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" शापित किताब"

12 सितम्बर 2021

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"यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है। इसके सभी पात्र/ किरदार, जगह, व्यक्ति विशेष सभी काल्पनिक है अतः इसे आप मनोरंजन के उद्देश्य से पढ़िए। इस कहानी का वर्तमान में किसी से भी कोई संबंध नहीं है।
धन्यवाद।"

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"श्रीगढ़ राज्य का राजा मुझे बनना चहिए था लेकिन बना दिया गया मेरे सौतेले भाई को। राजसिंहासन पर उसे आरूढ़ कर दिया गया क्यों? क्योंकि मेरी बुद्धि उन्हें तुच्छ वस्तु जान पड़ती है। आखिर क्यों? मैं बड़ा हूं उससे फिर भी।" अंधेरे कक्ष में राजकुमार निरुत्तर एक तस्वीर को हाथ में ले कर बडबडा रहे हैं।
श्रीगढ़ राज्य , एक गरिमामय भव्य राजप्रसाद के नवीन राजा का स्वागत बीते रात करने के बाद आज रात्रि विश्राम कर रही है। राजकुमार निरुत्तर के छोटे और सौतेले भाई राजकुमार सार्थक का बीते रात राज्याभिषेक किया गया था। श्रीगढ़ को दुल्हन कि भांति सजाया गया था। भूतपूर्व राजा वियंंद अर्थात् राजकुमारों निरुत्तर और सार्थक के पिता ने अपने हाथों, सारी प्रजा और मंत्रीगण को साक्षी मानकर अपने कनिष्ठ पुत्र सार्थक का राज्याभिषेक किया।
निरुत्तर कि मां तीन साल पहले ही चल बसी थी। निरुत्तर मानसिक रूप से अभी भी बालकों जैसा है उसे अभी राजकाज का जरा सा भी ज्ञान नहीं है और न ही वो राजगद्दी पर आरूढ़ होने के काबिल बन पाया है।



राजसभा में आज नवीन राजा सार्थक अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। वृद्ध पिता और माता दूसरी ओर अपने आसन पर आरूढ़ हुए हैं।
निरुत्तर भी अपने अनुज अर्थात् सार्थक को अशुभ दृष्टि से देखते हुए अपने राजकुमार वाले स्थान पर जाकर बैठ गया।


आज किसानों कि जमात आई हुईं है। सभा पूर्ण रूप से भरा हुआ है। मंत्रीगण और अमात्य (राजा का सहचर। हिन्दू राज्य तंत्र में राजा को परामर्श देनेवाला मंत्री।)भी उपस्थित है। भूतपूर्व राजा वियंंद के विश्वासपात्र अमात्य के इकलौते पुत्र कुशाग्र को अपने पिता का स्थान प्राप्त हो गया। कुशाग्र बुद्धि का होने के कारण "वह"  राजकुमार सार्थक को अपने मित्रों में सबसे अधिक प्रिय हैं। गुरुकुल में भी शिक्षा–  दीक्षा , अध्यापन, राजकाज का प्रशिक्षण आदि संस्कार दोनों ने एक साथ ही ग्रहण किया था। दयालुता और सहजता के साथ – साथ इन दोनों मित्रो के व्यवहार में बड़ो का आदर करना सर्वोपरी है। इसके विपरित राजकुमार निरुत्तर अपने एकमात्र सखा बिगुल के साथ नानाप्रकार के क्रीड़ाओ, हिरण के शिकार , मद्यपान, मांसाहार आदि कार्यों में लिप्त रहता था। व्यवहार तो श्लेषमात्र भी अच्छा नहीं है। लालची स्वभाव का , बड़ो कि बात न सुनने का इच्छुक और राजकाज में एक तिनके के समान भी ज्ञान नहीं रखने वाला । निरुत्तर और बिगुल दोनों मनमौजी और हर वक्त सुरा और सुंदरी में लिप्त रहने वाले मानुष है। सुरा यानि कि शराब या मदिरा और सुंदरी यानि कि राजनार्तकीयों के नाच गाने में लिप्त रहने वाले निरुत्तर और बिगुल परस्पर एक दूसरे के पूरक ज्ञात होते हैं। राजमाता और सार्थक कि सगी मां आनंदी को निरुत्तर भली निगाहों से देखना तक भी बर्दास्त नही करता है। रानी आनंदी को वह अपनी स्वर्गीय माता कि घोर शत्रु मानता आ रहा है और उसके पुत्र सार्थक को अपना कट्टर शत्रु।

अब चलते  हैं उस कहानी कि ओर जो दिल दहला देने वाली है।


" हे नवीन महाराज! हम किसानों कि फसल इस वर्ष चौपट हो चुकी है। नष्ट होकर जर्जर हो गई है। लगान वसूल करने के पूर्व हमारी विनती सुन लिजिए।" एक वृद्ध कृषक, राजा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। शीश नवाकर, सविनय निवेदन करते हुए बोला फिर राजा अर्थात् सार्थक को देखने लगा।

" हे कृषक! निः संकोच अपनी वार्ता प्रस्तुत कीजिए। अमात्य के द्वारा हमे भी फसल कि पैदावार नष्ट हो जाने का समाचार प्राप्त हो चुका है लेकिन आपकी भी बाते हम सुनना चाहते हैं इसीलिए आज इस विशेष सभा का आयोजन किया गया है ताकि आप कृषकों के साथ न्याय हो सके।"  राजा सार्थक ने विनम्रता पूर्वक कहा। 

