गर्व करने योग्य नाम हिंदू या आर्य ??
जब कोई जाति अपने देश की नाम, संस्कृति, गौरवपूर्ण इतिहास को भूलकर अन्य विदेशी आक्रमणकारीयों के द्वारा दिया नाम और कुसंस्कृति को अपना लेती है । तो उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है । इसी विषय पर ये लेख प्रस्तुत है कि हमारा प्राचीन नाम क्या था और वर्तमान में हम किस गुलामी सूचक नाम हिंदू को अपने गले से लिप्टाकर बैठे हैं । सर्वप्रथम वेद और आर्ष ग्रंथों के प्रमाण देकर हम ये सिद्ध करते हैं कि हमारे पूर्वज आर्य थे और हमारे देश का प्राचीन नाम इसी आधार पर आर्यवर्त था ।
• आर्य शब्द की उत्पत्ति :-
'ऋ गतौ' धातु से आर्य शब्द निष्पन्न होता है । जिसका अर्थ 'गतिः प्रापणार्थे' अर्थात् गति-ज्ञान, गमन, प्राप्ति करने और प्राप्त कराने वाले को आर्य कहते हैं ।
• यास्क मुनि के निरुक्त ६/२६ का वचन है :-
'आर्यः ईश्वरपुत्रः'
अर्थात् :- आर्य ईश्वर के पुत्र का नाम है ।
• ऋग्वेद ४/२६/२ में ईश्वर का आदेश है :-
'अहं भूमिमददामायार्य'
अर्थात् :- मैं इस भूमि का राज्य आर्यों के लिए प्रदान करता हूँ ।
• ऋग्वेद ९/६३/५ के इस वचन में भी ईश्वर सारी पृथिवी को आर्य बनाने की बात करते हैं :-
'इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अराव्णः ।।'
अर्थात् :- हेपरम ऐश्वर्ययुक्त आत्मज्ञानी ! तुम आत्म शक्ति का विकास करते हुए गतिशील,प्रमादरहित होकर कृपणता,आदरशीलता,अनुदारता,ईर्ष्या आदि का नाश करते हुए सारे विश्व को आर्य बनाओ ।
• मनुस्मृति २/१७,२२ में इस देश का मानचित्र कुछ ऐसा लिखा है :-
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं, ब्रह्मवर्तं प्रचक्षते ।।
आसमुद्रासु वै पूर्वादासमुद्रासु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ।।
अर्थात् :- सरस्वती ( सिन्धु ) और दृषद्वती ( ब्रह्मपुत्र ) इन दो देवनदीयों के मध्य में तथा पूर्वसमुद्र ( बंगाल की खाड़ी ) और पश्चिम समुद्र ( अरब सागर ) के मध्य में तथा हिमालय पर्वत शृंखला और विन्धयाचल पर्वतमाला के विस्तारपर्यन्त जो देश बसा है उसे देवों के द्वारा बसाया हुआ 'ब्रह्मवर्त' आर्यों का देश होने से आर्यवर्त कहते हैं ।
• अब हम यज्ञ ( हवन ) करने वाले पंडितों के द्वारा पढ़ा जाने वाला संकल्प यहाँ लिखते हैं :-
"ओ३म् तत्सत् श्री ब्राह्मणो द्वितीय प्रहरारद्धे वैवस्वतमन्वंतरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगेकलिप्रथमचरणेऽमुकसंवत्सरे....अयने-ऋतौ-मासे-पक्षे-तिथौ-दिवसे-नक्षत्रे-लग्ने-मुहूर्ते जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते प्रान्ते जनपदे नगरे स्थाने अहं श्रेष्ठतमं यज्ञकर्मकरणाय भवन्तं वृणे"
( इस संकल्प को प्रत्येक पुरोहित पुजारी यज्ञ करते समय पढ़ता है और स्पष्ट रूप से अपने देश का 'आर्यावर्तैक' यानि आर्यावर्त घोषित करता है ।
• सीता जी श्रीराम जी से बोलीं :-
आर्यपुत्राभिरामोऽसौ मृगो हरति मे मनः ।
आनयैनं महाबाहो क्रीडार्थं नो भविष्यति ।।
( वाल्मिकी रामायण ४३/९ )
अर्थात् :- हे आर्यपुत्र ! यह परम मनोहर मृग मेरे मन को हर रहा है । हे महाबाहो ! तुम इसे पकड़ लाओ मैं इसके साथ खेला करूँगी ।
• विदुरनीति में आर्य शब्द के लिए ये श्लोक पाए जाते हैं :-
(क) आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते ।
हितं च नाभ्यसूचन्ति पण्डिता भरतर्षभ ।।
( विदुरनीति १/३० )
अर्थात् :- भरतकुलभूषण ! पण्डितजन श्रेष्ठ कर्मों में रूचि रखते हैं, उन्नति के कार्य करते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते हैं ।
(ख) न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ।।
( विदुर नीति १/११७ )
