ख़बरों की माने तो देश में एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की जा रही है जहाँ आपको कुंजी से उत्तर पुस्तिका में नक़ल करने की छूट होगी?
तो फिर परीक्षा का औचित्य क्या रह जायेगा, यह तो आने वाला वक़्त बताएगा? इससे तो बेहतर यह होगा की विधार्थी परीक्षा देने के लिए आये अपनी हाजरी लगवाये और घर चले जाये, सब पास तो फिर फ़र्ज़ी डिग्री का धंधा कैसे चलेगा? इस धंधे पर आधारित अर्थव्यवस्था का क्या होगा क्या कभी हमारे कानून निर्माताओं ने कभी इस पर विचार किया, अगर नहीं किया है तो अभी भी वक़्त है?
लौट के वापस आने का (U TURN) दाग लगने से पहले ही अगर सीधा चल दिया जाये तो क्या बुराई है, कहीं ऐसा तो नहीं की इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद यह फैसला लिया गया हो ताकि कानून के निर्माता और पालन कर्ता के उत्तराधिकारी कहीं फेल न हो जाये?
हम तो इस व्यवस्था के खिलाफ है चाहे कोई भी विचार करें, देश ने शिक्षा व्यवस्था के व्यावसायिक करण के चलते जो खोया है, अगर आप उसका समर्थन करते है तो और बात है!
क्योंकि पिछले ६० - ६५ सालों में भारत ने दुनिया को क्या दिया है, बाबा जी का ठुल्लु, शिक्षा व्यवस्था का स्वर्मिण युग कभी था जब देश में विदेश से पढ़ने आया करते थे, और फिर जब नालंदा विस्व विद्यालय के पुस्तकालय में आग लगाई गई थी तब ६ महीने तक आग जलती रही थी?
फिर शिक्षा का एक ऐसा भी दौर आया आज़ादी के बाद जहाँ पढाई नहीं पैसों से डिग्रीयां मिलने लगी, फिर शिक्षा का स्तर और गिरने लगा मगर घरों में चिंता सबको लगी रहती थी की पप्पू पास होगा की नहीं, फिर दौर आया फ़र्ज़ी डिग्री का? तब हम क्यों न कहें सारे जहाँ से अच्छा पढाई हमारा?
AICTE एक ऐसी व्यवस्था जहाँ लूट का बोलबाला है, और इसके तहत जो शिक्षा मिलती उसका न देश में न विदेश में कोई माँग है, मगर कमाई नेताओं के स्कूल और कालेजों की इसमें कहीं कोई गिरावट नहीं आई है?
हर साल १५ - १६ लाख इंजीनियर देश से पास होते है, न उनको कोई जानकारी है विषय की न साधारण ज्ञान की, ऐसी व्यवस्था किस काम की?