ममता की परीक्षा
रजनी कॉलेज में प्रथम वर्ष की छात्रा थी। बेहद खूबसूरत, गौरवर्णीय व
छरहरे कद काठी की स्वामिनी उन्नीस वर्षीया रजनी खुद को किसी फिल्मी
हीरोइन से कम नहीं समझती थी।
पढ़ाई में भी वह अव्वल थी ही सो उसके
इर्दगिर सहेलियों की संख्या भी पर्याप्त रहती थी।
रईस बाप की इकलौती
संतान होने की वजह से उसे सहेलियों पर अपना प्रभाव जमाये रखने के
लिए किसी विषेश प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। कॉलेज की
कैंटीन में अक्सर उसकी तरफ से पार्टी का आयोजन होता जिसमें वह वहाँ
मौजूद सभी छात्रों का बिल खुद ही भरती थी।
ऐसे ही एक दिन रजनी कॉलेज की कैंटीन में सभी छात्रों का बिल दे ही रही
थी कि एक अंतिम वर्ष का छात्र अमर उठकर काउंटर पर पहुँच गया और
अपनी बिल के पैसे देने लगा।
रजनी की सहेली निशा ने उसे समझाया, "अरे
रख भी लो अपने पैसे! कहीं और काम आ जाएँगे। आज तो रजनी की
पार्टी है।
सबके बिल वही पे करनेवाली है।"
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद निशा जी, लेकिन इसका क्या करूँ कि मुझे
किसी की पार्टी में बिना बुलाये शामिल होना गवारा नहीं और इस तरह से
किसी का कुछ खाने की इजाजत मेरा जमीर मुझे नहीं देता।
सॉरी निशा जी
!" कहकर अमर काउंटर पर अपना बिल चुकाकर चलता बना। उसने एक
बार पलटकर भी रजनी और निशा की तरफ नहीं देखा।
इस घटना ने रजनी के गुरूर को काफी ठेस पहुंचाई, सो अमर उसके
दिलोदिमाग पर छा गया था।
साधारण कपड़ों में लिपटा रहनेवाला अमर पढ़ने में होशियार था। कॉलेज में
पिता की रईसी पर मजा करनेवाले छात्रों की भीड़ से खुद को बचाये हुए
अमर की किसी से गहरी दोस्ती नहीं थी। लेक्चर्स अटेंड करना और लाइब्रेरी
में समय बिताने के अलावा वह कभी कभार अकेले ही कैंटीन वगैरह में भी
दिख जाता था।
कॉलेज की लॉबी में कई बार रजनी का अमर से आमना सामना हुआ
लेकिन हर बार उसकी तरफ देखे बिना अमर उसको नजरअंदाज कर यूँ
गुजर जाता जैसे उसको जानता ही न हो। उसका यह रवैया रजनी के गुमान
को ठेस पहुँचाने के लिए काफी था। कॉलेज में कई मनचले लड़कों की आहें
सुनने की अभ्यस्त रजनी को अमर की यह बेरुखी भीतर तक झिंझोड़ देती ।
'उसके एक ईशारे पर बिछ जानेवाले लड़कों के बीच यह अमर किस मिट्टी
का बना हुआ है जो उसकी तरफ देखना भी गवारा नहीं करता ?' वह अमर
के बारे में जितना सोचती वह खुद को उसके और करीब महसूस करती।
अब तो दिन भर उसके ख्यालों में रहनेवाला अमर रात उसके सपनों में भी
दस्तक देने लगा था। सपने में ही सही वह अमर से बातें करके खुश हो
जाती, उसका मन मयूर खिल उठता।
धीरे धीरे यूँ ही दिन बीतते रहे। कॉलेज के प्रथम सत्र की पढ़ाई पूरी हो चुकी
थी।
दिवाली की छुट्टियाँ घोषित हो चुकी थीं। रजनी जैसे ही लाइब्रेरी के
सामने पहुँची, उसे लाइब्रेरी से निकलता हुआ अमर दिख गया। संयोगवश
आसपास कोई नहीं था। रजनी बाहर कॉलेज लॉबी में ही रुक गई।
हमेशा
की तरह अमर अपने आप में ही खोया हुआ सा रजनी की तरफ देखे बिना
उसके करीब से गुजर ही रहा था कि अचानक रजनी के होंठ कंपकँपाये,
"अमर जी... जरा एक मिनट रुकिएगा प्लीज !"
उसकी आवाज सुनकर अमर के कदम मानो जमीन से चिपक गए हों।
अपनी जगह पर खड़े खड़े ही उसने घूम कर रजनी की तरफ देखा। आज
शायद उसने पहली बार रजनी के रूप और यौवन का दिदार किया था।
शुभ्र
धवल टॉप के साथ नीले स्कर्ट में रजनी बला की खूबसूरत लग रही थी।
अमर ने पहली बार रजनी की रईसी के साथ तड़क भड़क से परे उसकी
सादगी का भी दिदार किया था। मंत्रमुग्ध सा वह रजनी की तरफ देखता रहा
कुछ पल और फिर नजरें झुकाकर धीमी आवाज में बोल पड़ा, "जी कहिये !