अर्थात् :- जो शान्त हुए वैर को पुनः प्रज्वलित नहीं करता । जो कभी घमण्ड नहीं करता ऐर न कभी निराश होता है तथा दुर्गति को प्राप्त होने पर भी जो कभी बुरा कार्य नहीं करता । उस उत्तम आचरणवाले पुरुष को सर्वश्रेष्ठ आर्य कहते हैं ।
(ग) न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्ट ।
दत्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः ।।
( विदुर नीति १/११८ )
अर्थात् :- जो अपने सुख में कभी प्रसन्न नहीं होता और न दुख में कभी हर्षित होता है,दान देकर पीछे पछताता नहीं है, वह सत्पुरुष 'आर्य' कहलाता है ।
• महाभारत में आर्य शब्द अनेकों बार प्रयुक्त हुआ है :-
(क) लोके ह्यार्यगुणानेव भूयिष्ठं तु प्रशंसति ।। ( १२२/२ )
अर्थात् :- भगवान वेदू्यास मैत्रेय से कहते हैं कि संसार के आर्य लोग ( उत्तम गुण वाले ) पुरुष ही अधिक प्रशंसा पाते हैं ।
(ख) आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि ।
सुवर्णमन्यवर्णं वा स्वशीलं शास्ति निश्चये ।। ( ४८/४५ )
अर्थात् :- जो कृत्रिम मार्ग का आश्रय लेकर आर्यों ( श्रेष्ठ पुरुषों ) के अनुरूप आचरण करता है, वह खरा सोना है या काँच, इसका निश्चय करते हुए उसका स्वभाव ही सबकुछ बता देता है ।
(ग) नूनं मित्रमुखः शत्रुः कश्चिदार्यवदाचरन् ।
वञ्चयित्वा गतस्त्वां वै तेनासि हरिणं कृशः ।। ( १२४/१७ )
अर्थात् :- वह विद्वान किसी दुर्बलता का कारण बतलाते हुए कहता है - निश्चय कोई शत्रु तुमसे मुँह से मित्रता की बात करता हुआ आया, आर्य ( श्रेष्ठ ) पुरुष के समान बर्ताव करने लगा और तुम्हें ठगकर चला गया । इसलिए तुम दुर्बल और सफेद होते जा रहे हो ।
• देवर्षि नारद ने वाल्मिकी रामायण में श्रीराम के गुणें का वर्णन करते हुए कहा है :-
सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः ।
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः ।।
( बालकाण्ड १/१६ )
अर्थात् :- श्रीराम आर्य, धर्मात्मा, सदाचारी, सबको समान दृष्टि से देखने वाले और चन्द्रमा की तरह प्रिय दर्शन वाले थे ।
• कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी है :-
व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः ।
अर्थात् :- आर्य मर्यादाओं को जो व्यवस्थित कर सके और वर्णाश्रम धर्म का स्थापन कर सके वह राज्याधिकारी है ।
ऐसे अनेकों सैंकड़ों प्रमाणों से हमारे सदाचारी श्रेष्ठ पूर्वजों का नाम आर्य ही सिद्ध होता है । परंतु जब मुसलमान आक्रमणकारी इस देश में आए तो उन्होंनें घृणावश हमारे देश में रहने वालों को हीनदृष्टि से देखने के कारण "हिन्दू" कहा । जिसका अर्थ फारसी और अरबी के शब्दकोष में :- चोर, लुच्चा, लफ़ंगा, शराबी, कबाबी, दग़ाबाज़, बदमाश, कला, काफिर, गुलाम आदि होता है । जिस देश में काफिर रहते हों उस देश का नाम अपनी सुविधा अनुसार 'हिन्दोस्तान' रखा गया है । क्योंकि इस देश का नाम इसके शासकों द्वारा समय समय पर बदलता रहा है । ब्रह्मर्षियों के शासन से ब्रह्मवर्त, आर्यों के शासन से आर्यवर्त, भरतवंशीयों के शासन से भारतवर्ष, मुगलों के शासन से हिन्दोस्तान, अंग्रेज़ों के शासन से इंडिया । ( अंग्रेज़ी कोष के अनुसार इंडियन का अर्थ होता है काला मनुष्य ) । तो इस गुलामीसूचक नाम हिन्दू को समय के साथ हमारे देश के लोगों ने स्विकार कर लिया । ये कितना बड़ा अपमान है कि अपने ऋषि पूर्वजों के श्रेष्ठ नाम को छोड़कर लोगों ने विदेशियों द्वारा दी गाली को अपना नाम स्विकार कर लिया । हम हिंदू नहीं आर्य हैं क्योंकि हमारे पूर्वज हिंदू नहीं आर्य थे । हमारे किसी प्रमाणिक धर्म ग्रंथ वेद, दर्शन, उपनिषद, महाभारत, रामायण, गीता आदि में भी ये निकृष्ट हिंदू नाम नहीं मिलता । तो आज से ही अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ नाम को स्विकार करें और अरबी गाली को त्यागें ।
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