" हे श्रेष्ठ नृप! यह  विदित है कि अतिवृष्टि और अनावृष्टि ये दो ही कारक हैं जिनके कारण फसल या खेती को कभी लाभ तो कभी हानि पहुंचती हैं। इस वर्ष अतिवृष्टि हुईं। कई के गृह भी ढह गए। वर्षा के जल ने दो से तीन जनों को काल का ग्रास तक बना दिया। फसल पर कीटों का प्रकोप बढ़ गया था। किसी भी प्रकार से फसल को उपचारित करने के पश्चात भी अंततः फसल नष्ट हो ही गई महाराज। हमारी सविनय विनती है कि कृपया इस वर्ष कृषि लगान से हम कृषकों को मुक्त कर दीजिए।" अंतिम के शब्दों पर बल देते हुए वो कृषक बोला।


" अमात्य! आपका क्या विचार हैं? क्या प्रजा को कृषिकर से मुक्त कर देना उचित होगा? " राजा सार्थक ने अपने मित्र अमात्य यानि कि कुशाग्र से प्रश्न किया।
अमात्य अपने आसन से उठ खड़ा हुआ फिर राजा के सम्मान में थोड़ा झुका फिर उन कृषक पर दृष्टि डाली।

" हे नव नायक! कृषकों से अगर इस वर्ष कर वसूली किया गया तो उनके पास शेष बची हुई पूंजी राजकोष के हत्थे चढ़ जायेगी। तत्पश्चात  फसल के अन्न प्राप्त न किए हुए प्रजा के गरीब कृषक परिवारों के पास पूंजी न रहने से वे भुखमरी के शिकार हो सकते हैं। एक वर्ष कृषि कर न लेने से अगर प्रजा का हित होता है तो यह एक पुनीत कार्य है, महाराज। विधि के विधान का ज्ञान भोली प्रजा क्या जाने? अति वर्षा के कारण ही फसल नष्ट हुए हैं जिसके चलते इन्हे काफ़ी हानि पहुंची है। अतः मेरा विचार यह है कि प्रजा के हित में उचित निर्णय लेते हुए आप इस वर्ष कृषि कर से इन्हे मुक्त कर दीजिए। "अमात्य ने अंत में राजा को देखते हुए शीश नवाकर कहा फिर अपने आसन पर विराज गए।

राजा ने अन्य मंत्रियों और वहां उपस्थित मनीषियों से मंत्रणा की। इधर राजकुमार निरुत्तर और बिगुल कानाफूसी कर रहे हैं।

" मुझे तो लगता हैं कि कर लेना चाहिए।" बिगुल ने धीरे से निरुत्तर के कान में कहा।

" इसके पीछे तुम्हारा क्या मत है?" निरुत्तर ने कहा।

" देखो मित्र! कर नही वसूले जाने पर राजकोष कि राशि कम होती जायेगी। क्या पता राजकोष रिक्त ही हो गया तो? हमे भी धन मिलना अवरुद्ध हो जायेगा। कृषकों का इस वर्ष का ही फसल नष्ट हुआ है। भूतपूर्व फसल तो अच्छी ही हुई थी ना? तो क्या इन कृषकों के पास पिछले वर्ष के फसल के कुछ अन्न भी शेष नहीं होंगे? फसल को विक्रय करने पर भी तो अपने राज्य में अच्छी खासी राशि अदायगी करी जाती है तो भी क्या ये कृषक इतने दीन हीन हो जायेंगे भला थोड़े से माह के पश्चात? कर लेना चाहिए आधा ही सही।" बिगुल ने कंधे उचकाते हुए कहा।

राजा सार्थक कि सुदृढ़ आवाज निरुत्तर और बिगुल के कानों में गई फिर दोनों अपने स्थान पर बैठ कर ध्यान से सार्थक कि बाते सुनने लगे।


" हे मेरी प्रजा के श्रेष्ठ कृषकों! मंत्रीगण, अमात्य, मनीषियो और भूतपूर्व महाराज एवम् मेरे पिताश्री से मंत्रणा करने के पश्चात हम इस परिणति (परिणाम) पर पहुंचे है कि– प्रजा के हित को देखते हुए हम कृषकों को इस वर्ष कृषि कर से मुक्त करते हैं और यह आश्वासन देते हैं कि भविष्य में अगर जरूरत पड़ी तो आप राजकोष से दिनचर्या के लिए उपयोगी वस्तु खरीदने हेतु सहायता राशि प्राप्त कर सकते हैं। राजा का धर्म है कि सारी प्रजा से निष्पक्ष संबंध बनाए रखे। एक समान सुविधाएं उपलब्ध कराए। आवश्यकता पड़ने पर विशेषकर आपात काल में राजकोष से गरीब और जरूरतमंद प्रजा को राशि प्रदान किया जाए। आप सभी चिंता का त्याग कीजिए और खुशी से जीवन जीने का लक्ष्य निर्धारित कीजिए।" महाराजा सार्थक ने विनम्रता पूर्वक कहा।
तभी कर्कश आवाज सभा में गूंजी।

" हे सार्थक! तुम बावरे हो गए हो क्या अन्य व्यक्तियों के भांति या तिनके सी भी बुद्धि शेष बची हुई है तुम्हारे पास? पूर्ण न सही लेकिन अल्पकर तो प्रजा दे ही सकती है। राजकोष रिक्त हो गया तो फिर तुम क्या खाओगे और क्या खिलाओगे किसी को? भीख ही मांगनी पड़ जायेगी। कृषकों का ये ढोंग है, स्वांग रच कर सभा में आए हैं ताकि कर देना न पड़े और राजकोष में राशि जमा न हो। तुम तो उल्टे अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारने को तत्पर दृष्टिगत हो रहे हो। जब राजा कि बुद्धि ही नहीं है तुम्हारे पास तो क्यों पिताश्री को वशीकरण के पाश में बांधकर अपना राज्याभिषेक करवाए हो। इससे अच्छा तो डूब मरते। राजा नहीं भिखारी होने के लायक हो तुम।" तेज आवाज में निरुत्तर ने कहा फिर लंबी श्वास भरी।

