*हिन्दू शवदाह पर राजनीति*
क्या हिंदू शवदाह से ही प्रदूषण होता है?
यह बात सही है कि दाह संस्कार के लिए काफी लकड़ी इस्तेमाल होती है, जिसके लिए पेड़ कटते हैं। शव को जलाने से उठने वाला धुआं भी प्रदूषण का कारण बनता है। लेकिन यह बात भी सही है कि शवों के अंतिम संस्कार के दुनिया भर में प्रचलित तरीकों में शव को जलाने का तरीका ही सबसे वैज्ञानिक और कम प्रदूषण वाला है। मुसलमानों और ईसाइयों में शव को दफनाया जाता है, जो वास्तव में ज्यादा खर्चीला और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला होता है। तो सवाल ये है कि केजरीवाल सरकार को प्रदूषण के लिए सबसे पहले हिंदू तरीके की ही याद क्यों आई?
ज्यादा प्रदूषण फैलाता है शव दफनाने से, दुनिया भर में अंतिम संस्कार के तीन तरीके हैं- 1. शवदाह 2. शव को दफनाना और 3. शवों को खुला छोड़ देना या पानी में बहा देना। जब किसी शव को जमीन में गाड़ते हैं तो उसके सड़ने की प्रक्रिया अधिक pH के कारण देर से शुरू होती है । जिससे शरीर के अच्छे तत्व बाहर नहीं निकल पाते। शरीर के तत्वों के विघटित होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है जिससे बहुत अधिक बदबू पैदा होती है। आप किसी भी कब्रिस्तान के आसपास जाएं, वहां हवा में आपको अजीबोगरीब बदबू हर वक्त महसूस होगी।
*जुआन कैरोल क्रूज़ ने 1977 में आई अपनी किताब The Incorruptibles: A Study of the Incorruption of the Bodies of Various Catholic Saints and Beati में लिखा है कि गहराई में दफनाने के बावजूद भी शवों के सड़ने की भयंकर बदबू शहरी कब्रिस्तानों के आसपास फैली रहती है। ये वो गैसें होती हैं जो आसपास रहने वालों के स्नायु तंत्र (nerves system) पर बुरा असर डालती हैं। कब्रिस्तानों की जमीन में सोडियम की मात्रा 200 से 2000 गुना अधिक होती है, जिससे पेड़-पौधों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। यही कारण है कि कब्रिस्तान में कुछ खास तरह के पेड़-पौधे ही पनप पाते हैं।
मृत शरीर सड़ने पर जमीन में कई तरह के बैक्टीरिया और जानलेवा टॉक्सिन बन जाते हैं। जो ग्राउंड वॉटर में मिलकर भयानक बीमारियां पैदा करते हैं। कैंसर के कई मरीजों के शरीर में बोटूलिनम (Botulinum) नाम का टॉक्सिन पाया गया है जो कब्रिस्तान के आसपास की जमीन से निकले पानी के जरिए शरीर में पहुंचता है। इसके अलावा आर्सेनिक, फार्मेल्डिहाइड, मर्करी, कॉपर, लेड और जिंक जैसे तत्व भी शरीर से बाहर आते हैं जो ग्राउंड वाटर में जहर की तरह घुल जाते हैं।
*दिल्ली में प्रदूषण का बड़ा कारण कब्रिस्तान ?*
दिल्ली में 2013 के आंकड़ों के मुताबिक 100 से ज्यादा छोटे-बड़े मुस्लिम कब्रिस्तान हैं। सीलमपुर और कुंडली में सरकार ने कब्रिस्तान के लिए नई जमीनें भी अलॉट की हैं, क्योंकि पुराने कब्रिस्तानों में जगह कम पड़ रही थी। इसके अलावा ईसाइयों के 11 कब्रिस्तान भी हैं। इस तरह से शहरी जमीन का एक बड़ा हिस्सा कब्रिस्तानों के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। इनके आसपास रहने वाले लोगों को यहां की जहरीली हवा और पानी का शिकार होना पड़ता है। इसके मुकाबले हिंदुओं की इतनी बड़ी आबादी का काम निगमबोध, लोधी रोड और गाजीपुर जैसे 5-6 शवदाह स्थलों से काम चल जाता है। यह भी आम तौर पर यमुना के किनारे की खुली जगहों पर बने हैं, जिससे धुएं के कारण किसी को दिक्कत भी नहीं होती। आजकल दाह संस्कार की लकड़ी भी ज्यादातर फर्नीचर या दूसरे सामान बनाने में बेकार बचा हुआ हिस्सा ही होती है। इसके अलावा हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग खुद ही सीएनजी से शवदाह के लिए तैयार होने लगा है। फिर भी जो लोग लकड़ी पर शवदाह करते हैं उनके पीछे बड़ा कारण धार्मिक आस्था और मान्यताएं होती हैं।
सवाल यह है कि क्या दिल्ली सरकार ऐसे करोड़ों हिंदुओं की धार्मिक भावना को चोट पहुंचाते हुए शवदाह पर पाबंदी क्यों लगाना चाहती है? दूसरी तरफ मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कब्रिस्तान की नई-नई जमीनें उपलब्ध कराई जा रही हैं।
*आज पूरी दुनिया में बढ़ रहा है शवदाह का चलन इंटरनेशनल क्रेमेशन स्टैटिस्टिक्स 2008 के दुनिया भर में भारत में शवों को जलाने का चलन बढ़ रहा है। जापान में लगभग 100 फीसदी, भारत में 85 फीसदी, चीन में 46 फीसदी, ताइवान में 93 फीसदी लोगों के शव जलाए गए। दूसरी तरफ यूरोपीय देशों में जहां पहले शवदाह का प्रतिशत 72 फीसदी तक पहुंच चुका है। 1960 में ये सिर्फ 35 फीसदी हुआ करता था। फ्रांस में तो सरकार बाकायदा लोगों को शवदाह के लिए बढ़ावा दे रही है क्योंकि शव दफनाने के लिए जमीन कम पड़ रही है।* आज वहां लगभग आधे लोग शवदाह ही पसंद करते हैं। 1960 में यह आंकड़ा सिर्फ 3.5 फीसदी हुआ करता था। विदेशों में शवदाह के अलग-अलग तरीके प्रचलित हैं, इनमें सबसे बड़ा तरीका लकड़ी या दूसरी ज्वलनशील चीजों पर शव को रखकर जलाने का ही है।