कुछ काम था मुझसे ?"
अब आगे क्या कहे रजनी को कुछ सूझ नहीं रहा था। उसकी घबराहट
देखकर अमर के चेहरे पर मुस्कान उभर आई।
झेंपते हुए रजनी ने अमर से नजरें चुराते हुए कहा, "क्या मुझे आपका
मोबाइल नंबर मिल सकता है, प्लीज ?"
क्यों भला ? इसकी क्या जरूरत है ?" बेरुखी दर्शाते हुए भी अमर के चेहरे
पर गहरी मुस्कान खिल उठी थी।
"वो क्या है न कि मैं मैथ्स में थोड़ी वीक हूँ। कोई प्रॉब्लम समझ में नहीं
आया तो आपको तकलीफ दे सकती हूँ न ?" उसकी आँखों में झाँकते हुए
रजनी भी मुस्कुराई थी।
'हाँ हाँ! क्यों नहीं? यू आर ऑलवेज वेलकम मिस
शायद उसका नाम याद करने की कोशिश करने लगा।
!" कहते हुए अमर
"रजनी !... रजनी नाम है मेरा..!" बताते हुए रजनी मुस्कुराई थी। अमर द्वारा
बताया गया नंबर अपने फोन में सहेजते हुए उसकी मुस्कान और गहरी हो
गई थी। नंबर सहेजकर शहद सी मीठी उसकी आवाज एक बार फिर गूँजी,
"बहुत बहुत शुक्रिया आपका अमर जी !"
चेहरे पर बनावटी मुस्कान बिखेरते हुए अमर बोला, "अरे इसमें शुक्रिया की
क्या बात है? मुझे आपकी मदद करके खुशी होगी। आप कभी भी बेहिचक
मैथ्स का कोई भी प्रॉब्लम मुझसे पूछिये... I will try to solve it."
और फिर अमर उसकी ओर देखे बिना ही बढ़ गया था आगे।
इधर लाइब्रेरी में बैठी रजनी के सामने किताब खुली हुई थी लेकिन उसकी
नजरों के सामने किताब के पन्ने नहीं अपितु अमर का मुखड़ा बार बार उभर
रहा था। लंबी कदकाठी, मजबूत जिस्म के साथ ही सुदर्शन चेहरा और
सबसे ऊपर उसका शालीनता भरा व्यवहार रजनी के दिल को घायल कर
गया था।
उसने पहले ही मन बना लिया था कि आज वह उससे मिलते ही
अपने दिल का हाल जरूर कह देगी, लेकिन उसे सामने देखकर वह अपना
संतुलन खो बैठी थी और हड़बड़ाहट में उससे उसका फोन नंबर माँग बैठी
थी।
अचानक उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी, 'अरी बावली! अब क्या फिकर
है ? पुरानी फिल्में नहीं देखी क्या ? जब हीरोइन या हीरो अपने प्यार का
इजहार चिट्ठियाँ लिखकर किया करते थे और कोई छोटा बच्चा उनके बीच
मध्यस्थ का काम करता था... और फिर उनके प्यार की कहानी आगे बढ़ती
जाती और फिर हैप्पी एंडिंग ! माना कि आज चिट्ठियों का जमाना नहीं है,
लेकिन ईमेल तो लिख ही सकते हैं न! चलो ठीक है ईमेल ठीक से नहीं
मालूम तो व्हाट्सएप किस दिन काम आएगा? आज के युग में व्हाट्सएप
और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का इतना बड़ा मंच तो बना ही है हम
जैसे युवाओं के लिए और हम किसी भी तरह से इसका फायदा उठा सकते
हैं। सामने कहने में संकोच भले हो इसके जरिये तो कह ही सकते हैं अपने
मन की बात ! नहीं माना तो भी कोई बात नहीं, ज्यादा से ज्यादा अनफ्रेंड
कर देगा या ब्लॉक कर देगा। अब चाहे जो हो उसने अपना फोन नंबर देकर
मुझे बात करने का जरिया तो दे ही दिया है। देखें। आजमाने में हर्ज ही क्या
है ?'
