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खामोश!खामोशियां, उदास हो,बतियाने लगीं।धूप तब भी,इतनी ही, तेज!हुआ करती थी।पछुआ! गर्म हवाएं,बदन को, झुलसा देती थीं।लेकिन! तेरी उपस्थिति, वातानुकूलित! माहौल सी होती थी।

एक पतंग की तरह उड़ना सीखो, जो उड़ती तो आजाद है, लेकिन संस्कारों की डोरी साथ लेकर।

हृदय के स्वर खिले हों या रुॅंधे हुए, धड़कने स्वस्थ हो या रुग्ण, उनके साथ जीवन कैसे जिया जाए-यह मार्ग दिखाना ही मर्म चिकित्सा का ध्येय है। सीने के बीच और बाई तरफ बसा तथा जीवन के हर पल का संचालन करता हृद

रांची नगर की कोई भी गाथा स्वर्णरेखा नदी के पुण्यधर्मी प्रवाह को भूलकर नहीं लिखी जा सकती |  हम रांची नगर वासी जीवन की प्रवाह को जीवनदायिनी स्वर्णरेखा नदी के प्रवाह से जोड़कर देखते है, कारण हमारा इतिहास

खामोश क्यू बैठा है.मेरे दोस्त.                                      उठ जरा दुनिया को देखं.    &

कितना "बेईमान" है ये" दिल..."धड़क रहा "मेरे लिए           "तड़प रहा तेरे" लिए...-दिनेश कुमार कीर

शाइरी करना कोई आसां नहीं कौन है वो जो यहाँ रुसवा नहीं

एक अधूरी प्रेम कहानी: - नादान प्रेमसिर्फ यादें बनकर रह गई... तब हमारे गाँव के पास में कॉलेज नही थाl इस कारण मैं पढ़ने के लिए में शहर आया था। यह किसी रिश्तेदार का एक कमरे का मकान था।  बिना किराए क

रोज-रोज नहीं आतीं ,' चांदनी रातें'। कभी छा जाती बदली, कभी होती बरसातें । मिलने को तड़पता होगा, चांद भी,चांदनी भी आहें भरती होगी। बहुत इंतजार के बाद, होतीं ये मुलाकातें। चांद से मि

डंक की चुभन पानी की तासीर पाने के लिए, छत, घनौची, गली में रखे पानी से भरे ड्रम, गैलन, बोतल, मटका, बाल्टी, जग, ग्लास, कलशा, सुराही टब आदि। मौसम की गर्म हवा, हरी कोपले वाली टहनियों से टकरा कर पत्तियों

"आ मिलेंगे कभी नैनों के घाट परमन का दीप जलाए रखना सुलभ , सरल, शुभ इंतज़ार करनाख़ामोशी की ज़ुबां से प्रेम की सारी रस्में पूरी करना।"प्राची सिंह "मुंगेरी"

मुश्किलों से कह दो की उलझे ना हम से,हमे हर हालात मैं जीने का हूनर आता है!

हम गज़ल कहते थे दस 'वी' क्लास में और वो थीं टेंथ 'ए' की क्लास में

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महती बातें तब करो, जब मन होय न क्लेश,  नहीं ते होवे सब गुड़गोबर, कुछ भी बचे न शेष ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "                     

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आँखों की शोभा बढ़े, जब लें काजर डार,  सुथरा मैले के सामने,  और लगे उजियार ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "              

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तारे आँखों के बना, देख-भाल पहचान,  तिनका छोटा आँख में, ले लेता है जान ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "             

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क्यों  दूजे के  काम में,  सदा  अड़ाय  टांग,  एक दिन ऐसा आयेगा, खुल जायेगा  स्वाँग ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "               

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समय का मोती पास था,  काहे  दिया गँवाय, काहे का रोना-पीटना, अब काहे पछताए । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "

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चलते चलते थक गए,  ले लो थोड़ा विश्राम,  एक अनवरत प्रक्रिया,  ख़त्म न होते काम ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "                    

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प्रणाम सिस्टर,                    Yes, हम क्या खाए और कैसा खाए हमारा शरीर एक भौतिक शरीर है जो मेटर से निर्मित है। जब किसी हिंसक व पालतु पशु-पक्षी का मांस खाते है तो उसका आचरण,डर व बल भी उसमे समा

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