फिर कभी भेंट ना होने के निर्णय से वियोग हुआ था । पर संसार तो वृत्ताकार है तो सालों बाद ऐसे ही एक भीड़ में वह उससे टरकरा गया । उसे देखते ही गौरव की आखो ने उसे पहचान लिया, उसके अंदर के खंडहर सी यादों के ऊपर से सारी मरम्मत झरझरा के टूट गयी । गौरव ने उस खंडहर के पुनःनिर्माण में सालो लगा दिये थे जो एक क्षण में ही धराशाई हो गई । उसकी आंखे आयुषी को ऐसे देख रही थी मानो उसे पुनः पा जाने का एक और पारी मिल गयी हो । पर आयुषी की आंखे उसे पहचानकर भी पहचानने से मना कर रही थी । जहां गौरव को उसकी पुरानी यादों से शांति और स्थिरता का अनुभव हो रहा था वहीं आयुषी को ये यादे सालो बाद फिर झकझोर रही थी, उसे फिर कुरेद रही थी। आयुषी की आंखो से लग रहा था मानों वह अभी भी Heal हो रही है, पूर्वतः नही हो पायी है । और ऐसे में एकाएक गौरव का मिल जाना मानो उसकी सालों की मेहनत पर पानी फिर गया हो। खैर काफी समय के असहजता के बाद दोनो सहज हुए। और उस कौतुहल से थोड़ी दूर श्री राधा-कृष्ण के मंदिर मे चले गये । दोनो मंदिर के बगल के चबूतरे में बैठ कभी मंदिर के नक्काशी को देखते, कभी आते जाते भक्तों को और इन दोनो को देखने के क्रम मे उनकी नजरें एक दूसरे से मिल जाती । दोनो खुब बातें कर रहे थे पर बोल कोई नही रहा था । दोनो के बीच मे ऐसी शांति थी मानों घनघोर काले बादल छाए हुए हो । और दोनो के अंतर्मन मे शोर इतना कि जैसे सावन के माह में बिना बारिश बादल गर्जना कर रहे हो । घंटो के अशब्दीय वार्तालाप के बाद दोनो एकसाथ खड़े हुए और फिर कभी भेंट ना होने के निर्णय के साथ आयुषी मन में एक अनजान सी खुशी और जाना पहचाना दर्द ले अपने रास्ते चली गयी । गौरव बस इतना कह सका " अच्छा था तुम तक का सफर, अब यह मोड़ भी याद रहेगा" ।