क्रमश:
और फिर क्या था ? रजनी ने अपनी योजना को अमली जामा पहनाना शुरू
कर दिया। अमर लाख संस्कारी सही लेकिन रजनी के रूप यौवन से कब
तक गाफिल रहता ? आखिर एक बार फिर कोई अप्सरा किसी ऋषि मुनी
की तपस्या भंग करने में सफल हुई थी। रजनी के इशारों में छिपे आमंत्रण से
अमर अनजान न था और फिर एक दिन दोनों मिले। दिल की बातें कीं,
अपने अपने प्यार का इजहार किया और फिर एक दूसरे में खोए ख्वाबों के
हसीन रथ पर सवार दोनों प्रेमनगर की डगर पर अपनी मंजिल की ओर
अग्रसर हो गए।
हालाँकि पहले तो अमर ने रजनी को हकीकत से वाकिफ कराने की भरपूर
कोशिश की, अपनी गरीबी का वास्ता दिया, माँ बाप की नाराजगी का डर
भी दिखाया लेकिन रजनी ने तो जैसे ठान ही लिया था कि उसे किसी भी
हाल में अमर का प्यार पाना है सो उसने अमर के सामने स्पष्ट कर दिया कि
वह शादी करेगी तो उससे ही वर्ना किसीसे नहीं करेगी। आग और फूस जब
साथ हों, तो आग तो लगना स्वाभाविक ही था। दोनों के दिलों में प्यार की
ज्वाला समान रूप से धधकने लगी थी। दोनों गाहेबगाहे एक दूसरे से मिलने
के बहाने ढूँढने लगे।
समय गुजरता रहा। छुप छुप कर मिलने वाले दोनों युवा प्रेमी अब अक्सर
साथ साथ ही आते जाते देखे जाने लगे। क्लास बंक करने का मौका मिलते
ही शहर से बाहर एकांत निर्जन में दोनों एक दूसरे में खोए घंटों बैठे रहते।
ऐसे ही किसी नाजुक समय में दोनों एक भूल कर बैठे जिसे सबसे बड़ी भूल
भी कहा जा सकता है। दोनों के कदम बहके और सामाजिक मर्यादा को
तार तार करते हुए दो जिस्म एक जान हो गए।
दोनों युवा प्रेमियों के आकंठ प्रेम में डूबे रहने का पढ़ाई पर फर्क तो पड़ना
ही था। वार्षिक परीक्षाएँ सम्पन्न हुई। नतीजे घोषित हुए तो हमेशा विशेष
नंबरों से पास होनेवाला अमर किसी तरह प्रथम श्रेणी में पास हुआ था।
अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पाने की
उसकी योजना पर पानी फिर गया था। कॉलेज कैंपस में लगे रिक्रूटमेंट बोर्ड
के जरिये उसे एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिल तो गई लेकिन यह
उसके सपने के सामने कुछ भी नहीं था जो उसने खुद के भविष्य को लेकर
देखे थे।
रजनी भी उत्तीर्ण होकर दूसरे वर्ष में प्रवेश कर गई थी। कॉलेज शुरू हो गए
थे। अमर की पोस्टिंग उसी शहर में हुई थी। सो अमर व रजनी का मिलना
जुलना व समय मिलते ही घूमना फिरना पूर्ववत जारी रहा।
एक दिन झील किनारे बैठी रजनी अमर का हाथ अपने हाथों से कसकर
पकड़ते हुए बड़े प्यार से बोली, "अमर !"
"हाँ रज्जो !" अमर उसे प्यार से रज्जो ही पुकारता था।
"एक खुशखबरी है !"
"क्या ?... क्या तुम्हारे पापा हमारी शादी के लिए राजी हो गए ?"
"अरे नहीं ! उस दिन तो कोशिश की थी उनसे बात करने की, तुम्हारे बारे में
लेकिन नाराज हो गए थे। अब किसी दिन उनका अच्छा मूड देखकर फिर से
बात करूंगी।"
"फिर क्या खुशखबरी है ?"
"अमर !" आँखों में लाज के साथ ही शरारत भी नजर आ रही थी रजनी की।
अमर की आँखों में झाँकते हुए रजनी ने बड़ी अदा से उसका हाथ पकड़कर
अपने पेट पर रखते हुए कहा, मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ। ...देखो
!"
जैसे करंट छू गया हो अमर को झटके से उसके हाथों से अपना हाथ छुड़ाते
हुए अमर चौंक पड़ा और अनायास ही उसके मुँह से चीख निकल गई, 'क्या
? ये तुम क्या कह रही हो रज्जो ?"
उसकी बौखलाहट का आनंद लेती हुई रजनी शरारत से मुस्कुराते हुए
उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली, " बिल्कुल सच कह रही हूँ!.. तुम्हें खुशी
नहीं हुई ?"
"नहीं !" अमर ने उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा, मुझे तुम्हारी
चिंता हो रही है। अगर पापा हमारी शादी के लिए राजी नहीं हुए तो ?"
"वही तो!" रजनी के चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कुराहट तैर गई।
"तुम समझ नहीं रहे हो अमर !.. अब पापा को हर हाल में हमारी बात
माननी ही पड़ेगी। उनके पास दूसरा कोई चारा भी तो नहीं। अब ऐसी हालत
में दूसरा कौन करेगा उनकी इस लाडली बेटी से शादी ?" शरारती अंदाज में
रज्जो ने कुछ यूँ कहा कि अमर अनायास ही हँस पड़ा लेकिन अंतर्मन की
हलचल से उसके दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं। किसी अंजान आशंका से
वह बेचैन हो उठा और फिर कुछ देर बाद दोनों अपने अपने घर की तरफ
रवाना हो गए।
रास्ते भर रजनी के कहे वाक्य अमर के कानों में गूंजते रहे। उसे रजनी की
इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था। उसपर शादी के लिए दबाव बनाने के
लिए यह कहीं रजनी की चाल तो नहीं ?