" राजकुमार निरुत्तर सही कह रहे हैं। मेरा सखा ही सर्वश्रेष्ठ राजा बन सकता है और राजकाज संभाल सकता है। अभी भी समय है राजकुमार का इसी क्षण राज्याभिषेक  करवा दिया जाए तो उचित होगा। सार्थक को तो बस वाहवाही लूटने का शौक है बचपन से। प्रजा को राजकोष का धन देकर हमे भिखारी बनाने को तत्पर हैं ये मुढ़ात्मा।" बिगुल ने हाथों को ऊपर कि ओर करके कहा।

" बस,बस करो। तुम दोनों भूल रहे हो कि वो राजा बन चुका है। राजा का अपमान करना सर्वथा अनुचित और दंडनीय कार्य होता है।" राजपिता अर्थात् सार्थक और निरुत्तर के पिता ने अपने आसन से उठकर खड़े होते हुए कहा। क्रोध से वे कांप रहे है। प्रजा भी राजकुमार निरुत्तर और उसके मित्र बिगुल को देखते हुए चिंतित दिख रही है।
राजपिता के आगामी बातों को काटते हुए निरुत्तर तीखे स्वर में बोल पड़ा।
" हे पिताश्री! कुमाता आनंदी के मोह में आप अपने इस पुत्र को भुल चुके हैं। मेरी जगह ये तुच्छ सार्थक राजा बना हुआ राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ हैं। इसके आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं जबकि मैं इसका अग्रज हूं।" क्रोधावेश में निरुत्तर ने समीप के खम्भ पर हाथ दे मारा।

" तुम अग्रज हो लेकिन बुद्धि में नही, राजकाज में नहीं, संस्कार में नही, बल्कि तुम अग्रज हो कुसंगति में, मदिरापान करने में, स्त्रीगमन करने में और भी ऐसे अनुचित कार्य तुमने किए हैं कि लज्जा आती है मुझे, तुम्हें अपना पुत्र कहने में।" राजपिता निढाल से होकर अपने आसन पर धम्म से गिरे। राजमाता आनंदी और दासियों ने उन्हें घेर लिया। कुछ क्षण पश्चात निरुत्तर ने रूठे हुए अप्रिय स्वर में चीख मारी। राजपिता मूर्छा से बाहर आए।

" भरी सभा में आज मेरा अनादर, अपमान किया गया है वो भी मेरे सौतेले अनुज के कारण। अगर मैं इतना ही नालायक हूं तो मैं आज से त्याग करता हूं इस राजप्रासाद का। यहां उपस्थित हर व्यक्ति का त्याग करता हूं सिवाय मेरे घनिष्ठ मित्र बिगुल के। आज के बाद मैं अकेले जीवन व्यतीत करूंगा और मेरा मित्र ही मेरा कुटुंब है।" कर्कश आवाज सभा में गूंज उठी। कोई कुछ कहता या करता इसके पहले ही राजकुमार निरुत्तर और बिगुल वहां से चल पड़े। चोट खाए शेर कि मानिंद फूंफकार भरते हुए दोनों कमान से निकलने तीर कि वेग से वहां से प्रस्थान कर गए।

" पिताश्री! यह अच्छा नहीं हुआ। राजकुमार निरुत्तर के मन में अब हमारे लिए घृणा भाव जाग्रत हो गया है और यह आगामी दिवसों में बलवती होते जायेगा। सगा न सही लेकिन वो मेरा अग्रज भ्राता है। इस प्रकार उसका भरी सभा में अपमान नही होना चाहिए था।" राजा सार्थक ने अपने पिता के हाथ को पकड़ कर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा।

" हे पुत्र श्रेष्ठ! विदित है कि–" पुत कपूत तो क्या धन संचय , पुत सपूत तो क्या धन संचय।" अर्थात् अगर पुत्र कुपुत्र है तो उसके लिये धन संचय क्यो किया जाय, वो तो उसे अनुचित कार्यों में लगाकर व्यय कर देगा और अगर पूत सपूत है तब भी धन क्यो संचय किया जाय वो तो स्वयं अपनी काबलियत से अधिक धन कमा सकता है केवल उसे धन प्राप्त करने का ज्ञान ही देना चाहिए।
जो मुझे राजगद्दी के लिए उपयुक्त लगा उसे मैने राजा बना दिया। निरुत्तर अगर राजा बन गया तो समझो कि प्रजा का समूल नष्ट हो जायेगा। सुरा और सुंदरी में वह धन को लुटा देगा और दुर्गति को प्राप्त होगा। इससे अच्छा यह है कि तुम राजगद्दी संभालो और राजकाज पर ध्यान केंद्रित करो। जब राजकुमार निरुत्तर कि बुद्धि प्रखर होगी। जब उसे अपने किए का पश्चाताप होगा, तब देखना पुत्र, वो कैसे भागा आएगा हमारे पास।" राजपिता ने महाराज सार्थक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

