लगता है भ्रष्टाचार के इस हमाम में सभी पार्टियां नंगी हैं। क्या कांग्रेस, क्या आप और क्या भाजपा किसी में कोई अंतर नहीं है। हर तरफ एक ही तरह के लोग हैं ऐसे में भला किससे उम्मीद करें? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर सीबीआई छापे, दिल्ली जिला क्रिकेट एसोसिएशन में घोटालों के बहाने वित्त मंत्री अरुण जेटली पर लगाए जाने वाले आरोप और उधर नेशनल हेराल्ड अखबार के ट्रस्ट में गड़बड़ी करने के आरोप में उलझे राहुल गांधी और सोनिया गांधी की स्थितियां देखकर लगता है कि कोई पार्टी भ्रष्टाचार के मामले में दूध की धुली नहीं है। जो भी सफल हुआ और ऊपर उठा उसके साथ किसी न किसी तरह की अनियमितता या धांधली जुड़ ही जाती है।
कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी जिसे देश पर सबसे लंबे समय तक शासन का अवसर मिला उसे तो भ्रष्टाचार से मुक्त होने में नया जन्म लेना पड़ेगा। इसलिए उस पार्टी या उसकी सरकार के भ्रष्ट कारनामे अब चौंकाते नहीं। हां यह बात अलग है कि इस बार मामला सीधे केंद्रीय नेतृत्व यानी महारानी और राजकुमार तक पहुंच गया है। कांग्रेस के कुशल प्रबंधकों ने इस बारे में क्यों नहीं ध्यान दिया और ऐसी लापरवाही क्यों की इसका जवाब वे ही जानें लेकिन एक बात तो तय है कि सनक की सीमा तक कांग्रेस और गांधी परिवार के पीछे लगने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब यह मामला उठाया है तो उन्होंने इसमें शोध और तैयारी का पर्याप्त श्रम किया होगा। अब अगर कांग्रेस तीन अक्तूबर 1977 को हुई इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की तरह 19 दिसंबर 2015 को सोनिया गांधी-राहुल गांधी की संभावित गिरफ्तारी को भी एक बड़ी राजनीतिक घटना बनाना चाहती है तो उसके नफे नुकसान दोनों हैं। संभव है उन्हें राजनीतिक शहादत और सहानुभूति का नफा मिल जाए लेकिन उतनी ही आशंका इस बात की है कि उन पर भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए देश में राजनीतिक अशांति फैलाने और संसद को न चलने देने का आरोप चस्पा हो जाए। इस बीच कांग्रेस ने डीडीसीए की गड़बड़ियों में उसके पूर्व अध्यक्ष व वित्त मंत्री अरुण जेटली का इस्तीफा मांग कर नई पेशबंदी कर दी है। यानी दूसरे के भ्रष्टाचार पर कार्रवाई हो तो इंसाफ और अपने पर कार्रवाई हो तो उत्पीड़न। यह रवैया देश की सभी पार्टियों का रहा है।
इस आरोप से वह पार्टी भी परे नहीं है जो देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री को ही साफ करने का दावा करने आई थी लेकिन स्वयं लगातार संदेह के घेरे में घिरती जा रही है। यह सही है कि केंद्र सरकार दिल्ली की केजरीवाल सरकार को हर छोटे-छोटे मामले पर परेशान कर रही है कभी उसके जनप्रतिनिधियों तो कभी अफसरों को परेशान करने का कोई मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहती। लेकिन अगर केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार गड़बड़ी करने वाले अफसर थे और उनके बारे में आगाह किया गया था तो फिर उन्हें क्यों इतने खास पद पर नियुक्त किया गया? यह सवाल हर कोई पूछ रहा है और इसका कोई सीधा जवाब केजरीवाल के पास नहीं है। इसके बावजूद एक मुख्यमंत्री के दफ्तर पर सीबीआई ने जिस तरह से छापा डाला वह निश्चित तौर पर धमकाने वाली कार्रवाई थी और उसके तरीके और समय से भाजपा के कई वरिष्ठ नेता और मंत्री भी असहमत बताए जाते हैं। इस लिहाज से केजरीवाल के इस आरोप को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता कि सीबीआई वाले दरअसल डीडीसीए से संबंधित फाइलें लेने आए थे, जिसमें वित्त मंत्री अरुण जेटली संदेह के घेरे में हैं।