रजनी ने अपने वादे के मुताबिक उसी दिन अपने पापा से दुबारा अपने मन
की बात कही और उन्हें अमर के बारे में बताया।
आश्चर्यजनक रूप से नाराज हुए बिना उसके पापा चेहरे पर मुस्कान व
वाणी में कोमलता लाते हुए बोल पड़े, "कोई बात नहीं बेटा ! तुम जो कहोगी
वही होगा। ..लेकिन एक बार उससे मिल तो लूँ। .. देखूँ तो कौन है वो
खुशनसीब, जिसके लिए हमारी बिटिया रानी खुद सिफारिश कर रही है ?"
उन्होंने शायद थोड़ी देर पहले रजनी के चेहरे पर उभरे विद्रोह के लक्षणों को
पढ़ लिया था और अनुभवों में मास्टरी हासिल उसके पापा सेठ जमनादास
ने बड़ी खूबी से बात को संभाल लिया था।
जमनादास की बातें सुनते ही रजनी चहक पड़ी, 'कोई बात नहीं पापा ! मैं
कल ही उन्हें बुला लेती हूँ। उनसे मिलकर आप इंकार नहीं कर पाएँगे।"
रजनी के चेहरे पर छलक आई खुशी व आत्मविश्वास को पढ़ने का प्रयास
करते हुए सेठ जमनादास प्यार से बोले, "बेटी.. यह तुम्हारी जिंदगी का
सवाल है। मैं अपनी तरह से उसकी परीक्षा लेना चाहूँगा। यदि वह पास हो
गया तो तुम्हारा
नहीं तो
जानबूझकर जमनादास ने अपनी बात
अधूरी छोड़ दी थी।
|"
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खुशी से चहकते हुए रजनी बोली, "कोई बात नहीं पापा ! आप जैसे भी चाहें
अमर को परख लें। मुझे पूरा यकीन है वह हर परीक्षा में खरे उतरेंगे।"
कहने के बाद रजनी ने अमर के घर व दफ्तर दोनों का पता भी बता दिया।
शाम का धुँधलका फैलने लगा था। अमर दफ्तर से निकलकर तेज कदमों से
बस स्टॉप की तरफ बढ़ रहा था कि तभी एक आदमी ने उसे रुकने का
इशारा किया। उसने सवालिया निगाहों से उस अंजान इंसान की तरफ
देखा। उसके नजदीक आते हुए उस आदमी ने उससे पूछा, "आप का नाम
अमर है न ?"
"हाँ ! मेरा नाम अमर है। क्या बात है ?" अमर ने उसे बताया।
"वो सामने कार में हमारे सेठ श्री जमनादास जी बैठे हैं। आपसे मिलना
चाहते हैं।.. चलिए !" अब वह सीधे मुद्दे पर आ गया था।
अमर का जी चाहा कि कह दे उस इंसान से कि सेठ होंगे तुम्हारे । मैं क्यों
सुनूं उनकी ? लेकिन फिर रजनी का ख्याल करके वह उसके पीछे चल पड़ा
उस कार की तरफ जिसमें सेठ जमनादास पीछे की सीट पर आराम से बैठे,
बैठे क्या एक तरह से पसरे हुए थे।
खिड़की से झाँकते हुए अमर ने उनका अभिवादन किया। एक नजर उसकी
तरफ देखने के बाद जमनादास जी ने बगल में रखी अटैची की तरफ हाथ
बढ़ाया और रूखे स्वर में अमर से पूछा, "तो तुम अमर हो ?"