दो सप्ताह सुख पूर्वक बीते।

इधर राजकुमार निरुत्तर और बिगुल के खाने के लाले पड़ गए। वे दोनों किसी भी तरह से राजा सार्थक को मृत्यु प्रदान करना चाहते हैं। आज रात्रि बड़ी डरावनी लग रही है। वर्षा किसी भी क्षण शुरू हो सकती हैं। अमावस्या कि यह काली रात अपने आप में तांत्रिकों के साधनाओं लिए उपयुक्त है। पूराने से वटवृक्ष के नीचे राजकुमार निरुत्तर और बिगुल बैठे हुए हैं।

" हे निरुत्तर! मैने सुना है कि अमावस्या को एक तान्त्रिक शमशान में साधना करने जाता है। वो काली शक्तियों का ज्ञाता हैं।" बिगुल ने उसके कानों के पास कहा।

अधखुली आंखों को पूरी तरह से खोलने के बाद लंबी सांस लेते हुए राजकुमार निरुत्तर वृक्ष के मोटे तने पर पीठ टिकाते हुए बैठा।

" तो क्या वह तान्त्रिक उस सार्थक को मृत्यु प्रदान करने में हमारी सहायता कर सकता है?" प्रश्नवाचक दृष्टि बिगुल पर डालते हुए वो बोला।
" हां मित्र! यह तो उसके बाएं हाथ का खेल है। आज इस माह कि प्रथम अमावस्या है तो तान्त्रिक हमे शमशान में ही मिलेगा। धन का लालच देकर उससे हम कुछ विद्याएं सीख लेंगे और सीखी हुईं विद्याओं का प्रयोग उस सार्थक पर करेंगे। चलो अब, उठो। शमशान कि ओर बढ़ने का समय है यह । थोड़ी भी देर हुईं तो वर्षा शुरू हो सकती हैं फिर कठिनाई होगी हमे।" कहते हुए बिगुल ने उसके कंधो पर हाथ रखा।
दोनों ही शमशान कि ओर चल पड़े।
एक तांत्रिक भस्म रमाए, लकड़ियों के ऊपर रखी हुई मृत अनावृत देह के ऊपर दिगंबर अवस्था में, हाथ को ऊपर कि ओर जोड़े हुए, आंख बंद करके किसी घोर साधना में संलग्न है। सामने चबूतरे जैसे जमीन पर एक किताब रखी हुई है जो धीरे धीरे अब ऊपर उठ रही है। अपने आप उस किताब के पन्ने पलट रहे है और साथ में अजीब सी आवाजें निकल रही है मानों उस किताब मे रूहों का वास है जो कैद है अनंत काल से।

घुप्प अंधेरे में भी वह किताब साफ नजर आ रही है अपनी स्वयं के प्रकाश के कारण।

राजकुमार निरुत्तर और बिगुल ने शमशान में जैसे ही प्रवेश लिए उनकी श्वास नली अवरुद्ध सी होने लगी। चमगादड़ों का झुंड उनकी ओर बढ़ा। सियारों और कुत्तों कि भारी डरावनी आवाजे और चीखे उस माहौल को भयावह रूप प्रदान करने लगी। देखते ही देखते चमगादड़ निरुत्तर और बिगुल के चारों ओर घूमने लगे। दोनो भीरू युवक डर के मारे कांप उठे। वर्षा कि बूंदे उन के शीश पर गिरने लगी। अति वेग से वायु प्रवाहित होने लगी। आसपास के वृक्ष हिलने लगे और ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानों वे भूत प्रेत है जो शाखाओं रूपी अपने लंबे हाथों को आसमान कि ओर किए हुए भयानक नृत्य प्रस्तुत कर रहे हो।

अस्तु।

चमगादड़ों से दो चार होते हुए दोनों थक से गए। देखते ही देखते असंख्य चमगादड़ों के झुंड अचानक से अदृश्य हो गए। दोनों युवक ने राहत कि श्वास भरी।

कुछ कदम आगे बढ़ ही पाए थे कि सामने का दृश्य देखकर दोनों कि आंखे फटी कि फटी ही रह गई।

असंख्य चुडैले, डायन, भूत और प्रेतगण उस तान्त्रिक को घेरे हुए है। डरावनी आवाजे शमशान को झकझोर रही है। किसी के लाल हाथ दिख रहे है अंधेरे में तो किसी कि सफेद आंखे नजर आ रही है। किसी के पैर है तो किसी के खून से सने हुए धड़। तान्त्रिक उसी अवस्था में खड़ा हुआ है।

निरुत्तर कांपते हुए बिगुल को पकड़े हुए खड़ा है। दोनों के पैर जम से गए हैं और होठ भी। उन्हें आभास हो रहा है कि किसी अदृश्य शक्ति ने उन दोनों को के शरीर को नियंत्रित कर लिया है जिसके कारण वे अब हिल भी नहीं पा रहे है।

वे देखते हैं कि एक लाल, खून से लथपथ कटी हुई हथेली तेज गति से उन दोनों कि ओर ही आ रही है।
दोनों इतने डर गए कि जोर कि चीख के साथ एक दूसरे के ऊपर गिर कर बेहोश हो गए। इस बार अदृश्य शक्ति ने उन दोनों के शरीर को मुक्त कर दिया है जिससे वो दोनों जमीन पर जा गिरे। वर्षा कि बूंदे तेज गति से गिरने लगी। दोनो का शरीर मिट्टी से सना हुआ है और बारिश कि बूंदे अब उन्हें पूरा गीला कर चुकी है।

बिजली चमक रही है और तान्त्रिक कि आंखे खुली। उसके बाद सारे भूत, प्रेमगण , चुडैलें और डायनें जो वहां पर मौजूद थे सारे अदृश्य हो गए।

