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मारवाड़ियों का ‘टिम्बरर्गनामा’

7 मार्च 2019

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हिन्दुस्तान के औद्योगिक विकास में जिन घरानों ने एक समय सब से ज्यादा योगदान किया था और जिनकी गिनती आज भी इस उपमहाद्वीप के सबसे पटु उद्योगपतियों में की जाती है वे बहुत बड़े उद्योग-धंधों के सिरमौर, और कोई नहीं, बल्कि प्रायः सीमित पूंजी से कारोबार शुरू करने वाले राजस्थान के दूर दराज़ के छोटे 2 कस्बों से निकल कर महानगरों और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों तक छा गए मारवाड़ी ही हैं ! अपनी लगन, दूरदर्शिता, व्यावसायिक चतुराई और सौभाग्य- सब के चलते आज बिरला, गोयनका, मित्तल, कानोडिया, सोढानी, बजाज, मंडालिया, पोद्दार, सोमानी, मोदी, गोयनका, खेतान, मोरारका, जालान, हंसारिया, झुनझुनवाला आदि आदि महज़ सरनाम या व्यक्ति नहीं- अपने आप में संस्थाएं हैं- जो अगर देश के सब से बड़े उद्योगपति घरानों में गिने जाते रहे हैं तो शिक्षा और समाज-कार्य में भी जिनका योगदान कमतर नहीं! पानी की कमी वाले राजस्थान के शेखावाटी अंचल ने देश को सिर्फ करोड़पति व्यवसायी घराने ही नहीं दिए, यहाँ भारतीय सेना के सबसे शूरवीर भी जन्मे हैं, जिन के साहस, शौर्य और वीरता की यश-गाथाएं इतिहास के पन्नों में जिंदा हैं ! शेखावाटी अंचल अगर अपनी अनगिनत कलात्मक और बहुचित्रित हवेलियों के लिए पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है तो यहाँ की भूमि विद्यानुरागियों और कई लेखकों की सर्जनात्मकता के लिए भी बहुत उर्वर रही है और यही सब कारण हैं जिनके चलते शेखावाटी अंचल आर्थिक दृष्टि से राजस्थान प्रान्त के सब से समृद्ध, अनोखे और निराले सांस्कृतिक इलाको में अग्रगण्य है|

टॉमस ए. टिम्बर्ग की पहली और बहुचर्चित किताब, जो मारवाड़ियों के समाजशास्त्रीय अध्ययन पर एकाग्र थी, कभी मैंने अपने कॉलेज के दिनों में पढ़ी थी | हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लिए किये गए अपने पीएच. डी. शोधकार्य में टिम्बर्ग ने यह पता लगाने की कोशिश की थी कि वे कौन से कारण थे जिनकी वजह से राजस्थान के मारवाड़ी परिवार शेखावाटी से निकले और देश-दुनिया के वाणिज्य-क्षितिज पर छा गए ? कोई तीन एक साल पहले पेंगुइनसे छपी इसी अध्यवसाई लेखक की एक और किताब- “द मारवाड़ीज़ : फ्रॉम जगन्नाथ सेठ टू बिड़लाज़” में टिम्बर्ग ने निष्कर्ष निकाला था कि पूँजी-निवेश के लिए सबसे उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान की योग्यता, उत्तरदायित्वों को योग्य और सब से काबिल हाथों में सोंपने की समझ, अपनी मातृभूमि के प्रति अनुराग रखते हुए भी उसे छोड़ कर व्यापार-विस्तार के लिए सुदूर अन्य भाषा-भाषी प्रान्तों में जा कर बस जाने, अपने प्रमुख कार्मिकों और मातहतों से यथासंभव सघन वैक्तिक सम्बन्ध विकसित करने, बदली हुई वैश्विक और देशज परिस्थितियों के अनुसार अपने वाणिज्य की दिशा को ठीक समय पर बदलने, नई हवाओं के प्रति अपने दिल और दिमाग की खिड़कियाँ खुली रखने, परिस्थितियों के अनुरूप अपनी परपरागत नीतियों को आमूलचूल बदल सकने, बड़े से बड़ा जोखिम उठा कर, आगे बढ़ कर नए व्यावसायिक क्षेत्रों की पहचान और पड़ताल करने और परिस्थिति-अनुकूल परंपरागत बनिया-बुद्धिका सर्वोत्तम-प्रदर्शन आदि आदि कारण इस बात के लिए ज़िम्मेदार हैं |

