क्या सियासत में सियासतदान कानून से भी ऊपर है? क्या ऐसा मान लेना चाहिए या वाकई में है, इस पर कानून क्या कहता है और कानून निर्माता क्या और कैसे सोचते है इस विषय पर?
अजर अमर कोई है नहीं, जनाजा निकलते ही रहते है और देश देखता था, है और क्या रहेगा कभी कानून का और कभी व्यवस्था का, क्या सियासत इससे परे है, अजर है अमर है?
सिर्फ दिलचस्प मुकाबला नहीं महामुकाबला वो भी सिर्फ एक घंटे का हार जीत मायने नहीं रखती क्योंकी बराबरी पर छूटने के कयास लगाये जा रहे है, क्योंकी खेल सियासी दावं पेंच का है जहाँ हार जीत का मतलब पूर्ण विराम?
देश इंतज़ार में है एक बड़े सियासी दावं का, इशारा को अगर समझे तो पराया धन कभी अपना हो नहीं सकता और जिसको परदेश प्यारा हो वो कभी देश को अपना नहीं सकता?