थोडी देर बाद निरुत्तर और बिगुल कि आंखे खुली।  खपरैल के छत के आवरण से ढके हुए बिना दरवाजे कि झोपड़ी में खुद को देखकर दोनों सन्न रह गए। तभी दरवाजे कि जगह पर एक परछाई उन्हें नजर आई। दोनों के दिल कि धड़कने तेज गति से चलने लगी। कांपने लगे और मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे है।
वो परछाई मुकुराई।

" डरो नही राजकुमार निरुत्तर और बिगुल! मैं तान्त्रिक हूं और मेरे पास तुम्हारी समस्या का समाधान भी है। जानता हूं कि तुम दोनों किस ईच्छा कि पूर्ति के लिए मुझसे भेंट करने आए हो।" कहते हुए तान्त्रिक ने एक मशाल जलाई। निरुत्तर और बिगुल का डर कम हुआ। बिगुल ने साहस बटोरे।

" हमे क्या करना होगा?" बिगुल ने डरते हुए कहा।
" बस कुछ बातें ध्यान में रखनी है। कुछ बातें गुप्त रखनी होगी और  यहां शमशान के पीछे इसी झोपड़ी में आकर तुम्हे दो दिन आधी रात को एक प्याले भर खून मुझे दे कर जाना पड़ेगा। कहो मंजूर है।" तांत्रिक ने दाएं हाथ कि ऊंगली उनकी ओर करते हुए कहा।

" मंजूर है लेकिन हमे कौन सी विद्या सीखनी होगी? कैसे सिद्ध करेंगे?" इस बार साहस करते हुए निरुत्तर ने कहा।

" कोई साधना नहीं बस एक किताब रखनी है तुम्हे अपने पास।" तांत्रिक ने मुट्ठियां जकड़ते हुए कहा।

" किताब?" दोनों ने एक दूसरे को ऐसे देखा मानों तांत्रिक ने कोई चुटकुला सुनाया हो।
" जिस किताब कि बात मै कर रहा हूं वह किताब साधारण नहीं है अबोध बालकों। असाधारण है विलक्षण है, काली शक्तियों का वास है उसमें। शापित किताब है वह। अपने शत्रु के सामने किताब के किसी भी पृष्ठ को खोल देना बस, आगे का काम उसमें बना हुआ चित्र स्वयं कर लेगा। ध्यान रहे कि किताब के बारे में किसी अन्य को पता न चले। यह किताब एक तांत्रिक साधिका द्वारा रचित है।" तांत्रिक ने अपने आंखो कि पुतलियां नचाते हुए कहा।

" किताब को शापित क्यों कह रहे हो?" बिगुल ने सवाल किया।

" अबोध! उस तान्त्रिक साधिका ने यह किताब अपनी काली शक्तियों द्वारा रचि थीं लेकिन एक अघोरी ने इसे चुराना चाहा था परंतु उस तांत्रिक साधिका के तीक्ष्ण नेत्रों से वो अछूता न रह सका। तांत्रिक साधिका ने उस अघोरी को स्वयं के द्वारा रचित किताब को जैसे ही छूते हुए देखा वो गुस्से से लाल हो गई फिर उसने श्राप दे दिया कि–" इस किताब का प्रयोग सिर्फ तीन बार ही किसी को मारने के लिए किया जा सकता है। चौथी बार प्रयोग करने पर स्वयं प्रयोगकर्ता का ही यह किताब विनाश कर देगी और खुद भी नष्ट हो जायेगी।" कहते हुए उसने प्राण त्याग दिए थे। क्योंकि उस तांत्रिक साधिका कि उम्र पूरी हो चुकी थी। अघोरी ने इस किताब का प्रयोग सिर्फ तीन बार किया फिर उसकी पीढ़ी दर पीढ़ी यह किताब स्थानांतरित होते हुए मेरे पास सुरक्षित है लेकिन मेरा कोई शत्रु नहीं है अतः मुझे इसकी जरूरत भी नहीं है इसलिए मैं यह शापित किताब तुम्हे दे सकता हूं।" तांत्रिक ने गहरी सांस ली। कमर पर मृग चर्म बांधते हुए वो उन दोनों को बराबर देख रहा है।

" हम यह किताब तीन बार प्रयोग में लाने के बाद तुम्हे वापस कर देने।इसके बदले में अगर तुम्हे कुछ चहिए तो कहो?" निडर होकर निरुत्तर ने कहा। बिगुल ने सिर हिलाकर हामी भरी और फिर दोनों ही तांत्रिक को ताड़ने लगे।

" मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरे पास सब कुछ है। बस याद रखना कि तीन बार प्रयोग में लाना है वरना अंजाम तुम्हारा मौत होगा। स्मरण रखना कि इस किताब को लाल कपड़े से ही ढककर रखना है। प्रयोग में लाते समय वहां पर मात्र तुम्हारा शत्रु होना चाहिए क्योंकि तीन बार में अलग –अलग समय पर यह किताब सिर्फ एक बार ही प्रयोग में लाई जा सकती हैं जिससे तीन बार, तीन दिवस में तुम्हारे तीन शत्रु मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। सीने के पास लाकर अपनी उंगलियों से पन्ने पलटने है तुम्हे। भूलकर भी इसका प्रयोग इसके पन्नों को देखते हुए मत करना। किताब शत्रु के सामने होना चाहिए और प्रयोग करते समय तुम किताब के पीछे रहना नही तो तुम भी काल के गाल में समा जाओगे।" कहते हुए तान्त्रिक ने आंखे बंद की। दोनों हाथों कि मुट्ठियां कसकर बंद करके ऊपर कि ओर ले गया। तीन बार अपने माथे को छूने के बाद दोनों हाथ नीचे किए। आंखो कि पुतलियां नचाते हुए उसने आंखे खोली। दाएं हाथ कि बंद मुट्ठी खोली तो काले रंग का भस्म नजर आया। निरुत्तर और बिगुल के सामने और अपने पैरो से चार गज कि दूरी पर उसने भस्म जमीन पर तेजी से फेंकी। लाल प्रकाश से जगमगाता हुआ शापित किताब प्रकट हो गया। हवा में वो उन तीनों के आंखो के सामने झूलता हुआ नजर आ रहा है।