यूरोप के सबसे धनाढ्य और दुनिया के पांचवें सब से अमीर, स्टील-किंग कहे जाने वाले लक्ष्मीनिवास मित्तल (ज. 1950) राजस्थान के हैं, नंदकिशोर रुइया के पुत्रों- एस्सार ग्रुपके शशि और रवि रुइया की गिनती भारत के सबसे धनी 10 भारतीयों में है, ‘आदित्य-बिडलाग्रुप के कुमारमंगलम बिरला (1967) जैसे कई उद्योगपतियों- गौतम सिंघानिया (1965), किशोर बियानी (1961), अजय पीरामल( 1955), विष्णु हरि डालमिया (1924), राहुल बजाज (1938), सुनील मित्तल (1957) आदि का मूल, राजस्थान का वही प्रदेश है जिसे सदियों से पिछड़ा और अविकसित कहे जाने की गलतफहमी बड़ी लोकप्रिय रही है| इस सूची में पचासों नाम और भी हैं !

सीकर, झुंझनू, चुरू, पाली, बीकानेर, जालौर, नागौर जैसे अपेक्षाकृत “छोटेजिलों से निकले मारवाड़ी लोग महायुद्धों के दौर में अपने वतन को छोड़ कलकत्ते, बंबई, मद्रास, बंगलौर, गौहाटी जैसी जगहों पर बसे और देखते ही देखते अपने उन गुणों की वजह से देश के व्यापार-क्षितिज पर स्थापित हुए, जिनकी चर्चा टॉमस टिम्बर्ग जैसे समाजशास्त्रियों ने की है| इतिहास गवाह है कि राजस्थानी परंपरागत होते हुए भी घर-घुसाऊया होम-सिककभी नहीं थे| 16 वीं से 19 सदी के मुग़ल-काल में, खास तौर पर, अकबर के शासन-काल में मारवाड़ से अनेक राजस्थानी परिवारों ने अपना व्यापार और व्यवसाय जमाने के लिए घर को तिलांजलि दे कर बिहार, उडीसा, झारखण्ड, बंगाल, और दीगर प्रान्तों की तरफ रुख करने में कोई संकोच नहीं किया था ! बंगाल के नवाबों के शासन के दौरान मुर्शीदाबाद दरबार के सब से बड़े ओसवाल साहूकार बैंकर, जगन्नाथ सेठ का नाम कौन नहीं जानता- जिनकी परम्परा में आगे गोपालदास और बनारसीदास जैसे कई नामी बैंकर हुए| राजस्थान के मारवाड़ी अपने व्यापार को फैलाने के लिए देश के विविध प्रान्तों तक ही सीमित नहीं रहे, नेपाल के बीरगंज, बिराटनगर, काठमांडू तक भी उन्होंने अपनी जड़ें जमाईं और स्थानीय रीति-रिवाजों और लोगों की प्रकृति को समझा, वहां की प्रांतीय भाषाओँ को सीखा, और अपने प्रान्त के अलावा दूसरे इलाकों के जनजीवन में पूरी तरह घुल-मिल कर अपने जातीय-व्यक्तित्व के असाधारण लचीलेपन का परिचय दिया| सांस्कृतिक-समन्वय की ऐसी नैसर्गिक प्रवृत्ति बहुत कम जातियों में है, भले इसके पीछे मारवाड़ियों का एकमात्र 'आर्थिक-हित' ही परोक्षतः मुख्य कारण रहा हो! भले कुछ प्रान्तों में मारवाड़ी शब्द एक लालची व्यापारी के पर्यायवाची की तरह अवमानना से प्रयुक्त भले होता हो, अगर पचासों सालों से आज राजस्थान के औद्योगिक घराने देश की अर्थव्यवस्था के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं तो इसके पीछे और कुछ नहीं- उनकी तीक्ष्ण वाणिज्य-बुद्धि, जोखिम उठाने की हिम्मत, प्रतिस्पर्धा के बावजूद कड़ी मेहनत, विस्तारवादी-आकांक्षा और समय को पहचान कर आगे बढ़ने का आदमी संकल्प ही है!

-हेमंत शेष

टिप्पणी ‘दुनिया इन दिनों’ पाक्षिक के कोलकाता विशेषांक में प्रकाशित !

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