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व्यभिचार एक महापाप

9 अगस्त 2019

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व्यभिचार किसी एक अपराध धा । व्यभिचार, विवाहित लोगों के मध्य में अपने पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ किए जाने वाले व्यभिचार को संदर्भित करता है, और यह शब्द पुराने नियम में शाब्दिक और रूपक अर्थात् दोनों में अर्थों में उपयोग किया गया है। स्त्री पुरुषों की जननेन्द्रियाँ शरीर के अन्य समस्त अंगों की अपेक्षा अधिक चैतन्य सजीव, कोमल, सूक्ष्म, प्राण विद्युत से युक्त होती हैं। मानव शरीर के सूक्ष्म तत्वों को जानने वाले बताते हैं कि स्त्री में ऋण (निगेटिव) और पुरुष में धन (पाजेटिव) विद्युत का भंडार होता है। दर्श स्पर्श से भी यह विद्युत स्त्री पुरुषों में एक विचित्र कम्पन उत्पन्न करती रहती है। परन्तु शरीर के सजीव तम प्राण केन्द्र गुह्य स्थानों का जब दोनों एकीकरण करते हैं तब तो एक शरीर व्यापी तूफान उत्पन्न हो जाता है। दोनों के शरीर के विद्युत परिमाण दोनों के अन्दर अत्यन्त वेग और आवेश के साथ प्रवेश करते हैं और दोनों में एक शक्तिशाली अंतरंग संबंध-प्रेम उत्पन्न करते हैं। एक दूसरे के सूक्ष्म तत्वों का एक दूसरे में बड़ी तीव्र गति से प्रचुर परिमाण में आदान-प्रदान होता है। यही कारण है कि वे एक दूसरे के ऊपर आसक्त हो जाते हैं, उनके बीच एक ऐसा आकर्षण और सामंजस्य स्थापित हो जाता है जिसे हटाना या तोड़ना असाधारण रूप से कठिन होता है। पाँव दाबना, सिर मसलना जैसी शारीरिक सेवाओं में ऐसी कोई हलचल नहीं होती किन्तु यौन संबंध से दो व्यक्तियों के सूक्ष्म प्राण तत्वों में आवेश पूर्ण आदान-प्रदान होता है। इसलिए शरीर सेवा और यौन संबंध को समान नहीं कहा जा सकता। पतिव्रत और पत्नीव्रत का समर्थन शास्त्र ने इसी वैज्ञानिक आधार पर किया है। एक पुरुष का एक स्त्री से संपर्क होने पर उन दोनों में प्रेम भाव बढ़ता है। एक की शक्ति निश्चित मार्ग से दूसरे को प्राप्त होती है। गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से एक दूसरे के निकट आते हैं और एक प्राण दो शरीर बन जाते हैं। यौन संबंध के द्वारा दोनों के रक्त में सजीव संमिश्रण होता है, किसी बीमारी में किसी रोगी को रक्त का इंजेक्शन देना होता है तो डॉक्टर लोग पति-पत्नी के जोड़े में से ही रक्त लेने को महत्व देते हैं। क्योंकि दम्पत्ति के रक्त में सहवास के कारण एक समान तत्व उत्पन्न हो जाते हैं। पति-पत्नी के बीच सच्चा प्रेम, वफादारी, सेवा, आत्मीयता, विश्वास तभी रह सकता है जब उनमें ‘एकनिष्ठा’ का व्रत हो। यदि कोई स्त्री अनेक पुरुषों से या कोई पुरुष अनेक स्त्रियों से गुप्त संबंध स्थापित करता है तो उसके शरीर में, रक्त में, मन में, मस्तिष्क में, अनेकों तत्व मिल जाने के कारण अस्थिरता, खींचतान, आकर्षण, विकर्षण के दौर चलने लगते हैं। ऐसी अवस्था में सच्चा प्रेम, वफादारी एवं आत्मीयता असंभव है। व्यभिचारी स्त्री पुरुषों का दाम्पत्ति जीवन कपट, धूर्तता, माया चर और छल से भरा हुआ होता है। वे अवसर पड़ने पर अपने साथी को धोखा दे सकते हैं। व्यभिचार चोरी, भय, लज्जा और पाप की झिझक के साथ किया जाता है, उसे छिपाने का प्रयत्न किया जाता है। उपयुक्त अवसर ढूँढ़ने के प्रपंच उनके मन में उठा करते हैं। यह पाप वृत्तियाँ कुछ समय लगातार अभ्यास में आते रहने पर मनुष्य के मन में वे गहरी उतर जाती हैं और जड़ जमा लेती हैं। फिर उसके स्वभाव में वे बातें शामिल हो जाती हैं और जीवन के विविध क्षेत्रों में वे प्रकटित होती रहती हैं। यही कारण है कि व्यभिचारी व्यक्ति अक्सर चोर, निर्लज्ज, दुस्साहसी, कायर, झूठे और ठग होते हैं। वे अपने व्यापार तथा व्यवहार में समय-समय पर अपनी इस कुप्रवृत्तियों का परिचय देते रहते हैं। उनका विश्वास उठ जाता है, लोगों के मन में उनके लिए प्रतिष्ठा तथा आदर की भावना नहीं रहती, सच्चा सहयोग भी नहीं मिलता, फलस्वरूप जीवन विकास के महत्वपूर्ण मार्ग बन्द हो जाते हैं। पाप वृत्तियों के मन में जम जाने से अन्तःकरण कलुषित होता है। प्रतिष्ठा एवं विश्वस्तता नष्ट होती है और हर क्षेत्र में सच्ची मैत्री या सहयोग भावना का अभाव मिलता है। यह तीनों ही बातें नरक की दारुण यातना के समान हैं, व्यभिचारी को अपने कुकर्म का दुष्परिणाम इसी जीवन में उपर्युक्त तीन प्रकार से नित्य ही भुगतना पड़ता है। स्त्री पुरुषों के सम्मिलन से एक का प्रभाव दूसरे पर जाता है। एक के दुर्गुण दूसरे में प्रवेश हुए बिना नहीं रहते। काम भोग करने के साथ दूसरा पक्ष अपनी कुवासनाओं की छाप भी छोड़ता है यह परत दिन पर दिन मजबूत होते जाते हैं और वह दिन-दिन अधिक दुर्गुणी बनता जाता है। व्यभिचार स्त्री और पुरुष दोनों के लिए घातक है, पर स्त्रियों के लिए विशेष रूप से घातक है। कारण यह है कि स्त्रियाँ अपने शरीर के सबसे सूक्ष्म, चेतन एवं प्राण युक्त स्थान गुह्येन्द्रिय में पुरुष का वीर्य ग्रहण करती है। वीर्य पानी की बूँद नहीं है वरन् पुरुष के शरीर और मन का सार भूत प्राण सत्व है। उसकी एक-एक बूँद में मनुष्य उत्पन्न करने की प्रचंड शक्ति भरी हुई है। उस प्रचंड, शक्ति शाली प्राण सत्व के साथ पुरुष की गुह्य और प्रकट शक्तियाँ केन्द्रीभूत होती हैं। इस द्रव प्राण सत्व को योनि मार्ग में धारण करना ऐसा ही है मानो किसी के गुण अवगुणों के सार भाग का इंजेक्शन लेना। यह निश्चित है कि पापी और पतित स्वभाव के व्यक्ति ही व्यभिचारी होते हैं उनका पाप एवं पतन, प्राण सत्व वीर्य के साथ स्त्री के आत्मिक क्षेत्र में व्याप्त हो जाता है और उसमें भी यह दुर्गुण भर देता है। कितने ही व्यभिचारी पुरुषों के संयोग से उनके अनेकों प्रकार के दोषों को अपने सूक्ष्म शरीर में संचित कर लेने से स्त्री की निर्बल अन्तः चेतना बहुत ही विकृत हो जाती है। एक म्यान में अनेकों तलवार ठूँसने से भयंकर स्थिति उत्पन्न होती है। वैसे ही एक स्त्री के शरीर में नाना प्रकार के गुण, कर्म, स्वभाव एवं प्रभाव प्रवेश कर जाते हैं तो वे आपस में टकराते हैं। उसका प्रभाव मनोभूमि को विकृत कर देता है। व्यभिचारिणी स्त्रियाँ सीधे स्वभाव की नहीं रहती, उनमें चिड़चिड़ापन झुँझलाहट, घबराहट, आवेश, अस्थिरता, रूठना, असत्य, छल, अतृप्ति आदि दुर्गुणों की मात्रा बढ़ जाती है, सिर दर्द, कब्ज, दर्द, खुश्की, प्यास, अनिद्रा, थकावट, दुःस्वप्न, दुर्गन्धि आदि शारीरिक विकार भी बढ़ने लगते हैं एक शरीर में अनेकों पुरुषों के प्राण का स्थापित होना, इस प्रकार के अनेकों दुखदायी परिणाम उपस्थित करता है। वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों का सान्निध्य ऐसा अनिष्टकर होता है कि पुरुष को बड़े तीव्र झटके के साथ नारकीय यातनाओं के कुण्ड में धकेल देता है। कई प्रकार के वीर्यों के एक स्थान पर एकत्रित होने से विषैले रासायनिक पदार्थों का निर्माण होता है। जैसे घी और शहद अमुक मात्रा में मिला देने