" ले जाओ।" तांत्रिक ने तेज आवाज में कहा।
बिगुल ने निरुत्तर के कंधे पर हाथ रखा। दोनों ही किताब कि ओर बढ़ने लगे। किताब से निकल रही रोशनी गायब हो गई। लाल कपड़ा किताब के ऊपर गिरा। बिगुल ने कांपते हुए हाथों से किताब को पकड़ा और लाल कपड़े से उसे ढक दिया।
बारिश बंद हो चुकी थी। तांत्रिक से विदा लेकर वो दोनों शापित किताब को लेकर शमशान से निकले।

" मूर्ख! मुझे जो चहिए था वो मुझे आज मिल ही गया। अमावस्या कि रात को तुम दोनों को वह शापित किताब इसलिए दिया हूं कि मेरा पिंड छूटे। किताब अब तुम दोनों का पीछा कभी भी नहीं छोड़ेगी। गलती से भी किताब के पन्नो के सामने चले गए तो मौत निश्चित है।" कहते हुए तांत्रिक ने भयावह अट्टहास किया।


दो दिन बाद।
आज रात निरुत्तर और बिगुल राजमहल जाने वाले है। निरुत्तर और बिगुल ने  आपस में वार्ता किया फिर निश्चय हुआ कि राजमाता आनंदी पर सबसे प्रथम  इस शापित किताब का प्रयोग किया जायेगा।

दोनों ने शापित किताब को लाल कपड़े से अच्छे से ढका। काले कंबल ओढ़े दोनों ही राजमहल कि ओर चल पड़े।

अपने कक्ष में राजमाता आनंदी पलंग पर सोई हुई है। बीते रोज एक कन्या का विवाह प्रस्ताव आया था राजा सार्थक के लिए। कन्या भी बड़ी रूपवती है और व्यवहार
कुशल भी। सार्थक ने भी विवाह कि ईच्छा जताई फिर तय हुआ कि एक माह बाद श्रीगढ़ से बारात पड़ोसी राज्य केशवागढ़ जायेगी। रात्रि में राजमाता भोजनोपरांत खिन्न निद्रा का सुख ले रही है। खिड़की के पर्दे फड़फड़ाए। खिड़की से निरुत्तर और बिगुल ने राजमाता के कक्ष में प्रवेश किया। घृणा और द्वेष भाव में राजमाता आनंदी को देखते हुए निरुत्तर ने वह किताब अपने सीने के पास लाया। लाल कपड़े को हटाया। किताब के पीछे बिगुल जाकर पर्दे कि आड़ में खड़ा हो गया। पन्ने को पलटाने के बाद एक पन्ने को राजमाता कि ओर करके कांपते हुए निरुत्तर खड़ा हो गया।
देखते ही देखते कमरे में सफेद रंग का धुआं उठने लगा। लेकिन उन्हें कोई भी नकारात्मक शक्ति दिखाई नहीं दी।
दोनों का उत्साह जरा फीका पड़ गया लेकिन कुछ ही पलों बाद सामने राजमाता के पैरो के पास उन दोनों को भयानक अट्टहास करती हुईं डायन नजर आई तो दोनों ही कांप उठे। निरुत्तर और बिगुल का मन हुआ कि किताब को पटककर वहां से पल्ला झाड़ ले लेकिन ऐसा करने से वे दोनों मुसीबत में फंस सकते है यह सोचकर दोनों कांपते हुए उस डायन के आगामी चाल को ताड़ने लगे।

डायन ने अपने हाथों को लंबा किया और राजमाता के पैरो को जकड़ लिया। राजमाता कि नींद खुली और वे चीख पड़ी लेकिन गनीमत यह रही कि डायन या राजमाता आनंदी कि आवाजे उस कक्ष से बाहर जा ही नहीं रही थी।

राजमाता के होश उड़ गए। लेकिन डायन ने उन्हें कुछ कहने या करने का अवसर ही नहीं दिया। झटके से डायन ने अपने धारदार नाखूनों का वार उसके पैरो पर फिर जांघो पर करना शुरू किया। देखते ही देखते राजमाता के पैरो और जांघो से खून कि पिचकारी छूट पड़ी। डायन ने मुंह खोला और सारा खून पीने लगी। बेहद डरावना और असहनीय दृश्य है। राजमाता के आंखो से आंसू और मुंह से चीखे निकली जा रही है।


खून पीने के बाद डायन ने अपने लंबे बालों में से एक बाल तोड़ा। मुंह में रखा फिर वो बाल केकड़े में परिवर्तित हो गया। देखते ही देखते उसका भयानक चेहरा केकड़ों में बदल गया। राजमाता आनंदी के पूरे तन पर केकड़े रेंगने लगे। डायन केकड़े का रूप धारण कर राजमाता के आंखो कि ओर तेजी से लपकी। जोर कि चीख के साथ वे बेहोश हो गई फिर मौत के आगोश मे समा गई। केकड़े राजमाता कि आंखो को मुंह में दबाए हुए चहकदमी कर रहे हैं। यह डरावना दृश्य देखते हुए निरुत्तर और बिगुल भी कांप उठे।
राजमाता आनंदी के मरने के बाद भयानक अट्टहास करती हुईं वो डायन वापस उस किताब के पन्नो में समा गई। निरुत्तर और बिगुल जैसे आए थे वैसे चले गए। एक बिल्ली को मारकर उसका खून प्याले में भरकर वे दोनों शमशान के पीछे उसी तांत्रिक कि झोपड़ी पर डरते, कांपते पहुंचे आधी रात को और खून का प्याला रख आए। तांत्रिक उन्हें दिखाई नहीं दिया।

