ग्राम अपने आप में एक ऐसी व्यवस्था है
जिसके विषय में इसके पूर्णत: आत्मनिर्भर
पूर्णत: आत्मानुशासित और पूर्णत:
आत्मनियंत्रित रहने की परिकल्पना को
हमारे ऋषि पूर्वजों ने साकार रूप दिया।
आज के भौतिकवादी युग में किसी ईकाई
या संस्था के पूर्णत: आत्मनिर्भर
आत्मानुशासित अथवा आत्मनियंत्रित
होने की कल्पना नहीं की जा सकती।
ग्राम्य और शहरी सभ्यता में यही अंतर है।
ग्राम्य सभ्यता संस्कृति प्रधान होती
थी, जिसमें एक ऋषि या ऋषिमंडल के
दिशा निर्देशन में पूरा गांव कार्य करता
था। जहां व्यायामशाला होती थी,
कृषि योग्य भूमि होती थी। जिससे अन्न
औषधादि मनुष्य देह की नीरोगता के लिए
उत्पन्न होती थी। एक गुरूकुल होता था,
जिसमें ऋषि लोग छात्रों का जीवन
निर्माण कर उन्हें विश्व राष्ट्र के लिए
उपयोगी बनाया करते थे। गोचर भूमि में
गौ-धन विचरता था, जो हमारी कृषीय
अर्थव्यवस्था का आधार होता था और
मेधावृद्घि कर हमारी आध्यात्मिक
उन्नति में भी सहायक होता था। ऐसे
परिवेश में एक गांव के लिए दूध, पानी,
भोजन, अन्नादि कहीं बाहर से नहीं
लाना पड़ता था, अपितु जीवन की मूलभूत
आवश्यकताओं की पूर्ति वहीं होती थी।
प्रकृति के साथ सहचर्य के आनंद से खरा
वातावरण जगमगाता था, चारों ओर
सहचर्य और संवेदनाओं की मीठी-मीठी
सुगंध मीठे जल के झरने की भांति झरती
रहती थी। इससे आध्यात्म का वातावरण
बना रहता था। प्रत्येक प्राणी के जीवन
को हम अपने लिए उपयोगी मानते थे,
इसलिए जीव हत्या पूर्णत: निषिद्ध
होती थी। अत: जीवन को संपूर्णता में
जीने की एक संपूर्ण व्यवस्था का नाम है
ग्राम। यह हमारी उच्चतम मेधा शक्ति का
प्रतीक था।
योग से मोक्ष प्राप्ति हमारे जीवन का
उद्देश्य हुआ करती थी। इसलिए चारों ओर
आत्मानुशासन हुआ करता था। भारत को
हम बड़े सहज भाव से गांवों का देश कह देते हैं,
पर यह जानने का प्रयास नहीं करते कि
गांव होता क्या है? हम यह भी कहते हैं कि
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, पर यह
नही जानते कि भारत की आत्मा है क्या?