जी!" अमर ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया।
दरवाजा खोलकर उसे कार के अंदर आने का ईशारा करते हुए जमनादास
जी ने अटैची उसकी तरफ बढ़ाया। अमर अभी भी असमंजस में बाहर ही
खड़ा था। सेठ जमनादास ने एक तरह से अटैची बाहर खड़े अमर के हाथों
में जबरदस्ती थमा दिया। सवालिया नजरों से जमनादास जी की तरफ
देखते हुए अमर ने अनजाने ही वह अटैची थाम लिया और यही वो पल था
जब किसी कैमरे के फ्लैश चमके। जमनादास जी के हाथों से अटैची थामते
हुए अमर की तस्वीर किसी कैमरे में कैद हो गई थी, लेकिन यह जानकर भी
अमर जरा भी विचलित नहीं दिख रहा था।
जमनादास जी सीधे मुद्दे पर आ गए। अटैची उसे थमाने के बाद उसे देखते
हुए मुस्कुराए और बोले, "इसमें पचास लाख रुपये हैं। मैं समझता हूँ यह तुम
जैसों के लिए काफी है। पूरी जिंदगी गुजर जाएगी लेकिन यह दो कौड़ी की
नौकरी करके इतने पैसे एक साथ नहीं देख पाओगे।"
अमर कुछ कहने जा ही रहा था कि इशारे से उसे खामोश करते हुए
जमनादास जी बोले, "मैं जानता हूँ तुम यही कहोगे न.. मेरा प्यार सच्चा है,
पैसों के आगे मैं नहीं झुकनेवाला वगैरा वगैरा ...! लेकिन दिल को
निकालकर जेब में रख लो और ठंडे दिमाग से सोचो। हाथ आती लक्ष्मी को
ठुकराना क्या समझदारी है ? नहीं न ! तो फिर एक बात और सोच लेना
इंकार करने से पहले, ..कि जो इंसान पहली ही बार तुम्हारी शक्ल देखकर
इतनी बड़ी रकम दे सकता है वह कुछ भी करा सकता है। पैसे में बड़ी
ताकत होती है यह यूँ ही तो नहीं कहा जाता न ? इसमें से मामूली रकम
निकालकर किसी गुंडे को दे दिया जाय तो तुम्हारा पता भी नहीं चलेगा।"
कहने के बाद जमनादास जी ने अमर की तरफ देखा मानो उसके चेहरे पर
अपनी धमकी का असर खोज रहे हों।
और अमर तो जैसे चिकना घड़ा बन गया था। कोई भी असर उसके चेहरे
पर नहीं दिख रहा था। भावशून्य चेहरे पर जबरदस्ती की मुस्कुराहट बिखेरते
हुए उसने मुँह खोला, " सेठ जी! मैं आपकी तड़प को समझ सकता हूँ। एक
बेटी जब बाप से बगावत करने पर आमादा हो जाए तो बाप के दिल पर
क्या बीतती है समझ सकता हूँ। मेरे पड़ोस के लाला हरखचंद ने तो
आत्महत्या कर ली थी जब उनकी लड़की उनके ही ड्राइवर अशोक से शादी
करके उसके घर रहने चली गई थी। .....लेकिन आप निश्चिंत रहिए। मैं
आपके ऊपर आत्महत्या करने की नौबत नहीं आने दूँगा। मैं आपकी लड़की
से भागकर शादी नहीं करने वाला क्योंकि मैं रजनी से सच्चा प्यार करता हूँ,
और प्यार सिर्फ पाने का ही नाम नहीं है। प्यार का मतलब त्याग और
बलिदान भी होता है। मैं उसे हर हाल में खुश देखना चाहता हूँ और मुझे
अच्छी तरह पता है कि मैं उसे वह जिंदगी नहीं दे सकता जिस की वह
अभ्यस्त है। मैं तो खुद ही सोच रहा था कि उसे कैसे समझाऊँ ? मेरी
मुश्किल आपने आसान कर दी। मुझे आपकी यह रकम नहीं चाहिए। मैं
सचमुच उससे प्रेम करता हूँ सिर्फ तन से नहीं, मन से उसे चाहता हूँ और
इसीलिए नहीं चाहता कि उसकी शादी मुझसे हो । मेरे पास उसे क्या मिलेगा
? दो वक्त की रोटी तो शायद उसे मिल भी जाये लेकिन जिन सुख
सुविधाओं की उसे आदत है मैं वह उसे कैसे दे पाऊँगा ? आप ये पैसे रख
लीजिए सेठ जी ! आपका बहुत अहसान होगा मुझपर। ये पैसे लेकर मैं
अपनी खुद्दारी का सौदा नहीं कर सकता। आज आपकी मदद से बहुत बड़ा
बोझ मेरे सिर से उतर गया है सेठ जी! बस एक काम कीजिये। मुझे सिर्फ
दो दिन का वक्त दे दीजिये। अगले दो दिनों में ही मैं किसी दूसरे शहर में
अपना ट्रांसफर करा लूँगा और फिर हमेशा हमेशा के लिए यह शहर
छोड़कर अपनी रज्जो की जिंदगी से दूर चला जाऊँगा। बस दो दिन की बात
है सेठ जी। आप उसको किसी बात की भनक नहीं लगने देना और फिर दो
दिन बाद उसे बता देना कि अमर ने शादी के लिए साफ इंकार कर दिया है।
उसका दिल टूट जाएगा, रोयेगी, गिड़गिड़ायेगी, मुझे बुरा भला भी कहेगी
लेकिन आखिर में बेवफा समझ कर मुझे भूल जाएगी। वक्त सबसे बड़ा
मरहम है। बड़े से बड़ा घाव भी भर देता है। उसे भी फिर से हँसते मुस्कुराते