अगली सुबह राजमाता आनंदी का अंतिम संस्कार किया गया। केकड़ों कि जमात उनके कक्ष में पाई गई। सबको यह देखकर हैरानी हुई कि राजमाता आनंदी के कक्ष में भला केकड़े कैसे आ गए? किसी को भी इस विषय में कुछ भी पता न चल सका। 

दो दिन बाद फिर से निरुत्तर और बिगुल ने लाल कपड़े से शापित किताब को ढका और अपनी झोपड़ी से निकल पड़े। अगला शिकार था उसका स्वयं का पिता अर्थात् वियंंद।

दोनों इस बार भी खिड़की से राजपिता के शयन कक्ष में प्रविष्ट हुए। बरसात का माह चल रहा है और हल्की बूंदा बांदी बाहर होनी शुरू हो चुकी है।

खैर।

निरुत्तर और बिगुल अगली चाल चलने को तैयार हो चुके हैं। खिड़की के पर्दे के पीछे बिगुल जाकर खड़ा हो गया। अंधेरे में निरुत्तर जाकर खड़ा हो गया जहां पर अंधेरा छाया हुआ है। फिर उसने किताब पर से लाल कपड़ा हटाया और फिर पन्ने पलट कर एक पन्ना खोला और अपने पिता कि ओर वह पृष्ठ घुमा दिया।

इस बार पिशाच प्रकट हुआ। लंबा और बेहद डरावना। लंबे सफेद बाल कूल्हे तक लटक रहे है। आंखे खून कि तरह रक्तरंजित। हाथों कि उंगलियां टेढ़ी और नाखुने पैने धारदार। पैर कि उंगलियां एक स्केल जितनी लंबी और नाखूने काले रंगत लिए।

पिशाच अजीब तरह से हंसा। वियंद के गले के पास गया और फिर कयामत ढा गया। वियंद कि चीख निकली और झटके से वो उठा। आंखे सीधे पिशाच से टकराई। पिशाच ने उनका गला जोर से पकड़ रखा है और अपने धारदार दांत उनके गले पर गड़ाए जा रहा है। वियंद पुरजोर कोशिश करने में लगे हुए हैं लेकिन पिशाच उनके गले को छोड़ने के लिए राज़ी ही नहीं है वो तो अब उनके गले के अन्दर अपने दांत गाड़ते जा रहा है। राजपिता के आधे गले को पिशाच ने अपने दांतों से चीर डाला। खून कि धार बह निकली। पिशाच ने एक बार फिर से अपने दांतो का प्रयोग किया और राजपिता के गले को दो भागों में विभक्त कर डाला। उनके प्राण पखेरु उड़ गए।
राजपिता के शरीर का पूरा खून पीने के बाद पिशाच ने डरावने अंदाज में अट्टहास किया फिर वापस शापित किताब के पन्ने में जाकर समा गया।
पसीने से भीगे हुए निष्ठुर निरुत्तर और बिगुल ने किताब को लाल कपड़े से ढका और खिड़की से बाहर निकल कर अपने रस्ते चले गए। आज आधी रात को फिर से अंतिम बार निरुत्तर और बिगुल ने एक बकरी को छुरे से गोद गोदकर मार डाला। प्याले में खून लिया और फिर शमशान के पीछे उसी तांत्रिक कि झोपड़ी में खून पहुंचा आए। इस बार भी तांत्रिक उन्हें नजर न आया।

अगली सुबह राजा सार्थक को घोर वेदना हुईं पिता कि मृत्यु का समाचार सुनकर। कोई भी जान न सका कि यह सब क्या हो रहा है। राजमाता फिर राजपिता कि मृत्यु ने सबको सकते में डाल दिया। कुछ लोग राजमहल को लेकर मिथ्या डरावनी कहानी बनाने लगे जिससे कुछ डरपोक डरने लगे। 

तीन दिन बाद निरुत्तर और बिगुल ने अंतिम बार उस शापित किताब का प्रयोग राजा सार्थक पर करने का मन में दृढ़ संकल्प किया। आज हवा काफी तेज़ चल रही है। बारिश होने के आसार नजर आ रहे हैं। राजा सार्थक के आंखो में नींद नहीं है। उन्हें किसी भी प्रकार के अनिष्ट कि आशंका हो रही है। बालकनी जैसी खुली जगह पर वे अंधेरे स्थान पर खड़े हुए हैं। यहां से नीचे राजमहल का मुख्य द्वार साफ नजर आ रहा है। प्रतिदिन कि तरह ही आज भी प्रतिहारी, द्वरपाल निद्रा में निमग्न हो चुके हैं जिसका फायदा दो बार निरुत्तर और बिगुल ने बखूबी उठाया है।

