आखिरी मुलाकात
‘प्रणाम पंडित जी.. पालागी..’ सुबह जैसे ही मंदिर से बाहर निकला तो दूर से किसी ने आवाज दी। आवाज जानी पहचानी लग रही थी। मैं रुक गया। पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था। फिर मंदिर के गेट के पीछे देखा तो पता चला अरे.. यह तो रमवा है.. यह वही है जिसका स्टेशन के बाजू में वडा पाव का ठेला है। लगभग दो महीने बाद मिले थे हम। मैं भी दो महीने बाद मंदिर में भगवान के दर्शन करने गया था। हालांकि मंदिर तो बंद ही था। सामने के बेंच पर दो-चार दर्शनार्थी बैठे थे। लगभग ढाई महीने के लॉक डाउन के बाद थोड़ी सी चहलकदमी दिखाई दे रही थी। मंदिर के ठीक सामने स्टेशन पर दो लोकल ट्रेनें खड़ी थी। स्टेशन के बाजू में मुंबई में काम पर जाने वाले चिकित्साकर्मी और अत्यावश्यक सेवा देने वाले लोग सामाजिक दूरी को ध्यान में रखकर और मास्क लगाकर बेस्ट का इंतजार कर रहे थे। छोटे दुकानदारों ने अपनी दुकान खोलना शुरू किया था। हमेशा की तरह भीड़ भाड़ नहीं थी। लेकिन सुबह हुई बारिश ने वातावरण को थोड़ा सहज बना दिया था। बहुत दिन के बाद मंदिर आने के कारण मेरा भी मन शांत था। भगवान का दर्शन करके मैं भी अपने विचारों में डूब गया था। उसी समय इस रमवा ने आवाज देकर मेरे विचारों के पुल तोड़ दिए।
लगभग एक डेढ़ साल हुए होगे रमवा से मेरी पहचान हुई थी। जब मैं सुबह की लोकल पकड़ने स्टेशन पर जाता था तो मुझे रमवा दिखाई देता था। स्टेशन के बाजू में ही उसका वडा पाव का ठेला था। सुबह तो समय नहीं मिलता था लेकिन शाम को घर लौटते समय मैं उसके ठेले पर वडा पाव खाने के लिए जाता था। इधर उधर की बातें भी होती थी। आज जब वह मुझे मंदिर के गेट पर मिला तो मैंने भी उसी के अंदाज में कहा
"अरे रमवा.. कईसन हो.. ठीक बा.."
उसने भी हमेशा की तरह हंसते हुए कहा
"आप भी ना.. पंडित जी.. हमारी भासा का मजाक उड़ाते हो" इतना ही कह कर वह हंसते हुए चला गया। मैं भी हंसते हुए वहां से निकला और दूध की थैली लेकर घर चला आया।
जब से लॉक डाउन हुआ है, सोसाइटी में दूधवाला आता ही नहीं है। मैं सुबह जैसे ही दूध लाने दुकान पर गया वहीं एक स्टूल पर रमवा बैठा था। दूध की थैली बैग में डालकर मैंने उसको पूछा
"कैसे हो भाई.. कल मंदिर में मैं जल्दी में था.. तो बात नहीं हो पाई थी" मेरे वाक्य पर रमवा केवल हां में हां मिलाकर शांत बैठ गया था। हमेशा गप्पे लड़ाने वाला और गांव के किस्से बताने वाला रमवा उस दिन मुझे बहुत बदला बदला हुआ लग रहा था। एकदम शांत जैसे किसी अवसाद में डूबा हुआ। जब से उसका वडा पाव का ठेला बंद हुआ है, वह रोज सुबह इसी दूध के दुकान पर एक स्टूल पर बैठा रहता था। मैं भी रमवा के साथ बहुत बातें करना चाहता था। मैंने भी कुछ सहज होकर कहा
"और बताओ रमवा.. क्या हाल है"
मेरे ऐसे पूछने पर रमवा ने कहा
"का बताएं पंडित जी.. ई लाक डाउन ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा" उसके इस उदासी भरे वाक्य पर मैंने उसको धीरज देते हुए कहा
