एक देश में दो राजा थे, एक अँधा और एक काना. उस देश में 40 प्रतिशत ऐसे लोग थे जो अंधे थे, 40 प्रतिशत ऐसे थे जो काने थे, और 20 प्रतिशत लोगो की दोनो आँखे ठीक थी.
अंधे लोग कानो से नफ़रत करते थे, काने अंधो से, और आँख वाले लोग अंधे और काने दोनो से नफ़रत करते थे.
अंधो ने कई सालों तक आँख वालो की सहानभूति और सहायता से उस देश पर राज किया. और पूरे देश मे अंधेरगर्दी कायम कर दी. कानो ने विरोध किया, पर आँख वालो ने इस अंधेरगर्दी को अंधो की लाचारी और बहुमत मान कर स्वीकार कर लिया.
एक बार बहोत मुश्किल से कानो की जीत हो गयी, और कानो की सरकार बन गयी. अंधे बौखला गये, इतने वर्षों के शाशन में हर मोर्चे पर सेट किए हुए उनके प्यादो ने अंधेरगर्दी मचा दी, पर कानो ने उन्हे संभाल लिया.
चुकी कानो को आँख वालो जितना तो नहीं, पर दिखाई तो देता ही था. उन्होने अंधेरगर्दी मिटानी शुरु कर दी. पर आँख वाले कानो से कोई हमदर्दी या सहान्भुति नहीं रखते थे, उनकी हर बात को ग़लत बताते थे. आँख वालो को कानो से बिल्कुल आँख वालो जैसे सिस्टम चाहिए थी, वो भी शुरुआत से ही.
उन्होने कानो के हर बात का पुरजोर विरोध करना शुरू कर दिया, ये विरोध अंधो के लिए वरदान साबित होने लगा. अब अंधो और आँख वालो को एक दूसरे का समर्थन मिलने लगा.
अब यहाँ से आँख वालो को अक़ल का अँधा कहना ज़रा भी ग़लत नहीं रह गया. क्योकि उन्होने काने और अंधे राजा में से एक तरह से अंधे राजा और उनके अंधेरगर्दी का ही चुनाव किया था.
हालाँकि यहा कहानी मे एक ट्विस्ट है, वो ये की अंधे राजा और काने राजा दोनो ही ठीक-ठाक आँख वाले थे, पर अंधो और कानो का समर्थन प्राप्त करने के लिए वो अंधे और काने बने हुए थे. पर दोनो का मकसद अलग-अलग था.
अंधे राजा को किन्ही के इशारों पर और किसी ख़ास कारण से पूरे देश को अंधेरों में डूबा देना था, और काने राजा को पूरे देश को इस कायम हो रहे अंधेरे से बचाना था. पर दोनो को ही अपने-अपने मकसद में कामयाब होने के लिए जन समर्थन चाहिए थी. और दोनो को ही आँख वाले होते हुए भी स्वांग रचना ज़रूरी था, क्योकि सत्ता में रहने पर ही अपने मकसद को अंजाम दे पाना संभव था.
इस कहानी में एक और किरदार है, जो राजा बनने का खवाब देखता था. वो सही मे अँधा था, पर वो दो नकली आँखे लगा कर आँख वाला होने का स्वांग करता था, वास्तव में वो सबसे निचले दर्जे के अंधो में से एक था, और वैसे ही लोगों की पसंद भी. जिसे इस कहानी में नज़र अंदाज़ किया जा सकता है.
अंधी प्रजा बिना कुछ सोचे-समझे अपने अंधे राजा को समर्थन देती थी, और कानी प्रजा अपने काने राजा को. अब रह गयी बात आँख वालो की तो आँखें तो सभी आँख वालो के पास थी, पर किसी को ये नहीं पता था कि उन आँखो के पीछे जो दिमाग़ है, वो ज़्यादा महत्व रखता है, वरना अंधो ने तो भगत सिंघ जैसे आँख, दिमाग़ और जज़्बात वाले में भी हज़ारों कमियाँ निकाल कर उन्हे फाँसी तक पहुँचा दिया था.
क्योकि आँख वालो के दिमाग़ में संतोष का स्थान है ही नहीं, उन्हे एक बार में चाहिए, और पूरे का पूरा चाहिए.
अँधा तो अँधा है, पर कानो को देखने वालो से ज़्यादा काबिलियत होनी चाहिए, ताकि उसका थोड़ा देखना भी पाप हो जाए.
चोर तो चोर है, पर एक पुलिस के उपर सारे क़ानून लागू हो जाते है, ताकि चोर को रोकना असंभव हो जाए.
बेईमान तो बेईमान है, पर एक ईमानदार से एक पेन का खो जाना भी हंगामा बन जाता है, ताकि ईमानदारी नमुम्किन हो जाए.
जब सब कुछ चला जाए तो ठीक, पर थोड़ा मिलने वाला हो तो पूरा का पूरा चाहिए, ताकि थोड़ा मिलना भी बंद हो जाए.
आँख वालो को ये देखना होगा कि काने भी थोड़ा-थोड़ा कर के आँख वालो जितना देख सकते है,
पुलिस को भी चोरों को रोकने के लिए ताक़त आज़माने की आज़ादी होनी चाहिए,
ईमानदार को भी ईमानदारी कायम रखने के लिए कुछ भूल जाने कुछ खो देने की आज़ादी होनी चाहिए,
पूरा का पूरा पाने के लिए हमे थोड़ा-थोड़ा कर के देने वाले को स्वीकार करना चाहिए.
इस देश की कहानी अभी भी इसी संघर्षरत अवस्था में चल रही है, पर इसका अंजाम आँख वालो के समझ पर ही निर्भर करता है. आँख वालो को ये समझना होगा की कानो के सिस्टम के बाद आँख वालो के सिस्टम को लाया जा सकता है, पर अंधो के सिस्टम, या कहे तो अंधेरगर्दी के बाद या उसके साथ कभी नहीं.
अब आप ही सोचिए कि इस देश की कहानी का अंज़ाम आप पर कितना निर्भर करता है.?