हथकंडे है इनके इस्तेमाल से गुनहगार तो बच निकलता है हमेशा के लिए, और बेगुनाह फंस जाता है हमेशा के लिए?
उसके बाद फिर दुहाई दी जाती है की अगर आपको देश की न्यायिक व्यवस्था पर यकीन नहीं है तो इस जहां से अलग एक जहां और भी है, इंसाफ़ वहां ज़रूर मिलेगा? चिंता जब चिता पर लेट जाती है तब इंसाफ़ किसे चाहिए होता है यह समझ से परे है?
देश के कानून को बचाने के लिए सेना भी बुलाई जा सकती है, अगर ऐसा सम्भव हुआ तो देश तरक्की के रस्ते चल पड़ेगा, क्या यह सम्भव है सेना के तीनो अंगों के प्रमुख तीन, उनका सुप्रीम कमांडर राष्ट्र्पति, और न्यायिक व्यवस्था में पैसों की ज़रुरत को पूरा करने के लिए राजनीती है, तो क्या इतने पेंच के बाद भी क्या यह सम्भव पेंच जान पड़ता है?
देश के अनदर कानून की पढाई कैसे होती है यह भी देशवासियों को भी पता होना चाहिए, १९९० के दशक की कहानी बता रहा हूँ, हो सकता है अब उसमे कुछ तब्दीलियां आई होगी क्योंकि परिवर्तन संसार का नियम है?
कक्षा के अंतिम पंक्ति पर बैठने वाली विद्यार्थी अक्सर कानून की पढाई करते थे और परीक्षा के समय कानून की किताब खोल कर उत्तर पुस्तिका में छाप देते थे, कानून की डिग्री मिल गई इसमें कुछ अपवाद ज़रूर होंगे जो विदेशों में भी जाकर पढाई की होगी? और इस दोनों की सोच के क्या कहने दिन भर कचहरी में बैठ क़र एक एफिडेविट करवा दिया रूपये सौ की जगह रूपये हजार वसूल लिए कानूनी पेंच का सहारा है? और जो विदेशों से पढ़ क़र लौटे है उनका कहनाम आप सबको याद होगा याद दिलाने की ज़रुरत नहीं है!
एक पागल की सोच और से जुदा होती है अगर देश के प्रमुख न्यायधीश चाहते है की देश में सचमुच बदलाव आये तो,और विषय की तरह ही सरकारी हो या गैसरकारी स्कूलों में कक्षा १ से ही कानूनी शिक्षा को अनिवार्य क़र दिया जाये? देश के सुदूर इलाकों में जहाँ कहीं भी सरकारी और गैरसरकारी स्कूल है उनमे सुचारू रूप से पढाई की व्यवस्था हो अगर आप इतना सुनिचत क़र पाते है तो अगले १५ से २० सालों में बदलाव दिखने लगेगी, नहीं तो तमाम कोशिशों के बाद भी नतीजा धाक के तीन पात? हो सकता है राजनीती इस में अपनी सहमती न जताये मगर अगर कुछ बदलना है तो कुछ करना ही पड़ेगा? एक लाख छियासी करोड़ का सरकारी अनुदान खाद्यान पर जैसे बिना लगाम के जाया हो रही है, कहीं पढाई के नाम पर दी गई अनुदान जाया तो नहीं हो रही है?
एक जनता के तौर पर आप भी अपनी राय दीजिये अगर आपसे सहमति जताई गई तो देश के सुनहरे अक्षरों में आपका नाम लिखा जायेगा बदलाव की दिशा में एक कदम आगे चलिए?