"अरे.. अब तो सब शुरू हो रहा है... तेरा वडा पाव का ठेला भी तो शुरू होगा।" मैं उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था। लेकिन उसने केवल क्या बताएं आपको पंडित जी कहकर दोपहर का खाना बनाने की बात कहकर जाने लगा। तो मैंने जाते समय उस को पूछा
"क्यों भाई.. भाभी नहीं बनाती खाना"
इस पर उसने बहुत ही ठंडे पन से कहा
"उसको पांचवा महीना चल रहा था ..तो मैंने उसको गांव भेज दिया"
" ऐसी स्थिति में इतना दूर भेजने की क्या जरूरत थी"
मैंने मेरी आशंका जताई। फिर दुबारा पूछने के बाद उसने अपनी समस्या मुझे बताई।
दरअसल कुछ साल पहले के भैया और भाभी गांव से मुंबई आए थे। वह किसी बिल्डर के पास दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे। एक डेढ़ साल पहले रमवा भी अपने भाई के पास गांव से मुंबई आया था। यहां स्टेशन के बाजू में वडा पाव बेचता था। तीनों काम करते थे इसलिए अच्छी आमदनी भी होती थी। एक चॉल में किराए पर रहते थे। सब कुछ ठीक चल रहा था। इसलिए रमवा ने भी अपनी नई नवेली दुल्हन को गांव से मुंबई लाया था। रमवा, भाभी, भैया सब काम पर जाते थे तो रमवा की पत्नी घर का काम संभालती थी। मेहनती परिवार एक सामान्य जीवन तो जी ही रहा था। लेकिन बीच में इस कोरोना महामारी के कारण लॉक डाउन हुआ। बिल्डिंग के काम बंद हुए। भैया, भाभी घर बैठ गए। उन पर भी एक बच्चे की जिम्मेदारी भी थी। रमवा का वडा पाव का ठेला भी बंद था। उसकी पत्नी भी गर्भवती थी। घर की आर्थिक स्थिति दिनों दिन बदतर होती गई। जैसे ही श्रमिक ट्रेन शुरू हुई, भैया भाभी ने गांव जाने का निर्णय ले लिया। रमवा ने भी अपनी पत्नी को उनके साथ गांव भेज दिया। तब से विगत दो हफ्ते से रमवा अकेला ही रह रहा है। उसकी स्थिति देखकर मुझे भी दुख हो रहा था। इसी अकेलेपन के कारण वह दूध की दुकान पर आकर बैठा रहता था।
उसकी स्थिति को समझते हुए मैंने उसको कहा
"भैया, भाभी का ठीक था. लेकिन आपको अपनी पत्नी को ऐसी स्थिति में इतनी दूर गांव नहीं भेजना चाहिए था।" मेरे इस वाक्य पर रमवा ने कहा
"क्या है ...पंडित जी पत्नी को पांचवा महीना चल रहा था.. यहां के डॉक्टर ज्यादा पैसा लेते हैं.. सरकारी अस्पताल तो कोरोना मरीजों से भरे है.. मैं बहुत डर जाता हूं।"
मैं उसकी स्थिति को समझ रहा था। दरअसल सरकारी अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे हैं और एक गरीब व्यक्ति प्राइवेट डॉक्टर की फीस कहा से देगा ?
मैंने विषय बदलते हुए कहा
"तो कब शुरू कर रहे हो ..तुम्हारा वडा पाव का ठेला"
इस पर रमवा ने नाराज होकर कहा
"अब क्या बताएं पंडित जी... इसके लिए ही रुके थे हम इतने दिन यहां... नहीं तो भैया के साथ नहीं जाते गांव।" रमवा ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि
"इस ठेला गाड़ी और जगह का मालिक मराठी है और अब यहां कोई मराठी संगठन के लोग वड़ा पाव बेचने वाले हैं। कल ही कोई कह रहा था कि.. सब भैया लोग गांव भाग गए... अब मराठी लोग काम करेंगे..."
