कौन था फ्रांसिस जेवियर ?
"जब सभी का धर्म-परिवर्तन हो जाता है तब मैं
उन्हें यह आदेश देता हूँ कि झूठे भगवान्
के मंदिर गिरा दिए जाएँ और मूर्तियाँ तोड़
दी जाएँ.जो कल तक उनकी पूजा करते थे उन्हीं
लोगों द्वारा मंदिर गिराए जाने तथा
मूर्तियों को चकनाचूर किये जाने के दृश्य को
देखकर मुझे
जो प्रसन्नता होती है उसको शब्दों में
बयान करना मैं नहीं जनता".
क्या आप जानते हैं उपर्युक्त शब्द किसके हैं?महमूद
गजनवी के?या औरंगजेब के? या किसी अन्य मुग़ल
बादशाह के?नहीं,ये'उदगार'
हैं एक विश्व-प्रसिद्ध"संत"के जिसका नाम सुनकर
करोड़ों लोगों के मस्तक श्रद्धा और सम्मान से
नत हो जाते हैं तथा जिसके नाम पर
सैकड़ों शिक्षण संस्थान भारत में चलाये जा रहे
हैं.
जी हाँ,उस महान "संत"का नाम है फ्रांसिस
ज़ेवियर.
कौन था फ्रांसिस ज़ेवियर और क्या-क्या
कारनामे किये उसने इस पावन धरती पर, यह
जानना आवश्यक है.
फ्रांसिस ज़ेवियर का जन्म १५०५ ई में नवारे
(पुर्तगाल) में हुआ था.प्रारंभिक शिक्षा अपने
देश मे पाने के बाद वह उच्च शिक्षा
के लिए पेरिस गया जहां उसने अपने पांच अन्य
मित्रों के साथ मिलकर "जेसुइट"(jesuit) समाज
(Society of Jesus)
की स्थापना की जो आगे चलकर कैथोलिक मत
प्रचार की प्रमुख एजेंसी बनने में सफल हुई.
पुर्तगाल के सम्राट जोमामो (त्रितीय) की
प्रेरणा तथा पोप की सहमति से जेवियर ६
मई,१५४२ को लिस्बन से गोवा आ गया.यहाँ आने
के
बाद
उसने संत पॉल महाविद्यालय कि स्थापना की
जिसका उद्देश्य स्थानीय लोगों को 'मत-
प्रचार'के लिए मिशनरी शिक्षा देना था.
अक्टूबर,१५४२ में ज़ेवियर कोरमंडल के मोती-मछली
तट पहुंचा जहाँ पुर्तगालियों ने १५१८ से १५३० के
बीच अपना आधिपत्य स्थापित कर
लिया था.इस तट पर 'परवा'जाति के मछुआरे रहा
करते थे जिन्होंने दबाब में आकर इसाई बनना तो
स्वीकार कर लिया था किन्तु व्यवहार
में वे हिन्दू ही रहे थे तथा मूर्तियाँ बनाते थे व्
उनकी पूजा भी किया करते थे.सन १५४२-१५४५ के
दौरान ज़ेवियर ने उन पर ऐसे-ऐसे अत्याचार
किये जिसका उदाहरण इतिहास में विरले ही
मिलता है.ईसाई इतिहासकारों ने History of
Christianity in India
(United Theological Seminary,Bangalore द्वारा
प्रकाशित)में ज़ेवियर के अत्याचारों की
कहानी का खुलासा किया है.उनके अनुसार
ज़ेवियर
को जब भी किसी व्यक्ति के द्वारा मूर्तियाँ
बनाने या मूर्ति-पूजन की सूचना मिलती थी
तो वह स्वयं वहां जाकर अपनी आँखों के सामने
उन्हें तुडवा देता
था.यदि उसके बाद भी कोई ईसाई मूर्तियाँ
बनाने का कार्य जारी रखता था तो ज़ेवियर
उस व्यक्ति को ग्राम-प्रधान द्वारा
प्रताड़ित करवाता था या उसे गाँव
छोड़कर जाने पर वाध्य कर देता था.हिस्ट्री के
ही अनुसार जब एक दिन ज़ेवियर को किसी घर में
मूर्ति-पूजा कि सूचना मिली तो उसके आदेश से
उस झोपडी
जला दिया गया ताकि दूसरों को सबक मिल
सके.
करोमंडल तट पर किये गए अपने अत्याचार की
कहानी ज़ेवियर ने मालाबार में भी दुहराई.वहां
भी जब सारे गाँव के लोगों का बप्तिस्मा हो
जाता था तब ज़ेवियर
के आदेश से गाँव के मंदिरों को गिरा दिया
जाता था तथा उनमे स्थापित मूर्तियों के
टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते थे.अपनी'बहादुरी'की
गाथा को उसने 'सोसाइटी
ऑफ़ जीसस'को लिखे गए पत्र (दिनांक ८
फरवरी,१५४५) में लिपिबद्ध किया था जिसकी
कुछ पंक्तियाँ ऊपर उधृत की गयीं हैं.
ज़ेवियर के मत-परिवर्तन अभियान में रोम द्वारा
नियुक्त 'विकार जनरल ऑफ़ इंडिया मिन्गुएल
वाज़ भी शामिल था.ज़ेवियर की प्रेरणा से उसने
नवम्बर १९४५ में
पुर्तगाल के राजा को एक पत्र भेजा और ईसाई
मत-प्रचार व् मत-परिवर्तन को आसान व् सफल
बनाने के लिए ४१ सूत्री कार्यक्रम की अनुशंसा
की जिसके तहत मूर्तियाँ
बनाना (चाहे वे मिटटी की हों या लकड़ी की
या पत्थर की या ताम्बे कि या किसी अन्य
धातू की)और मूर्ति-पूजा गैर-कानूनी करार कर
दिया गया तथा उसकी
अवमानना करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा
का प्रावधान कर दिया गया.इस कार्यक्रम के
तहत हजारों मंदिरें गिराई गयीं तथा हज़ारों
लोगों को कठोरतम यातनाएं दी
गयीं.
History of Christianity के खंड १ के अनुसार साल्सेट में
२३० हिन्दू मंदिर,वार्देज में ३०० मंदिर तथा
बासीन,बान्द्रा,थाणे,मुंबई आदि जगहों में
अनगिनत मन्दिर ध्वस्त किये.मिशनरी
रिकॉर्ड के अनुसार ही बहुत से बड़े-बड़े मंदिरों
को चर्च में परिवर्तित कर दिया गया.यहाँ तक
कि एलीफैनटा की गुफा में अवस्थित
एक मंदिर को ईसाई चैपल में बदल दिया
गया.सेविओंन तथा नेवेन टापुओं पर स्थित अनेक
मंदिर भी गिराए गए.यहाँ तक कि घरों के अन्दर
रखी निजी मूर्तियाँ भी गैर क़ानूनी थीं
तथा उसके लिए भी कड़ी से कड़ी सजा का
प्रावधान था.जो हिन्दू पुर्तगाली सीमा के
अन्दर तीर्थ-यात्रा पर जाते थे या किसी अन्य
प्रदेश में मंदिर-निर्माण हेतु दान आदि दिया
करते थे
उन्हें भी प्रताड़ित किया जाता था.
जैसी कि कैथोलिक परंपरा रही है ज़ेवियर ने मत-
परिवर्तन के लिए जबरदस्ती का सहारा लेने में
कोई कोर कास-कसर नहीं छोडी.अपने एक जेसुइट
मित्र फादर सीनाओ रोड्रिग्स को
लिखे गए एक पत्र(दिनांक २० जनवरी १५४८) में
उसने विचार व्यक्त किया कि भारत में ईसाईयत
के प्रचार-प्रसार के लिए पुर्तगाली राजा के
लिए इस प्रकार का हुक्नामा जारी
करना आवश्यक था जिसके तहत इसके अधिकारी
ईसाइयों की संख्या में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी के
लिए प्रयास करने को वाध्य हों तथा
अवमानना कि स्थिति में कठोर सजा के भागी
बने.पुर्तगाल
के राजा को लिखे गए एक अन्य पत्र में उसने
राजा को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जब तक
वायसराय और गवर्नरों को अपने पद व् संपत्ति से
हाथ धोने का डर नहीं होगा तब तक अधिक से
अधिक संख्या में'पापियों'के मत-परिवर्तन के
लिए ये प्रयत्न नहीं करने वाले.ब्राह्मणों में
हिदुओं की अगाध आस्था भी ज़ेवियर की राह
में एक रोड़ा थी अतः उसने ब्राह्मणों पर
अनेकानेक
अत्याचार करवाए तथा अनेकों को मौत के घाट
उतरवा दिए.
भारत आने के बाद से ही ज़ेवियर ने देखा था की
मत-परिवर्तन के बाद भी ये भारतीय जिसमे
हिन्दू,यहूदी,मुसलमान आदि शामिल थे अपने पूर्व
के धर्म को ही मानते थेतथा तथा
चोरी-छिपे अपने धर्म के अनुसार ही पूजा या
इबादत किया करते थे.ज़ेवियर जानता था कि
चर्च के पास ऐसी स्थिति से निपटने के लिए
इनक़वीजीशन(Inquisitioन)जैसा हथियार
था जिसके तहत ऐसे ईसाइयों को मौत तक की
सजा दी जा सकती थी.अतः उसने पुर्तगाली
राजा को इसके प्रयोग की भी सलाह दी.
अपने भारत प्रवास के दौरान ज़ेवियर जापान
भी गया तथा वहां भी करीब २२ महीनों तक
ईसाईयत का प्रचार करता रहा किन्तु
जापानियों की भगवान् बुद्ध और बौद्ध धर्म मे
अगाध आस्था के कारण
उसकी वहां दाल नहीं गली और वह वापस भारत
आ गया.
ज़ेवियर ने चीन के बारे में भी बहुत कुछ सुन रखा
था.मत-प्रचार के लिए वह चीन की यात्रा पर
निकल पडा किन्तु क्वान्तुंग तट के पास एक
दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई(२ दिसम्बर १५५२).
फरवरी १५५३ में पुर्तगालियों ने उसके शव को
कब्र से निकाल कर १४ मई १५५४ को गोवा
लाया और अभी भी उसका शव संत पॉल चर्च में
"विश्वासियों"के दर्शनार्थ रखा हुआ है.मृत्यु के
१०८ वर्ष
बाद रोम ने उसे उसकी 'सेवाओं' के लिए 'संत' कि
उपाधी प्रदान की.
संभवतः यह एक विडम्बना नहीं वरन चर्च का
दर्शन ही है जिसके अनुसार संत या महात्मा
वाही होता है जो संसार में ईसाईयत का जाल
बिछाने में सफल हो तथा ईसाई साम्राज्यवाद
को अधिक से अधिक
विस्तृत कर सके,तरीका चाहे कोई भी अपनाना
पड़े.लुइ वुईलौट ने चर्च के दर्शन को निम्न शब्दों मे
संक्षिप्त किया है:
"जहाँ हम कैथोलिक अल्पसंख्यक होते हैं वहां
हम 'आपके'सिद्धांत के नाम पर
स्वतंत्रता की मांग करते हैं,जहाँ हम
बहुसंख्यक हैं वहां हम 'अपने' सिद्धांत
के नाम पर (दूसरों कि) स्वतंत्रता को
ठुकराते हैं".