पिछले दिनों मुझे बीकानेर के कृषि विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के कार्यक्रम में बतौर अतिथि जाने का अवसर मिला। यह 27 जनवरी का दिन था जिससे ठीक एक दिन पहले 26 जनवरी को हमने अपना 67वां गणतंत्र दिावस धूमधाम से मनाया। अपने वक्तव्य में मैंने विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स, कृषि वै ज्ञान िकों, शोधरत और कृषि छात्रों से कुछ सवाल साझा किए, जिनका उल् लेख इस लेख में करना जरूरी समझता हूं। 67 सालों के गणतंत्र के गौरवमयी इतिहास की कुछ बातें जो हमें शर्मिन्दा करती हैं, उनमें से एक बीते इन सालों में तीन लाख अठारह हजार किसानों की आत्महत्या हमारे विकास के दावों पर बड़ा सवालिया निशान लगाती है। यह आंकड़ा भारत सरकार के ही राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय का है। हालांकि हमारे सूबे राजस्थान का किसान अन्य राज्यों यथा महाराष्ट्र्र, बुंदेलखण्ड के किसानों की तुलना में आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाता, परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में काम करते हुए जहां भी किसानों के साथ चर्चा होती है वहां यह बात सामने आती है कि देश में खेती का काम करने वाले लोग खेती छोडऩा चाहते हैं। इस बात की गंभीरता को समझते हुए मैंने इस दिशा में अध्ययन किया तो जो बातें सामने आई वो बड़ी चौंकानें वाली थी। 1991 से 2001 के बीच सत्तर करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी वहीं 2001 से 2011 के बीच 72 करोड़ किसानों ने खेती को अलविदा कह दिया यानी हमारे देश में रोजाना 2000 (दो हजार) लोग खेती छोड़ रहे हैं। 1960-61 में भू स्वामित्व की इकाई का औसत आकार जो 2-3 हेक्टेयर था वह 2002-03 में घटकर 1.06 हेक्टेयर रह गया है। देश की 60 फीसदी आबादी को काम देने वाला कृषि क्षेत्र देश के सकल घेरलू उत्पादन में केवल 14 से 16 फीसदी ही योगदान दे पाता है। जिसमें भी विकल्प मिलते ही देश के 75 फीसदी किसान खेती छोडऩा चाहते हैं। कोई भी किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता। देश के किसान की प्रति परिवार आय मात्र 6,000 रुपये महीना है तो प्रति सदस्य 1200 रु महीना यानी 40 रु. प्रतिदिन बैठती है। कल्पना कीजिए कौन ऐसा होगा जो इस लघु आय में खेती करना चाहेगा। प्रसिद्ध कृषिविद् एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में वर्ष 2000 में बने आयोग ने किसान की दुर्दशा वाली शृंखलाबद्ध रिपोर्ट जारी की जो अन्नादाता के दुर्दिनों को उजागर करती है। रिपोर्ट कहती है कि सरकारी दफ्तर के चपरासी से भी किसान की आय बहुत कम है। देश के 36 फीसदी किसानों को रहने के लिए कच्ची झोंपडिय़ां तक नसीब नहीं होती है। जबकि 44 फीसदी के पास कच्चे-पक्के मकान है। आबादी का 44 फीसदी हिस्सा तीनों वक्त का खाना नहीं खा पाता। दरअसल इस बात पर गहनता से विचार करें तो ध्यान में आता है कि आजादी के बाद से सरकारों का मुख्य ऐजेंडा कभी कृषि सेक्टर नहीं रहा। जबकि हमारे देश की आत्मा खेती में ही बसती है। हमारे नीति निर्धारकों ने पश्चिमी देशों की नकल में औद्योगिक क्षेत्र पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जिसका नतीजा यह निकला कि न तो हम औद्योगिक विकास कर पाए और न ही हमारे परम्परागत कौशल खेती में विकास कर पाए। पिछले पचास सालों में हमारी खेती का तौर तरीका नहीं बदला। हम उसी ढर्रे पर खेती करते जा रहे हैं जैसा हमारे पूर्वज किया करते थे, जबकि दुनिया के दूसरे देशों में जहां खेती बहुतायत में होती है वहां खेती के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव आया है। हमारे यहां विज्ञान और प्रौद्योगिकी का कोई बड़ा लाभ कृषि को नहीं मिल पाया है। आशानुकूल कृषि विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध का लाभ भी जमीन पर नहीं उतर पाया। मैंने अपने उक्त उल्लेखित उद्बोधन में विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों से प्रयोगशालाओं से खेतों और खेतों से प्रयोगशालाओं की दोहरी प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने का आग्रह किया। किसानों की समस्याओं पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कीमत अभी भी एक बड़ी समस्या है। किसान को उपज का लाभकारी मूल्य मिलना तो दूर की कौड़ी है, सरकार ने अभी केवल 20 फसलों का ही समर्थन मूल्य घोषित कर रखा है। और उसमें भी सरकारी खरीद 'राजा के हुकम' पर निर्भर है। इस सीजन में लाख कोशिश के बावजूद मूंगफली की सरकारी खरीद राजस्थान में शुरू नहीं हो पाई। इसी तरह राज्य में चने के पिछले सीजन में चने का भाव दस हजार रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया जबकि किसान का माल 4 हजार से लेकर 4500 रु. क्विंटल में ही बिक गया बाकी सारा मुनाफा बिचौलियों के हाथ लगा। कहने को चने की दाल बहुत महंगी हो गई मगर मुख्य उत्पादक किसान तो उसी चार हजार के भाव में हाथ मलता रह गया। दरअसल हम हमारे यहां के किसानों का संगठित बाजार खड़ा नहीं कर पाए जिसके चलते कृषि उत्पादों के उतार चढ़ाव का बड़ा लाभ ट्रेडर्स और बिचौलियों के हाथ चला जाता है। छोटे किसानों के लिए न तो भंडारण की व्यवस्था है न ही किसान के लिए भंडारण वे ऋण की जबकि ट्रेडर्स को ये दोनों सुविधाएं आसानी से हासिल हो जाती हैं। किसानों को अपनी उपज की ठीक कीमत हासिल करने के लिए एक जिले से दूसरे जिले में अथवा एक राज्य से दूसरे राज्य में फसल बेचने के लिए ले जाने में भी बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हरित क्रांति के दौर में हुए प्रयोग और बाद के सालों में हुए प्रयोगों से प्रति हेक्टेयर तो उत्पादन बढ़ा मगर खेती की लागत महंगी होने की तुलना में न तो कीमतें बढ़ी न ही समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी हुई। केश क्रोप के चक्कर में प्राकृतिक संसाधनों और पानी का अंधाधुंध दोहन हुआ जिसके चलते पानी का खत्म होना (डार्क जोन) और जमीन के अनुपजाऊ होने के गंभीर खतरे खड़े हो गए हैं। हमारे राज्य में कृषि कुओं के क्षेत्र में जहां मूंगफली की खेती होती है वहां भूमिगत जलस्रोत खात्ये के कगार पर पहुंच गए तथा जमीनें अनुपजाऊ हो रही हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र जो किसान की आत्महत्याओं के लिए कुख्यात है, वहां भी कपास की खेती का ऐसा ही प्रयोग हुआ था जो आत्महत्याओं के सिलसिलों के बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा। वास्तव में सिंचाई के साधन और उच्च उत्पादकता से ही किसानों को लाभ नहीं होने वाला है, अगर ऐसा होता तो पंजाब का किसान आत्महत्या क्यों करता, जो राज्य सर्वाधिक सिंचाई और प्रति हेक्टेयर सर्वोच्च उत्पादन करता है। देश की बहुसंख्यक आबादी को खपाने वाले कृषि सेक्टर में समन्वित सामुदायिक टिकाऊ कृषि प्रबंधन का मॉडल डिजाइन तैयार करने की सख्त जरूरत है। इस बीच प्रधानमंत्री का किसानों की आय पांच साल में दुगुनी करने दावा विश्वास जगाता है। हालांकि हकीकत में देखें तो वर्तमान में 17 राज्यों में किसानों को औसतनसालाना आमदनी 20 हजार रु. मात्र है जो दोगुना होने पर भी केवल चालीस हजार यानी महीने के साढे चार हजार रुपए से भी कम बैठती हैं, इसके मुकाबले सरकारी दफ्तर के चपरासी का वेतन कई गुना अधिक होता है। इस साल के बजट में भी वित्तमंत्री ने इस दावे को दोहराते हुए किसानों के कर्ज के लिए दस लाख करोड़ का आवंटन किया जो पिछले साल से एक लाख करोड़ अधिक था मगर बैंकों की चालाकी देखिए कि पिछले साल कृषि ऋण के लिए आवंटित राशि का लगभग 75 फीसदी हिस्सा किसानों को न देकर एग्रीकल्चर सेक्टर में काम करने वाली कम्पनियों को दिया गया है। सरकारी नीतियां भी कॉरपोरेट फार्मिंग को बढ़ावा देने वाली नजर आती है ऐसे में किसानों की आय दुगुनी करने का दावा और 2019 तक एक करोड़ परिवारों को गरीबी से बाहर लाने के लक्ष्य पर भी सवाल खड़े होते हैं। सुरेन्द्रसिंह शेखावत लेखक राजनीति सामाजिक कार्यकर्ता