सचमुच गांव सहयोग, सम्मैत्री, सदभाव,
सहचर्य और समभाव की वह पावन गंगा है
जो मानव हृदय की अध्यात्म की प्यास
बुझाती है और उसे मानव से देव बनने की ओर
प्रेरित करती है। मानव का आध्यात्मिक
जागरण कर उसे प्रकृति का असहयोगी
नही, अपितु सहयोगी बनाती है और उसे
प्रेरित करती है कि मेरी तरह तू भी बीहड़
जंगलों के बीच से अपना रास्ता बना, आगे
बढ़ और विलीन हो जा मोक्ष के अनंत
सागर में। सचमुच ये सहयोग, सम्मैत्री आदि
के दिव्य गुण गांव में इसलिए मिलते थे कि
वहां दिव्य मेधासंपन्न दिव्य ऋषि मंडल
रहा करता था। ये ऋषिमंडल किसी
राजा या सम्राट के कानून का पालन
नही करता था, अपितु ईश्वरीय व्यवस्था
के अनुसार धर्म का शासन चलाता था और
सब लोगों में परस्पर सहयोग, सम्मैत्री
आदि के दिव्य गुणों को विकसित कर उन्हें
जीवन पथ पर आगे बढऩे के लिए खुला छोड़
देता था। वे सारे लोग स्वभावत: इन दिव्य
गुणों को अपने जीवन का आधारभूत सत्य
मानकर इनके अनुसार ही अपना जीवनाचरण
बनाया करते थे। यह आध्यात्मिक जीवन
आचरण और सहचर्यवाद की पराकाष्ठा ही
भारत की आत्मा है, जो गांवों में बसती
कही जाती है।
समय ने करवट ली। जीवन मान्यताएं बदलीं
और हमने देखा कि भारत के गांवों को
उजाड़कर नगर बसाने की योजनाएं बनने
लगीं। अंग्रेजों ने जितनी शीघ्रता से हो
सकता था इस ग्राम्य व्यवस्था को
उजाडऩे का कार्य करना आरंभ किया।
लॉर्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 ब्रिटेन की
संसद में बोलते हुए कहा कि भारत में इस समय
6 लाख गुरूकुल कार्य कर रहे हैं। यानि
प्रत्येक गांव में एक गुरूकुल है। यदि हम भारत
में सफल होना चाहते हैं तो हमें भारत की
इस गुरूकुल परंपरा को समाप्त करना होगा।
बस यहीं से भारत को उजाडऩे का उपक्रम
आरंभ हुआ। पिछले पौने दो सौ वर्ष से
भारत को उजाड़ा जा रहा है। भारत की
आत्मा छंटपटा रही है, भारत का प्रकृति
के साथ सहचर्यवाद का दिव्य वातावरण
समाप्त होकर रह गया है और हम नरकीय
जीवन व्यवस्था के मकडज़ाल में जाकर फंस
गये हैं।
हमने आध्यात्म के जंगल उजाड़कर कंकरीट के
जंगलों को बसाना आरंभ कर दिया।
जिससे हमारी संवेदनाएं मरने लगीं और
संवेदननाशून्य ‘मशीनी मानव समाज’ का
तेजी से विस्तार होने लगा। गरीबी और
अमीरी के बीच की खाई में जमीन
आसमान का अंतर हो गया। हमने बहुत बड़े
मानव समाज को पिछड़ा, अति पिछड़ा
और दलित-शोषित या उपेक्षित समझकर
बहुत पीछे छोड़ दिया।
इसी खेल में देश आजाद हो गया और
आजादी के बाद अब 21वीं सदी में भी
भारत आ गया। पर जो खेल चल रहा था उसे
हमने छोड़ा नहीं, अपितु उसे और भी
द्रुतगति से जारी रखा। हम नगरों से
महानगरों में प्रविष्ट हो गये। महानगरों
की ये जीवनशैली वो शैली है, जिसमें न तो
आत्मनिर्भरता है, न आत्मानुशासन है और
नही आत्मनियंत्रण है। यहां जल, वायु,
अन्न, औषधि, सब्जी, दूध आदि सभी बाहर
से आते हैं। जिससे लोगों को मिलावट करने
का अवसर मिलता है, क्योंकि लोग सोचते
हैं कि ये चीजें हमारे लिए नहीं, बल्कि
शहरियों के लिए जा रही है, कर लो
मिलावट… बना लो… दाम। यह भावना
गांव में इसलिए पैदा हुई कि उसे पिछड़ा,