उधर भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिटा देने के नाम पर सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सारे दावों की कलई उसी समय खुल गई जब एक तरफ ललित मोदी से संबंधित घोटाले उजागर हुए और उससें विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर शक की सुई गई। हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री ने उस पर कुछ नहीं कहा और सारा मामला टेलीविजन कार्यक्रमों का तमाशा बन कर रह गया। कहते हैं यह मामला आखिरकार प्रधानमंत्री के ही पक्ष में गया और पार्टी के भीतर उनके दो प्रतिव्दंव्दी पस्त हो गए। उसके साथ ही व्यापम का मामला भी मध्य प्रदेश में पचास लोगों की जान लेता रहा और मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक खामोश रहे। आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दे दिया और जांच के बहाने मामले की राजनीतिक लौ बुझ गई। लेकिन इन दोनों मामलों में सीबीआई ने कहीं भी छापा डालने की जहमत नहीं उठाई। आज डीडीसीए के मामले में अगर कोई भी जांच होती है तो उसका मामला सीधे उन विभागों से जुड़ेगा जिसके मुखिया वित्त मंत्री अरुण जेटली हैं। इसलिए केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता वित्त मंत्री का बचाव करने में लग गए हैं।
यह राजनीतिक स्थितियां एक तरफ उस निराशा और समझौते वाली मानसिकता की ओर जाती हैं जिसके तहत कहा जाता है कि राजनीतिक के हमाम में कोई बेदाग नहीं है। जब हमें इन्हीं पार्टियों से काम चलाना है तो इनके भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों को सहना ही होगा। यानी अगर आप कमजोर हैं तो आप का भ्रष्टाचार कार्रवाई और सीबीआई के छापे का मुद्दा बनता है और ताकतवर हैं तो वह महज चर्चा का मुद्दा बनकर ठप हो जाता है।
लेकिन ऐसे में उपाय क्या हैं? क्या हम पार्टियों के बीच चल रहे भ्रष्टाचार के इसी आरोप प्रत्यारोप में से सच निलकने और उस पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की तरफ से कार्रवाई होने की उम्मीद करें? या यह मानें कि कार्रवाई उसी पर होगी जो विपक्ष में होगा और सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचार पर कार्रवाई के लिए जनमत बनने और उस दल या व्यक्ति के सत्ता से हटने का इंतजार करना होगा? इस बीच यह संदेह भी उठता है कि क्या सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मसले को दूसरे का जनाधार कमजोर करने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए ही उठाते हैं और उनका कोई मकसद किसी नेता या पार्टी को फंसाना नहीं होता?
सवाल उठता है कि अगर हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार पर दिखावा करने की ऐसी एकजुटता है तो इसे कैसे दूर किया जाए ? क्या यह अन्ना हजारे या रामदेव जैसे किसी संत जैसे दिखने वाले व्यक्ति के आंदोलन से दूर हो सकता है? क्या इस मोर्चे पर एनजीओ से कोई उम्मीद की जा सकती है? इस बारे में अनुभव उत्साहवर्धक नहीं है? तो क्या यह एक गठबंधन के सहारे सरकार चला रही एक पार्टी को हराकर दूसरी पार्टी को पूर्ण बहुमत देने से हासिल हो सकता है? उस बारे में भी नरेंद्र मोदी सरकार का अनुभव हम देख रहे हैं जिसमें अपनी पार्टी के लोगों का बचाने का सिलसिला लगातार जारी है। तो क्या हम भ्रष्टाचार मिटाने के लिए विधायिका के अलावा कार्पपालिका और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं से उम्मीद करके निश्चिंत हो सकते हैं? अगर वैसा होता तो आंदोलन की जरूरत क्यों पड़ती। ऐसे में यह भी सवाल उठता है कि क्या हम भ्रष्टाचार मिटाने के उदारीकरण के सहारे आए नए पूंजीवाद पर भरोसा कर सकते हैं? अगर वैसा होता तो उदारीकरण के इन वर्षो में भ्रष्टाचार घटने के बजाय इतनी तेजी से न बढ़ता। आखिर में सवाल यही है कि हम क्या करें? निश्चित तौर पर इसका जवाब आसान नहीं है। लेकिन क्या हम एक बार उन आर्थिक नीतियों के रास्ते पर पुनर्विचार नहीं कर सकते जो एक तरफ किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं, 67 करोड़ लोगों को 33 रुपए रोज पर जीवन जीने पर बाध्य कर रही हैं और दूसरी तरफ चंद लोग अमीरी और ताकत की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं।