यह आम कथन आपस में कई बार कहा जाता है की छोटी सी है जिंदगी इसे हंसकर गुजार लो, किंतु जिंदगी ना छोटी है न बड़ी यह तो ईश्वर प्रदत्त एक प्रयोगशाला में प्रयोग करने के लिए भेजा समय है, जिसे हम प्रयोग कर क्या रचना कर सकते है या उस जीवन को केसे जी पाते है इस पर निर्भर करता है।
जो सदेव खुशहाल है संतुष्ट है उसे जीवन छोटा लगता है ,उसका यह भाव सब कुछ लुटा कर जीना , श्री हरी को सदा प्रिय है , उसके विपरीत कष्टदायक परिस्थितियों जो स्वयं या ईश्वर प्रदत्त है उसमे जीवन बहुत लंबा लगता है।
एक मनुष्य को १०० वर्ष का जीवन छोटा प्रतीत होता है और एक को अल्पायु में जीवन से उचाट हो जाता है।
हम अक्सर यह देखते व स्वयं इस समस्या से घिरे रहते है की घर के पास एक पड़ोसी है ,उसका आलीशान बंगला है, दो तीन गाडियां आमोद प्रमोद के विभिन्न संसाधन से युक्त साधन ,हमारे मन में बड़ी ईर्ष्या की यह सब उसने केसे जुटाया ,दूसरा पड़ोसी है एक पुराना सा स्कूटर ,घर से निकलते समय चुपचाप जाता चुपचाप आता दौलतमंद पर दिखावा नहीं सोचने में आता की इतना दौलतमंद पर ऐसा साधारण जीवन!
जब हम अपना जीवन इन ताकझक में निकालते तब दो ब्रेड के बीच आलू के मसाले के समान सेंडविच बन जाते है,और यही प्रक्रिया दुःख की उत्पत्ति का कारण नासूर की तरह बन जाती है।जिसमे इंसान अपना खुद का वजूद खो कर दाएं बाएं सा टेबल टेनिस की गेंद के समान अंगिनित चोटे खाता है,और दुखी रहता है,हर हाल में साम दाम दण्ड भेद से अधिक पाने की प्रवृति उसकी शांति भंग कर जीवन को अधिक महत्वाकांक्षी बना देती है ।
यह आम प्रवृति है ,जो अधिकांश के जीवन से रोजाना रेल्वे प्लेटफार्म पर जंक्शन के स्टेशनों पर पटरियों पर दौड़ती ट्रेन की तरह ह्रदय पटल पर शोर का आगाज करती है।
एक महात्मा का किस्सा आपने सुना होगा वह महात्मा जो सिद्ध पुरुष थे, अपने एक भक्त के पास दो चार वर्ष में जब उस शहर में जाते मिलने जाते ,भक्त बड़ी आवभगत करता अपना आलीशान घर दिखाता,गाड़ी में घुमाता,फर्नीचर और नए सामान दिखाता ,निर्लिप्त महात्मा सब देखते उसकी प्रशंसा करते ,महात्मा थे बोध तो था ही की भक्त की प्रशंसा से उसे सुख मिलता,ऐसा कई बार हुआ कई वर्षो के बाद फिर उस शहर उस भक्त के निवास पर गए,देखा इस बार भक्त कुछ मायूस था ,कई संसाधन नए जुटाए पर महात्मा जी को न घर घुमाया न संसाधनों की चर्चा,महात्मा जी उसके मर्म को जानते थे,फिर भी कुरेदा और पूछा भक्त आपने इस बार न घर घुमाया न अन्य नया कुछ बताया ,भक्त तो भरा पड़ा था ,महात्मा जी को बोला क्या खाक बताऊं पड़ोसी ने पास की खाली भूमि पर इतना विशाल घर ,सर्वसुविधा युक्त नया बना लिया , मूर्हत में बुलाया,बाबाजी कांच जैसा सुंदर महल अब में आपको क्या खाक घुमाऊँ।आशय यही की सब सुख उसके घर पर होने पर भी वह पड़ोसी के सुख से दुःखी था और यही भाव अधिकांस के जीवन में घटित होता है , महात्मा जी ने उसे उनके प्रति श्रद्धा रखने के कारण समझाया,भक्त में तुम्हारे पड़ोसी के बुलाने पर ही इस शहर आया पर पड़ोसी के यहां इसी कारण से नहीं गया की पिछले कई सालों में जब भी आया,तुम्हारे प्रेम वश तुम्हारे ही घर रुका, तुमने हमेशा माया के संसार में मुझे अवगत कराया,मुझे संज्ञान था की यदि में इस शहर आकर पड़ोसी के यहां रुक गया तो तुम अत्यधिक दुखी हो जाओगे, इस कारण मैंने पड़ोसी को पहले ही कह दिया शहर में आऊंगा तो आपके घर नहीं आपके पड़ोसी भक्त के यहां ही रुकूंगा,उनसे मेरा अनन्य प्रेम है,और भक्त तुम्हे आश्चर्य होगा की वही अपनी गाड़ी से लेने आए और प्रेम पूर्वक मुझे तुम्हारे घर पहुंचाया , रास्ते भर तुम्हारी तारीफ़ की क्योंकि वह संतोषी है, और उसे यह भान है की जो दिया वह मेरे आशीर्वाद का प्रतीक है।उसे भी और तुम्हे भी!
भक्त ने अपनी गलती मान महात्मा जी के पैर पकड़ लिए, और अपने लालची स्वभाव के लिए क्षमा मांगी ,और कहने लगा इतना सब कुछ आपकी कृपा से मेरे पास होने के बावजूद में अपना पथ भटक गया,में दूसरो की आराधना करने लगा, तदस्वरूप और कष्ट आने लगे मेरे पास था क्या ? वाकई इस छोटे संसार मे मुझे सब आपकी कृपा से प्राप्त हुआ पर मुझे उससे संतोष न मिला और अधिक पाने की लालसा में भटक गया,मेरी शांति जाती रही ,शांति की खोज मुझे निर्जीवता में प्रकट होने लगी ,जेसे जेसे पाता गया,ह्रदय अशांत होता गया । महात्मा जी भक्त को एकटक देखते रहे , अश्रु की निर्मल धारा महात्मा जी के पैर पर गिर रही थी।तभी पड़ोसी ने घर की घंटी बजाई ,दरवाजा खुलने पर अंदर आया और महात्मा जी के चरण वंदन कर घर की चाबी महात्मा जी के सुपुर्द करदी ,महात्मा जी ने पुराने भक्त को चाबी देकर कहा यह घर भी आज से आपका! यह सब मेरे कहने से इन्होंने तुम्हारे लिए ही बनाया।भक्त की पछतावे में निर्मल ह्रदय से हिचकियां आने लगी, उसने महात्मा जी के पैर पकड़ लिए।
महात्मा जी ने प्रेरक प्रवचन दिया की भक्त तुम्हारे में यह सब भाव मेने तुम्हारी परीक्षा के लिए रचा ,सदेव गुरु के लिए कृतज्ञ रहो,उनके उपदेश को समझो और उसका निर्वहन करो ,सच्चे ह्रदय से, बोझ समझ कर नही। जब तुम्हे गुरु ने अपनाया तो कुम्हार की माटी की तरह तुम्हे गड़ा क्योंकि तुम कोमल मिट्टी के समान थे ,मिट्टी आग में तपकर कुंदन बन जाती व कभी घड़े का आकार लेकर सब कुछ सहकर प्यासो को शीतलता पहुंचाती,कभी दीपक बनकर तम को आत्मसात करती पर मिट्टी सा ही भाव न जाने कब छूट जाएं हाथ से टूट जाए फिर मिट्टी ही तो होना है ,इसी भाव में वह घुंधती है , तपती है बिना उफ्फ के!