हुए जीना शुरू करने में ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, और फिर एक दिन आपकी
वही हँसती खेलती रजनी आपको वापस मिल जाएगी। बड़ी धूमधाम से
उसकी शादी करना।" कहते हुए अमर की आँखें भर आई थीं। आँखें तो सेठ
जमनादास की भी भर आईं थीं लेकिन वह मजबूर थे उसे अपने काले चश्मे
के पीछे छिपाने के लिए। उनकी बेटी का भविष्य जो दाँव पर लगा था।
तभी सेठ जमनादास ने अपने ड्राइवर श्याम की तरफ देखा जो अपना
मोबाइल जल्दी जल्दी अपनी जेब में रख रहा था।
सेठ जमनादास से भी ज्यादा कुछ कहा नहीं गया। गला भर आया था
उनका भी सो अमर को दो उँगलियाँ दिखाकर दो दिन में शहर छोड़कर चले
जाने का ईशारा किया और ड्राइवर श्याम की तरफ देखा। श्याम शायद
उनका इशारा समझ चुका था। अगले ही पल गाड़ी आगे बढ़ी और शहर की
अनगिनत गाड़ियों की भीड़ में कहीं खो सी गई।
अमर वहीं खड़ा एकटक जाती हुई गाड़ी को देर तक देखता रहा। गाड़ी के
नजरों से ओझल होते ही अमर के सब्र का बाँध टूट पड़ा और वहीं करीब ही
फुटपाथ पर बैठ गया। आँसुओं की धार उसके चेहरे को भिगोए जा रही थी।
उसका मन कर रहा था कि वह दहाड़ें मारकर रोये। तभी उसके अवचेतन
मन ने सरगोशी किया 'क्या हुआ अमर ? अब क्यों रोना आ रहा है ? अपने
हाथों से अपनी दुनिया उजाड़ कर अब रो क्यों रहे हो ? अगर तुमने जरा भी
समझदारी दिखाई होती तो आज रजनी तुम्हारी होती! क्या हुआ जो उसका
बाप इस शादी के खिलाफ था ? प्रेमियों ने कब ऐसी अड़चनों के सामने हार
मानी है ? लेकिन तुमने तो मुकाबला ही नहीं किया ? डर गए हालात का
सामना किये बिना ही । कायर जो ठहरे ?'
अर्धविक्षिप्तों सी हालत हो गई थी अमर की। सिर के बाल नोंचते हुए
पागलों के अंदाज में बड़बड़ा उठा, "हाँ! हाँ! मैं पागल ही हूँ!" फिर खुद को
सँभालते हुए वह खुद ही अवचेतन मन द्वारा उठाये गए सवालों का जवाब
तलाशने की कोशिश करने लगा। उसका दिल तो कह रहा था वह जोर से
चीखे और अपने अवचेतन मन को जवाब दे कि ' हाँ! अपने हाथों से अपनी
दुनिया उजाड़ने का दोषी हूँ मैं, लेकिन यह सिर्फ तुम्हारी सोच है। तुम क्या
जानो प्यार क्या होता है ? प्यार सिर्फ पाने का ही नाम है ? ..नहीं! प्यार
त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है। प्यार में कुछ खोने का मजा तुम क्या
जानो ? आज सब कुछ खोकर भी मैं खुश हूँ। मुझे खुशी है कि अब मेरा
प्यार मेरे साथ रहकर रोज रोज मेरी तरह गरीबी और मुफलिसी की मौत
नहीं मरेगी बल्कि वह जहाँ भी रहेगी खुश रहेगी। वह जिस जीवन की
अभ्यस्त है उसे वही जीवन मैं तो दे नहीं सकता फिर उसकी खुशियों को
ग्रहण लगाने वाला मैं कौन हूँ ?'
तभी उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसका अवचेतन मन अठ्ठाहस कर रहा हो
'अपनी कायरता को त्याग का नाम मत दो अमर ! तुम्हें क्या लगता है ? तुम
तो शायद रजनी के बिना जी भी लो लेकिन क्या रजनी तुम्हारे बिना जी
सकेगी ? और फिर क्या रजनी ने तुमसे कभी शिकायत की थी या कोई तंज
कसा था तुम्हारी गरीबी को लेकर ? फिर तुमने यह कैसे फैसला कर लिया
कि उसे तुमसे नहीं तुम्हारी सुख सुविधाओं से प्यार था ? प्यार वो अनमोल
तोहफा है जिसके सहारे इंसान जमाने की सभी मुसीबतों से मुकाबला कर
लेता है, और फिर तुमने वो गीत तो सुना ही होगा सौ बरस की जिंदगी से
अच्छे हैं.. प्यार के दो चार दिन.......! लेकिन तुम्हें तो उससे शायद प्यार ही
नहीं था कभी! तुम्हें तो यह भी ध्यान नहीं होगा कि वह तुम्हारे बच्चे की माँ
बनने वाली है।'
यह विचार आते ही अमर वहीं बैठकर घुटनों में मुँह छिपाकर अपनी बेबसी
पर रो पड़ा।
घुटनों में मुँह छिपाए अमर बड़ी देर तक सिसकता रहा। बड़ी देर तक उसके
कानों में रजनी की आवाज गूँजती रही, 'अमर ! मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने
वाली हूँ।'
अमर को ऐसा लग रहा था जैसे उसका सिर फट जाएगा। दोनों हाथों से
जोर से अपने सिर को दबाए हुए वह चीख पड़ा, "नहीं! ऐसा नहीं हो सकता
!"
