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भारतीय संस्कृति, हिन्दी और भारत का बाल एवम् युवा वर्ग

19 सितम्बर 2015

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“ भारतीय संस्कृति, हिन्दी और भारत का बाल एवम् युवा वर्ग “ राष्ट्र का बाल एवम् युवा वर्ग राष्ट्र का भावी निर्माता है । वे भावी शासक, वैज्ञानिक, प्रबन्धक, चिकित्सक हैं । किन्तु आज के युवा वर्ग के अपराधों में लिप्त होने के समाचार “युवा एवम् अपराध” नामक शीर्षक से जब हम समाचार यदा – कदा पढ़ते हैं तो यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि युवा वर्ग हमारे प्रचीन सांस्कृतिक चिंतनों से दूर क्यों होता जा रहा है । आज युवाओं का बड़ा वर्ग विभिन्न जघन्य अपराधों में शामिल क्यों है ? आज का युवा किसे आदर्श मान रहा है, किससे प्रेरित हो रहा है । भविष्य का मार्ग निश्चित करने के बारे में उसकी सोच क्या है ? भारतीय सांस्कृतिक चिंतन से अनभिज्ञ युवा एवम् बाल वर्ग भारत विश्व गुरू रहा है । यहाँ अनेक महान विचारकों ने जन्म लेकर विश्व का पथप्रदर्शन किया है । आज हमारे ही बच्चे पथभ्रष्ट हो रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि वे किससे प्रेरणा लें । ऐसा क्यों हो गया एवम् हो रहा है ? इसके कारणों में से एक है अपनी मातृभाषा से अलग होना । भाषा का संस्कृति से अटूट सम्बन्ध है । भाषा संस्कृति की पोषक होती है । ब्रिटिश शासन काल के बाद से ही औद्योगिकीकरण, नगरीकरण तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रवेश ने भारतीय समाज के परंपरागत स्वरूप को बदल दिया । वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने भी भारतीय संस्कृति से बाल एवम् युवा वर्ग को अपरिचित रहने में सहयोग ही दिया । आज भारतीय समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है । राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवम् आर्थिक परिवेश बदल रहे हैं । संस्कृति तथा भाषा में बड़ा गहरा संबन्ध है । ये दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं । अपनी भाषा का ज्ञान होने से ही संस्कृति का ज्ञान होगा । भाषा न जानने पर हम अपनी संस्कृति से कट जाते हैं । अंग्रेजों ने भारत से उसकी भाषा छीन ली । बिना अपनी भाषा के बुद्धि श्रेष्ठ उत्पादन कैसे दे सकती है । हमारे देश में अंग्रेजी भारत की सृजनात्मक तथा शोधात्मक प्रतिभा को अत्यधिक नुकसान पहुँचा रही है । यह समस्या अत्यन्त गंभीर है । अगर समय रहते उपाय न किये गये तो इसके दूरगामी और घातक परिणाम होंगे । हमें यह मानना होगा कि भारतीय संस्कृति, हिन्दी या किसी भारतीय भाषा में ही पनप सकती है । गाधीं जी ने कहा था –“ स्वतंत्रता के पश्चात चाहे अंग्रेज यहाँ रहें, किंतु अंग्रेजी एक भी दिन न रहे ।” अंग्रेजी ने हमें प्रौद्योगिकी और विज्ञान के क्षेत्र में न केवल पीछे किया है बल्कि हमारी संस्कृति को भी भ्रष्ट कर दिया है । पाश्चात्य संस्कृति हमें व्यक्तिवादी एवं भोगवादी बना रही है । चीन और इज़राइल जैसे देश जो 1947 में हमसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में बहुत पीछे थे अपनी मातृभाषा में शिक्षा के बल पर आज हमसे बहुत आगे निकल गए । जब अंग्रेजी का भारत पर पूरा वर्चस्व हो गया है तो अंग्रेजी ने हमें पिछड़ा क्यों बना दिया, यह प्रश्न उठता है । हमारा बाल एवम् युवा वर्ग वर्तमान समय में एक निर्णायक भूमिका निभा सकता है । युवा अपनी प्रतिभा व परिश्रम के बल पर वर्तमान दुनिया की मांगों के अनुसार स्वयं को तैयार कर सकता है । किन्तु जब हिन्दी को प्रोत्साहन नहीं मिलता है और युवा वर्ग अपनी संस्कृति से अनभिज्ञ रह जाता है, तो सोचना आवश्यक हो जाता है । हमारे युवा वर्ग के पास नित नए-नए प्रश्न हैं । वे समाधान खोज रहे हैं । नए समाज की रचना हो रही है । हर दिन ज्ञान विकसित हो रहा है । विकसित होते हुए ज्ञान को यदि हम अपनी भाषाओं में युवा वर्ग तक नहीं ले जाएँगे तो वह उस ज्ञान से वचिंत रह जाएगा । हमें संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर हिंदी की प्रगति में योगदान देना चाहिए । हिंदी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को अभिव्यक्त करने की अपूर्व क्षमता है । और इस तरह विज्ञान के विद्यार्थियों पर