से हानिकारक रसायन बन जाती है वैसे ही अनेक व्यक्तियों के शुक्र कीट, योनि मार्ग में एकत्रित होकर विष बन जाते हैं, यह विष सुजाक, अतिशक, जैसे योनि रोग उत्पन्न करता है। वे रोग जब बढ़ते हैं तो उस स्त्री के संपर्क में आने वाले पुरुषों को लगते हैं पुरुषों की छूत अन्य स्त्रियों को लगती है, इस प्रकार व्यभिचार के कारण ये सत्यानाशी रोग उत्पन्न होते और फैलते हैं। जिसके पीछे यह रोग लग जाते हैं उसका पीछा मुश्किल से छूटता है। यह रोग सड़ा-सड़ा कर और रुला-रुला कर रोगी को मारते हैं। व्याभिचारिणी स्त्रियों का गर्भाशय दूषित हो जाने के कारण या तो उनके संतान होती ही नहीं, होती भी है तो पैतृक रोगों को लेकर होती है। माता-पिता की पापमयी मनोवृत्तियों का प्रभाव संतान पर निश्चित रूप से होता है। उस संतान में अनेक आसुरी दुर्गुण पाये जाते हैं, व्यभिचार से उत्पन्न हुई संतान को ‘वर्ण शंकर’ के अपमानजनक घृणास्पद नाम से शास्त्रकारों ने पुकारा है। कारण यह है कि उस संतान में माता-पिता की प्रवृत्तियाँ सन्निहित रहती ही हैं। ऐसे बालकों की अभिवृद्धि होना संसार के लिए अभिशाप रूप है। इसलिए व्यभिचार सर्वथा निन्दनीय है। धर्म की दृष्टि से तो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही वह एक समान पाप है परन्तु शारीरिक दृष्टि से स्त्रियों के लिए वह और भी बुरा है क्योंकि स्त्रियों के गुह्य अंग में पुरुष के वीर्य की स्थापना होती है, इससे उनके ऊपर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक प्रभाव विशेष रूप से होते हैं। पुरुष स्त्री के वीर्य को धारण नहीं करता इसलिए किन्हीं अंशों में उसे शारीरिक हानि कुछ कम होती है। यदि पति-पत्नी में एकनिष्ठा न हो, वे व्यभिचार में प्रवृत्त हों तो घर की आर्थिक दशा ठीक नहीं रह सकती। दोनों का ध्यान अपने तुच्छ स्वार्थ में केन्द्रित रहेगा। यदि पति व्यभिचारी हो तो दूसरी स्त्री को धन देकर अपने आश्रितों को अर्थ हीन बनावेगा। यदि स्त्री व्यभिचारिणी हो तो कभी जार पति की आवश्यकता होने पर घर का धन गुप्त रूप से उसे दे देगी। यदि जार पति से लेगी तो उसे गुप्त रूप से रखेगी, या फैशन आदि में अपव्यय करेगी। व्यभिचार से प्राप्त हुआ धन मुफ्त का सा लगता है वह बुरी तरह फिजूल खर्ची में जाता है। वेश्याएं इतना धन कमाती हैं पर यौवन ढलने पर दूसरों की मुहताज होकर रोटी खाती हैं। उनके पास जमा कुछ नहीं हो पाता। फिजूल खर्ची की आदत यदि स्त्री या पुरुष एक को भी हो तो घर की आर्थिक व्यवस्था ठीक नहीं रह सकती। वहाँ दरिद्रता और अभाव का ही सदा बोलबाला रहेगा, पति-पत्नी की एकनिष्ठा और आत्मीयता होने पर थोड़ी आमदनी में भी किफायत शारी और सावधानी बरतने से आर्थिक कठिनाई नहीं आती, परन्तु दोनों के बीच कपट या शिथिलता होने पर अच्छी आमदनी होते हुए भी अर्थ संकट बना रहता है। व्यभिचारी व्यक्तियों को अपने प्रेमी को स्वेच्छा पूर्वक प्राप्त करने की सुविधा नहीं होती, जब अवसर भी मिलता है तो थोड़े समय के लिए। वह भी आशंका, भय और झिझक के साथ। ऐसी स्थिति में तृप्ति दायक संयोग सुख, किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता। दाम्पत्ति सुख की यह चिह्न पूजा दोनों में से किसी को तृप्ति नहीं दे पाती। मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार यह प्रकट है कि- अतृप्त संयोग मस्तिष्क सम्बंधी विकार और मानसिक दुर्गुण उत्पन्न करता है। इच्छित तृप्ति की सुविधा न होने से व्यभिचारी