उसके इस वाक्य पर मेरे पास बोलने के लिए कुछ भी नहीं था। मैं सब सुनकर चुपचाप वहां से निकल गया।
अगले दिन जब वह मुझे मिला तो बहुत ही परेशान था। मुझे लगा कुछ आर्थिक परेशानी होगी। मैंने भी संवेदनाओं के साथ उसको कहा
"कुछ समस्या है तो बताना रमवा.. कुछ ना सही दाल– चावल , खाने–पीने का इंतजाम तो कर ही सकते हैं"
मेरे इस वाक्य पर दुख भरी उदास हंसी के साथ उसने कहा
"नहीं.. नहीं पंडित जी.. ऐसी कोई बात नहीं है.. बस बहुत खाली-खाली लग रहा है.. ठेला लगाने का काम मिलना अब मुश्किल ही लग रहा है।"
मैंने उसकी तरफ गौर से देखा। सचमुच हमेशा हंसते रहने वाला रमवा की आंखे डबडबाई हुई थी। शायद उसको अपनी पत्नी, भैया और भाभी की याद आ रही होगी। मैंने सोचा मजबूरी कितनी बुरी चीज है। हमारा पेट ही हमें अपने गांव से दूर कर देता है। गांव में कुछ काम नहीं मिलता इसलिए तो हमारा पेट हमें यहां लेकर आता है। खैर.. अपने गांव वापस जाने का निर्णय रमवा ले चुका था। उसने मुझे कहा था कि कल शाम की श्रमिक ट्रेन से मैं गांव जा रहा हूं। मैं भी एकदम शांत हो गया था। शाम को जा रहा है इसलिए सुबह उसकी मुलाकात होगी ऐसा सोचकर जब मैं दूसरे दिन दूध की दुकान पर गया तो वहा रमवा नहीं था। मैंने दूधवाले से पूछा तो उसने बताया वह तो सुबह की श्रमिक ट्रेन से गांव चला गया.. आपको नहीं बताया उसने। मैंने कुछ जवाब ना देकर उसको फोन किया लेकिन उसका फोन नहीं लग रहा था। मैं दूध की थैली लेकर घर आया। मुझे याद है जाने के पहले दिन जब रमवा मिला था तो उसने मुझे कहा था "अब गांव जाऊंगा तो वापस नहीं आऊंगा. भैया, भाभी भले आ जाए..मैं नहीं आऊंगा.. वहीं कुछ काम धंधा देख लूंगा।" मुझे उसके वाक्य बार-बार याद आ रहे थे।
आठ-दस दिन हुए हैं। जब भी मैं दूध लेने जाता हूं तो मुझे रमवा की याद आती है। आज वह अपने गांव अपने परिवार के साथ होगा। उसने मुझे एक बार कहा था "पंडित जी.. आप एक दिन हमारे गांव जरूर आना। वहां हमारे दो बीघा खेत है.. जो पिताजी देखते हैं.. उसने मुझे उत्तर प्रदेश का कुछ गाजीपुर नाम का गांव बताया था। मुझे तो नहीं पता.. मैं तो कभी उत्तर प्रदेश गया नहीं हूं। लेकिन उसने गांव का बहुत वर्णन मेरे सामने किया था।
पता नहीं क्यों रमवा के साथ मेरे इतने भावनात्मक संबंध जुड़े थे। हमारा कोई रिश्ता तो था नहीं फिर भी अपनापन क्यों निर्माण हुआ था। उस दिन दिनभर उसकी याद आती रही।
कुछ दिन बाद मुंबई अपने पटरी पर वापस आएगी। लोकल शुरू होगी... जीवन की भागदौड़ शुरू होगी.. बस स्टेशन के बाजू में रमवा के हाथ का वडा पाव मुझे नहीं मिलेगा और उसका हंसते हुए हमेशा पूछना...
प्रणाम पंडित जी..पालागी.....
प्रशांत देशपांडे