अनावश्यक रुप से पड़ा हुआ भाषा का बोझ हट जाएगा । शिक्षा का माध्यम हर हाल में मातृभाषा ही होनी चाहिये । आर्नल्ड टायनवी ने भारत के विषय में भविष्यवाणी की थी कि – “भारत विश्व का आध्यात्म गुरू बनकर पाश्चात्य सभ्यता तले रौंदी जा रही मानवता को बचा सकेगा ।” यह भविष्यवाणी हिंदी के वर्चस्व से ही संभव हो सकती है क्योंकि हिंदी से ही हमारी संस्कृति अनुस्यूत है । भारत को हिंदी की आवश्यक्ता है अन्यथा अंग्रेजी विद्यालयों का चलन, विदेशों की ओर गमन और अंग्रेजी को नमन भारत को ऐसे कगार पर ले जाएगा कि भारत की भारतीयता खो जाएगी । मान लीजिये कि शार्कों से भरे समुद्र में एक जहाज जा रहा है । वह डूबने लगता है । हर तरफ अफरा तफरी मच जाती है । सब अपनी जान बचाना चाहते हैं परन्तु एक व्यक्ति चैन से सो रहा है कप्तान ने उससे कहा “ भाई तुम सो क्यों रहे हो । क्या तुम्हें पता नहीं कि जहाज डूब रहा है ?” “ पता है, डूबने दो । “ क्यों, कप्तान चौंक गया । “ यह जहाज मेरा थोड़े ही है, मैने इसपर खर्च थोड़े ही किया है, डूबे ” हर भारतीय की स्थिति उस आदमी की तरह है जिसे समझ में नहीं आ रहा कि जब जहाज डूबेगा, आसमान से कोई फरिश्ता उसे बचाने नही आएगा । विड़म्बना यह है कि सारा विश्व हिंदी को हिंदुस्तान की भाषा मानता है, लेकिन हमें उसे अपनाने में लज्जा आती है । अपनी भाषा के महत्व को समझना अत्यंत आवश्यक है । जब नन्हा शिशु अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में प्रवेश लेता है तब हिंदी के हजारों सीखे शब्द भी उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं । अंग्रेजी की उंगली पकड़ नए सिरे से चलना सीखना उसकी मजबूरी होता है । न भाषा समझ में आती है, न विषय समझ में आता है । बार-बार असफल होते हुए उनका मनोबल टूट जाता है । भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों में विरोधाभाष हमारे युवा वर्ग को ऐसे दोराहे पर खड़ा करते हैं कि वे किसे अपनाएँ और किसे छोड़ें । परिणामस्वरूप नैतिक मूल्यों में गिरावट के कारण यह वर्ग भ्रमित हो जाता है । वह पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं को आज के परिवेश में निरर्थक समझता है । जिससे दो पीढ़ियों के बीच जीवन मूल्यों में संघर्ष स्पष्ट परिलक्षित होता है तथा हमारे बाल एवं युवा वर्ग में तनाव व असंतोष का कारण बनता है । ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय शिक्षा पद्धति भी किसी हिंदी विरोधी ने बनाई है । परिणामतः ज्ञान का आज के बाल एवं युवा वर्ग के जीवन में कोई उपयोग नहीं है । शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने वाले अधिकांश युवा वह होते हैं, जिनका उद्देश्य मनोरंजन करना, दोस्त बनाना, चुनाव लड़ना और शिक्षा के बहाने माता-पिता को संतुष्ट करना होता है । ऐसे युवा आंतरिक रूप से तनावग्रस्त होते हैं जिस कारण उनमें मादक द्रव्यों के प्रयोग की आदत पड़ती और जीवन पूर्णतः उद्देश्य और दिशाहीन होता है । इन्हीं तनावों और कुण्ठाओं के फलस्वरूप युवा वर्ग प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक चिंतन से दूर होता जा रहा है । और इसके लिए शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनौतिक कारक उत्तरदायी हैं । मार्क ट्वेन ने कहा था कि भारत मानव जाति का पालना है । भाषा की उत्पत्ति यहाँ हुई । भारत इतिहास की माता, पौराणिकता की मातामही है । दुख की बात यह है कि हमारी विरासत की पहचान भी हमें एक विदेशी कलम से कराई जा रही है । अमरीका में चीन के पूर्व राजदूत हू शीह ने कहा था कि “भारत बिना एक भी सिपाही भेजे सांस्कृतिक रूप से चीन पर राज कर रहा है ।” चीन के राजनीतिज्ञ का यह कथन अत्यंत मह्तवपूर्ण है । यह इस बात का द्योतक है कि भारत के पास बहुत कुछ है दुनिया के साथ आगे बढ़ने के लिए । कोई कारण नहीं है कि हम हीन भावना से ग्रस्त हों । अंत में, हमें याद रखना चाहिये कि हिंदी में अभी भी कुशल हिंदी सेवी, हिंदी में आस्था रखने वाले हिंदी लेखक हैं । हम देख रहे हैं कि हिन्दी भाषा “विश्व भाषा” का रूप ले रही है । किन्तु हमारी भावी पीढ़ी – हमारे बाल एवम् युवा वर्ग की भी भाषा हिन्दी होनी चाहिये, इस दिशा में भी प्रयास होने चाहिये । - आशा “क्षमा”
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