राजा सार्थक कि आंखे एक जलती हुई मशाल पर गई। दिखा कि दो काली परछाई मुख्य द्वार कि ओर बढ़ी आ रही है। हवा तेजी से बह रही है जिसके कारण आसपास के वृक्ष हिल रहे हैं। बिगुल आगे चल रहा है और निरुत्तर उसके पीछे किताब को सीने से लगाए हुए चले जा रहा है। तभी उसके पैरों को किसी पथरीली चीज से ठोकर लगी। वो औंधे मुंह जमीन पर जा गिरा और हल्की सी चीख निकल गई उसके मुंह से। उसने देखा कि किताब उसके हाथों से छूटकर थोड़ी दूर पर जा गिरी है और हवा के कारण उसके पन्ने उलट पुलट हुए जा रहे है l बिगुल ने उसकी आवाज़ सुनी और पलटकर देखा कि निरुत्तर गिर गया है और उसका कंबल भी । यह देखकर बिगुल उसकी ओर आगे बढ़ गया।इधर लपकर निरुत्तर ने किताब उठाने कि कोशिश की। हवा का तेज झोंका चल रहा है। धूल उड़ाते हुए हवा तेज गति से बह रहा है। अननफानन में निरुत्तर के उंगलियां एक पन्ने पर अटक गई। किताब का एक पन्ना अनजाने में बिगुल कि ओर मुखातिब हो गया और एक रोशनी अचानक से वहां पर उभरी। किताब बंद करके निरुत्तर उठ ही पाया था कि ब्रह्म राक्षस वहां पर आ धमका। बिगुल के सामने ब्रह्म राक्षस खड़ा हो गया और उसे खा जाने वाली निगाहों से देखने लगा। बिगुल के मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे है और डर इस कदर हावी हो गया है कि अब होश गवा बैठा। बिगुल अब दाएं हाथ कि ओर भागने लगा। उसकी सांसे बढ़ गई। पसीने से लथपथ हो गया। निरुत्तर भी किताब को सीने से लगाए उसी ओर दौड़ पड़ा।


सार्थक को तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि वो निरुत्तर और बिगुल ही है जिनके कारण नकारात्मक शक्ति ने उसके मां बाप को मृत्यु के मुख में धकेला है। वो अब वहां से सीधे नीचे आया। मुख्य द्वार को पार करते हुए वो भी निरुत्तर और बिगुल कि दिशा में दौड़ पड़ा।

इधर बिगुल दौड़ते हुए थक गया और एक बबूल के पेड़ से टकराकर जमीन पर जा गिरा। ब्रह्म राक्षस ने अपना शरीर बढ़ाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते वो खजूर के पेड़ के जितने बड़ा और लंबा हो गया। उसने हाथ आगे बढाया बिगुल कि ओर। बिगुल का गला सुख चुका है। उसकी सांसे तेज गति से दौड़ रही है। उसकी चीख निकल पड़ी यह देखकर कि ब्रह्म राक्षस ने उसे अपने दाएं हाथ से पकड़ लिया है और अपने मुंह कि ओर लिए जा रहा है बिगुल को।
उसकी भयावह चीख से आसपास के गृहों में सो रहे लोगों कि नींद खुली। देखते ही देखते इस भयावह स्थिति ने विकट रूप धारण कर लिया। बिगुल को जिंदा निगल गया ब्रह्म राक्षस। प्रजा जनों कि आंखे खुली कि खुली रह गई। निरुत्तर ने देखा कि राजा सार्थक उसी कि ओर आ रहा है और उसके सीने से लगा हुआ शापित किताब सबकी नजरों में आ चुका है तो वह हकबका सा गया। ब्रह्म राक्षस नगण्य होकर किताब में समा गया।

सारी प्रजा को समझते देर न लगी कि निरुत्तर ने ही राजमाता और राजपिता को अपनी काली शक्तियों से मरवा डाला था।

सार्थक को सामने खड़े देख उसने बहुत बड़ी गलती कर दी। निरुत्तर भुल गया था कि वह तीन बार किताब का प्रयोग कर चुका है और चौथी बार प्रयोग करने पर स्वयं ही वो मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा और शापित किताब स्वतः ही नष्ट हो जायेगी।

झट से किताब को सार्थक के आगे करके निरुत्तर ने अपनी कांपती हुई उंगलियों से पन्ने पलटने शुरू कर दिए लेकिन इस बार पृष्ठ और वो शापित किताब निरुत्तर के नियंत्रण से छूटकर हवा में लहराने लगी। एक सफेद प्रकाश कि किरण किताब से निकल कर निरुत्तर पर पड़ी। फिर किताब में अपने आप आग लग गई और वह शापित किताब जल कर राख में तब्दील हो गई। फिर निरुत्तर के सामने प्रकट हुई चुड़ैल। उसके उल्टे पांव और बाहर निकली हुई लब लबाती हुई खून से सनी जीभ। निरुत्तर चीख पड़ा लेकिन चुड़ैल ने अगला दाव खेल दिया जिससे निरुत्तर अब निरुत्तर ही रह गया।
चुड़ैल ने धारदार नाखूनों वाले दाएं हाथ को झटके से निरुत्तर के पेट के आरपार कर दिया। पेट में छेद हो गई और खून कि पिचकारी छूटी। चुड़ैल ने एक बार हाथ को ऊपर कि ओर उठाया फिर सीधे निरुत्तर के दोनों आंखो को नोच डाली। तड़पते हुए वो जमीन पर जा गिरा और फिर उसकी दर्दनाक मौत के साथ खत्म हुई यह
" शापित किताब" कि कहानी।




।। समाप्त।।


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शापित किताब
5.0
एक रहस्य से भरपूर किताब जिसमें वास करती हैं शैतानी ताकतें। उस किताब का कैसे होता है अंत इस कहानी में अवश्य पढ़े।

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