सड़क से गुजर रहे राहगीरों ने ठिठक कर उसकी तरफ देखा और फिर उसे
से
रोते हुए देखकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए। अमर जानता था यहाँ उसे
कोई रोकने टोकने वाला नहीं था। किसे फुर्सत थी जो उसका हालचाल
पूछता ? अतः वह जी भर रोकर अपनी रज्जो से बिछड़ने का मातम मना
लेना चाहता था। उसने सुन रखा था कि रोने से दुःख कुछ कम हो जाते हैं।
सूर्य दिनभर की अपनी दिनचर्या पूरी कर अस्ताचल की तरफ अग्रसर थे।
आसमान में अब इक्का दुक्का पंछी भी नजदीक के बगीचे की तरफ बढ़ रहे
थे, शायद बगीचे में स्थित विशाल वृक्षों में ही उनका आशियाना हो ।
जनसागर का विशाल रेला अपनी मंजिल की ओर बढ़ा जा रहा था। बसें,
टेंपो, ऑटो व अन्य सवारियाँ अपनी क्षमता से अधिक मुसाफिरों को अपने
गंतव्य तक जल्दी पहुँचाने के जद्दोजहद में एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़
लगाए हुए थीं।
धुँधलका घिरने लगा था। अपने आपको सँभालते हुए अमर किसी तरह से
उठा और फिर अचानक बैठ गया। उसे ऐसा लगा जैसे उसके पैरों में कोई
जान ही न हो। कुछ देर बाद पूरी शक्ति समेटकर वह उठा और लड़खड़ाते
कदमों से बस स्टॉप की तरफ बढ़ने लगा।
शहर से बाहर के हिस्से में बने अनधिकृत कालोनियों में अपने किराये के
मकान तक जब तक अमर पहुँचता रात के आठ बज चुके थे। मुख्य सड़क
पर बस से उतर कर अमर चल पड़ा अपने मकान की ओर जो सड़क से
लगभग एक फर्लांग दूर बनी एक अनधिकृत दोमंजिला भवन में था।
सड़क पर घोर अँधेरे का साम्राज्य व्याप्त था। ऊबड़खाबड़ सड़क पर खड्डों
से बचता बचाता अमर अपने घर की तरफ बढ़ रहा था कि एक खड्डे में पड़े
पत्थर पर से फिसलते हुए अमर खुद को संभाल न सका और गिर पड़ा।
उसका सिर किसी धारदार पत्थर से टकरा गया था। खून की धार बहने
लगी। जेब से रुमाल निकालकर अमर ने कसकर घाव पर बाँध लिया। माथे
के अलावा उसकी हथेलियों व कोहनियों पर भी चोट लगी थी।
लापरवाही न करते हुए अमर ने तुरंत उसी मोहल्ले के एक झोला छाप
डॉक्टर से मरहम पट्टी करवा ली। माथे पर बँधी पट्टी के नीचे घाव पर लगी
हुई लाल दवाई यूँ लग रही थी जैसे रक्त का प्रवाह अभी फूटने ही वाला हो।
अपने कमरे में चारपाई पर लेटे उसके विचारों का प्रवाह रजनी व अपने
भविष्य के साथ ही अब अपनी चोटों पर भी केंद्रित हो चुका था।
हमेशा की तरह अमर तैयार होकर सुबह दफ्तर के लिए निकलने ही वाला
था कि तभी घर के नजदीक जानी पहचानी कार के हॉर्न की आवाज
सुनकर उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं।
जल्दी जल्दी घर का दरवाजा बंद करके अमर गली से बाहर उस पतली सी
सड़क पर आ गया जहाँ कार में बैठी रजनी बेकरारी से उसका इंतजार कर
रही थी।
अमर को देखते ही रजनी के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गई।
दरअसल उसकी नजर अमर के सिर पर बँधी पट्टी पर पड़ गई थी। दवाई
की अधिकता से उसे लगा जैसे अमर को बहुत गहरी चोट लगी हो । फुर्ती से
कार से बाहर निकलकर रजनी अमर की तरफ बढ़ी और अमर का हाथ
अपने हाथों में लेते हुए उसे उलाहना दिया, ये क्या हुआ अमर ? ये चोट
कैसे लगी ? कब लगी ? और मुझे बताया भी नहीं ?"