अति पिछड़ा समझकर पीछे छोड़ दिया
गया और नगरों ने उसकी जीवन शैली पर
व्यंग्य करना आरंभ कर दिया। शहरों का
वातावरण परमुखापेक्षी होता है, जबकि
ग्रामीण परिवेश को स्वावलंबी माना
जाता रहा है। शहरी परिवेश बाजार
व्यवस्था का जनक है, जबकि ग्रामीण
परिवेश या ग्राम्य सभ्यता वस्तु विनिमय
से काम चलाती रही है। शहरी सभ्यता
भौतिकवादी है तो ग्राम्य सभ्यता
संस्कृति प्रधान है। अध्यात्मवाद उसका
मूल स्रोत है। आत्मानुशासन अर्थात कर्तव्य
पथ पर बढ़ते हुए सुंदर व्यवहार निष्पादित
करना, निष्छल, निष्कपट और निभ्र्रांत
रहना ग्राम्य सभ्यता का मूल स्वभाव है,
जबकि शहरी सभ्यता इसके विपरीत आचरण
करती पायी जाती है। इसलिए विश्व
की प्राचीन नगरीय सभ्यता के अवशेष
जहां-जहां मिलते हैं, वहां-वहां हमें
स्थानीय शासन की प्रणाली को
विकसित करने में नगरों की सहभागिता
दीख पड़ती है। यह महत्वपूर्ण है कि ग्राम्य
सभ्यता आत्मानुशासित रहती है और
स्वभावत: कोई ऐसा कार्य नही करती
जो किसी दूसरे व्यक्ति के मौलिक
अधिकारों में बाधा उत्पन्न करे, या उनका
हनन करे। जबकि नगरीय सभ्यताओं में ऐसा
होता है,और ऐसा हेाता है इसलिए वहां
कोई ‘स्थानीय शासन’ मिलता है। जिसे
कुछ ऐसे महत्वाकांक्षी (सेवाभावी नही)
लोग विकसित करते हैं जो कि दूसरों पर
अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। इस
प्रकार शासन के माध्यम से वर्चस्व
स्थापित कर लोगों का शोषण करने की
प्रणाली भारत की ग्राम्य संस्कृति की
नही, अपितु पश्चिम की नगरीय सभ्यता
की देन है।
आज भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
भारत में सौ मेट्रो सिटी बसाने की बात
कह रहे हैं। हमारा देश के प्रधानमंत्री जी से
अनुरोध है कि वे महानगरों की नारकीय
जीवन शैली से शिक्षा लें। देश में मेट्रो-
सिटी बसाने की नही अपितु ‘मेधा ग्राम’
बसाने की आवश्यकता है। ऐसे ग्राम जो
आत्मनिर्भर हों, आत्मानुशासित हों,
आत्मनियंत्रित हों। जहां दूध, पानी,
हवा, अन्न औषधि आदि सभी उपलब्ध हों
और लोग प्राकृतिक सहचर्य को अपनाकर
स्वभावत: एक दूसरे के साथ मिलकर चलने के
अभ्यासी हों। महानगर बसाने का
अभिप्राय है कि जीवन शैली को अस्त
व्यस्त कर देना। एक ही स्थान पर पचास
लाख की आबादी को बसाकर लोगों
को पानी कहां से दोगे? दूध, सब्जी कहां
से दोगे? यह विचारणीय है। इसलिए
आवश्यक है कि मेधा ग्राम बसाओ। एक
ग्राम में कितनी आबादी रहेगी-यह
निश्चित करो। उसके लिए कितनी भूमि
पर सब्जी फल उगाए जाएंगे? कितनी भूमि
पर गौ आदि दुधारू पशु रखकर उनके दूधादि
की प्राप्ति की जाएगी? यह भी
निश्चित करो। ऐसे मेधा ग्राम को
बसाकर उसके आध्यात्मिक विकास के लिए
ऋषि मंडल की स्थापना करो ताकि
राज्य के विधि के शासन को लोग
स्वभावत: पालने के अभ्यासी बनें। मेधा
ग्राम को आत्मनिर्भर स्वावलंबी बनाओ
और परमुखापेक्षी रहने की गली सड़ी
वर्तमान नगरीय व्यवस्था को जितना
शीघ्र हो सके विदा करो। सबल और सफल,
सक्षम और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए
आज नये-नये प्रयोग करने की बजाए
ऋषियों के अनुभूत प्रयोगों को ही अपनाने
की आवश्यकता है।