व्यक्ति अपने प्रिय पात्र के लिए चिंतित रहते हैं। विरह दुख पाते हैं, अवसर के लिए आतुर रहते हैं, जी की जलन बुझाने और प्रेमी को आकर्षित रखने के लिए उसकी समीयता प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार की चेष्टाओं में उनका सारा ध्यान उलझा रहता है। हर घड़ी वही फितूर सवार रहता है, समय का अधिकाँश भाग उन्हीं बातों में खर्च हो जाता है, फलस्वरूप जीवन के अन्य आवश्यक एवं महत्वपूर्ण काम बिगड़ते हैं, अधूरे पड़े रहते हैं, छूट जाते हैं। इस मानसिक उद्वेग में शरीर दिन-दिन घुलता जाता है। ऐसे लोग बीमारी और कमजोरी से ग्रसित होकर अल्पायु में ही काल कवलित हो जाते हैं। असंयम के कारण अधिक वीर्यपात होता है, इस प्राण सत्व के अधिक व्यय के कारण अनेकों नवयुवक तपैदिक के शिकार होकर जीवन लीला समाप्त करते देखे गये हैं। एक निष्ठा का बंधन शिथिल हो जाने से समाज का संगठन बिल्कुल नष्ट भ्रष्ट हो जायेगा। स्त्री, बच्चे, माता, पिता आदि के संबंध एक क्षणिक ठेकेदारी मात्रा रह जावेंगे। स्वस्थता, सुन्दरता, स्वभाव या धन की अधिक मात्रा का जहाँ अवसर मिलेगा वहाँ पहले संबंध को छोड़कर लोग दूसरे नये संबंध की स्थापना किया करेंगे। तब किसी भी स्त्री पुरुष को अपने साथी पर विश्वास न रहेगा। सदा यही भय लगा रहेगा कि अधिक अच्छा अवसर मिला कि साथी पल्ला छोड़कर भागा। ऐसी आशंका के बीच किसी सुदृढ़ परिवार की स्थापना किस प्रकार हो सकती है? सुदृढ़ परिवार की, आधार शिला स्त्री पुरुष के बीच सच्ची मित्रता, एकता और आत्मीयता ही है और वह तभी हो सकती है जब एक दूसरे के प्रति वफादार हों, उसके लिए कुछ त्याग करें। इस त्याग और वफादारी की प्राथमिक परीक्षा-एकनिष्ठा, व्यभिचार से बचना ही है। जहाँ एकनिष्ठा न होगी-उन पति-पत्नी के बीच सच्ची आत्मीयता का होना असंभव है। अस्थिर सशंकित और प्रेम रहित परिवारों का समाज संसार के सारे सौंदर्य का और मानव जाति की महत्ता का नाश ही कर देगा। यदि व्यभिचार पर प्रतिबंध न होगा तो एक व्यक्ति दूसरे के और दूसरा तीसरे के घर को ताकेगा और सर्वत्र अशान्ति, अस्थिरता एवं अविश्वास का वातावरण व्याप्त हो जायेगा। स्त्री या पुरुष किसी को सच्चा साथी न मिल सकेगा। इन सब बातों पर विचार करने से पतिव्रत और पत्नीव्रत की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। काम सेवन एक मनोरंजक खेल मात्र नहीं है। यह प्राण विनिमय की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यह वह महान रासायनिक क्रिया है जिसके द्वारा दो प्राणों का एकीकरण होता है और उस संयोग से नये प्राणों की बालकों की उत्पत्ति होती है। भावी संतति की पवित्रता, सार्वजनिक स्वास्थ्य, समाज की स्थिरता, परिवार की निश्चिन्तता आदि जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं का सदाचार से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसमें शिथिलता आते ही इतनी दुखदायी उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं जिनके सामने काम सेवन का इन्द्रिय सुख बिल्कुल तुच्छ और उपेक्षणीय है। मनुष्य समाज का सामूहिक हित जिन कामों में निहित है, वे धर्म हैं, जिन कार्यों से सामूहिक अहित होता है, वे पाप हैं। चूँकि व्यभिचार से मनुष्य जाति को सामूहिक हानि है इसलिए वह त्याज्य है एवं अधर्म है। पाठकों को व्यभिचार से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए

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