"अरे चोट ज्यादा नहीं लगी है रज्जो ! तुम चिंता न करो, सब ठीक हो
जाएगा।" बेहद शांत स्वर में अमर ने समझाना चाहा।
"कैसे चिंता न करूँ ? देखो तो कितना खून निकल रहा है और कह रहे हो
थोड़ा ही लगा है।" रजनी चिंता व्यक्त करते हुए बोली
अमर कार में दूसरी तरफ से बैठते हुए बोला, " अब चलो रज्जो! नहीं तो देर
हो जाएगी।" रजनी से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी अमर की,
फिर भी वह यथासंभव खुद को संयत दिखाने का भरपूर प्रयास कर रहा
था। लेकिन कहते हैं न चेहरा मन के भावों की चुगली कर ही देता है। कार
चलाते हुए रजनी भी अमर के बदले हुए व्यवहार की वजह समझने की
कोशिश कर रही थी लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
बस्ती से बाहर मुख्य सड़क पर आते ही रजनी ने बातों का क्रम फिर से शुरू
किया, " अमर !"
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"हूं, बोलो न रज्जो, क्या कहना चाहती हो ?
"आज से तुम इस बस्ती में नहीं रहोगे । "
"क्यों ?"
"क्योंकि मैं कह रही हूँ!" कहते हुए रजनी ने शरारत से मुस्कुराते हुए अमर
की तरफ देखा, लेकिन अमर का ध्यान तो जैसे कहीं और ही था। तड़प सी
गई रजनी अमर की बेरुखी को महसूस करके लेकिन वह सोच रही थी
'आखिर क्या वजह होगी अमर के इस रूखे व्यवहार के पीछे ? कहीं पापा
ने तो कुछ नहीं कहा ? चलो पूछ ही लेते हैं।'
"अमर ! " रजनी फिर से उसे कुरेदते हुए बोली।
"कहो!"
"मैंने दो दिन पहले ही पापा से बात की थी तुम्हारे बारे में, लेकिन
जानबूझकर तुम्हें नहीं बताया था। सोचा था मिलकर तुम्हें खुद ही सरप्राइज
दूँगी।" कहते हुए रजनी की सोच यह थी कि यह खबर सुनते ही अमर खुशी
से उछल पड़ेगा, लेकिन उसकी उम्मीद के विपरीत अमर निर्विकार सा बैठा
रहा और फिर धीरे से बोला, " क्या कहा पापा ने ?" कहते हुए अमर खिड़की
से बाहर की तरफ देख रहा था।
अनजानी आशंका से रजनी का हृदय जोरों से धड़क उठा। अमर के बेरुखी
की वजह वह समझ नहीं पा रही थी। जब से वह अमर को जानती थी उसे
इतना गंभीर कभी नहीं देखी थी।
'पापा ने कहा है बहुत जल्दी तुमसे मिलेंगे। वो तो कह रहे थे कि मैं अपनी
तरह से अमर की परीक्षा लूँगा, लेकिन मुझे मालूम है कि वो ऐसा सिर्फ कह
रहे हैं। उनका दिल बहुत अच्छा है। उन्हें भरोसा है मेरी समझ पर तुम्हें
देखते ही अपना आशीर्वाद दे देंगे।" कहते हुए रजनी ने कार सड़क के
किनारे रोक दी थी।
दरअसल अब रजनी का कॉलेज सामने ही था और सड़क किनारे वह बस
स्टॉप भी जहाँ से अमर को अपने दफ्तर के लिए बस आसानी से मिल
जानेवाली थी। जब से अमर काम पर जाने लगा था अक्सर इसी तरह रजनी
उसे लेने ठीक समय पर उसकी बस्ती में उसके घर तक पहुँच जाती और
फिर यहीं बस स्टॉप के नजदीक अमर को छोड़कर अपने कॉलेज चली
जाती। अमर का दफ्तर यहाँ से बहुत दूर था सो बस ही एकमात्र विकल्प था
अमर के लिए।
कार से बाहर निकलते हुए वह धीरे से बोला, "ठीक है.... देखते हैं तुम्हारे
पापा कब मिलते हैं, और क्या परीक्षा लेते हैं।" अमर के कार से नीचे उतरते
ही रजनी ने उसे देखकर बाय कहा और फिर कार आगे बढ़ा दी।
रजनी की तरफ देखते हुए हाथ हिलाया अमर ने और फिर उसके जेहन में
उसकी कही बात गूंजने लगी मैं अपनी तरह से अमर की परीक्षा लूँगा तो
कहीं सेठ जमनादास की वह धमकी बनावटी तो नहीं ?.. क्या पता पैसे का
लालच देकर परखने की कोशिश कर रहे हों ? क्या वह बातचीत उनके द्वारा
लिए जा रहे परीक्षा का एक हिस्सा मात्र थी या कोई वास्तविकता ?' अमर
इन्हीं विचारों में खोया हुआ कुछ भी निर्णय नहीं कर पाया था कि तभी बस
स्टॉप पर खड़े यात्रियों का शोर सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई। बस आ चुकी
थी। लपक कर अमर बस में सवार हो गया।
अमर से विदा लेकर आगे बढ़ रही रजनी की आँखों के सामने अमर का वह
उदास मगर रूखापन लिए हुए चेहरा बार बार नजर आ रहा था।
बहुत
सोचने के बाद भी उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि अचानक ऐसा
क्या हो गया था !
क्रमश: