सियासत के बाजार में ईमानदारी नीलाम हो रही है और राजनीती बोली लगा रही है, मेरी ईमानदारी आप से बेहतर है, तब तो फिर मेरी औरों से बेहतर?
तब क्या अब यह मान लिया जाये की राजनीती में अब तक बेईमानी का ही बोल बाला रहा है, नहीं तो ईमानदारी दिखाने की ऐसी नौबत क्यों, कहाँ से और किसलिए आती?
इतिहास के पन्नें को ज़रा पलटे है और एक सरसरी निगाह डालते ही लगता है, कुछ अपवाद ज़रूर है जिनकी गिनती की जा सकती है? और जिनकी नहीं की सकती, तो क्या वे असहिष्णु कलमकार के शिकार हो गए या फिर कानून ने सही ढंग से अपना काम नहीं किया?
देश की राजनीती कानून अपना काम करेगी के शब्दाबली पे चलती है, और कानून को बनाने का जिम्मा भी उसी राजनीती के पास है? सोचने वाली बात यह है कानून कैसे निष्पक्ष हो कर काम कर सकती है?
खैर छोड़िये देश में कानून के इतने ही लम्बे होते तो गुनहगार के गिरेबान पर मौत से पहले ही हाथ डाल देती मगर गवाह निपटाये जाते है, गुनहगार के मौत के बाद भी कानून अपना फैसला सुरक्षित रखती है ताकि किसी के अंतरात्मा को ठेस न पहुंचे?