हे वत्स,मेरे भक्त! तुम्हारे व्यवसाय में अनेक लोग जुड़े है,वह सब अपने कर्मो का पा रहे ,तुम्हे मेने कर्ता बनाकर यह सेवा प्रदान की ,यह तुम्हारे बुद्धि का प्रयोग नहीं , यह मेरे द्वारा प्रदत्त बुद्धि है,तुम्हे ज्ञात है अहंकार आने पर महापंडित रावण भी बुद्धि भ्रष्ट हो गए,मेने तुम्हे बुद्धि प्रदान की ,यश दिया, ऐश्वर्य दिया केवल इस कारण की तुम अनेक बुद्धिमानो से उनकी मेहनत का उनकी बुद्धि का फल देकर सेवाओं का विस्तार कर सको ,लेकिन मेने यह भी पाया की तुमने तीक्ष्ण बुद्धिमान को उतना फल नहीं दिया जिसका वह अपनी मेहनत का अधिकारी था , व अनेक सामान्य बुद्धिमानों पर भरपूर लुटाया ,यह जो तीक्ष्ण बुद्धिमान सदा सेवा में तुम्हारी आतुर इन्हे दूत बनाकर तुम्हारे नेक मानव सेवा के इरादो में श्री वृद्धि करने मेने ही भेजा,तुम्हारे नेक पड़ोसी की तरह यह सब समर्पित कर परोस कर तुम्हे, मेरे हुकम से अन्यत्र चले जायेंगे!
यह अस्थाई सा राजपाट तुम्हे ही सम्हालना है ,मानव सेवा के प्रकल्पों को पूर्ण करने के लिए,में हरदम तुम्हारी परीक्षा लेता हूं की तुम डिगे तो नही?मिट्टी के पात्र समान जड़ से जुड़े रहे या जड़े उखाड़ कर कृत्रिमता कि हरियाली में सांस ले रहे हों? यही सृष्टि का क्रम है,जो आज तुम्हारा है कल किसी और का था ,तुम भोग को भोगों मत, निर्लिप्त रहो ,मेरे प्रति सम्पूर्ण आस्थावान रहो । दुनिया चाहे कितने ही मोहपाश में बांधे डिगो नही ,विश्वामित्र की तपस्या भंग करने मेनका का स्वरूप धारण किया,तुम्हारे जीवन को परखने के लिए अनेक ऐश्वर्य रचे जायेंगे ,पर अबतक तुम्हारी विषय लिप्तता मुझे आहत करती रही ,जब अपनाया तुम्हे तो तुम तिनके थे मेने जहाज में बिठाकर माया रची यह जानकर की माया का संसार तुम्हे तुम्हारी निर्मलता ,माटी को कदापि प्रभावित न कर पाए,तुम्हारी रक्षा की पग पग पर ,किंतु नकली सुखों की वर्णमाला तुम्हे कंठस्थ हो गई,आला दर्जे के शब्द तुम भूल गए।तुम्हारी आज की निर्मलता से फिर पिघला हूं।शायद यह प्रबंचना तुम्हारे नेक इरादो में बाधक न हो , कभी किसी योग्य पात्र को उसकी मेहनत से कम न मिले और अयोग्य को कभी अधिक नहीं ,तुम्हारी दर से कोई जरूरतमंद खाली न जाए ,तुम अपनी रचना के विश्वकर्मा का सदेव सम्मान करो और उनकी सेवा भी । और तुमसे जो मिले वह तुम्हारे दो मीठे बोल से प्रभावित हो ना की तुम्हारी परसराम की क्रोध भरी वाणी से आहत !अब से संतोष को अपना लक्ष्य बनाओ और असंतोष से तोबा,यह तो क्या है कुछ भी नही जो में देने आया वह इन सब सुखों से श्रेष्ठ सुख जहां शांति है सिर्फ और सिर्फ तेजमय प्रकाश का संतोषी प्रवाह ,हर क्षण,स्थाई सुख के समान !
यह सब बोलकर महात्मा जी मौन हो गए ,वापिस जाने को आतुर अपने आश्रम को ,भक्त ने पैर पकड़ लिए महात्माजी के साथ चलने को सब कुछ त्याग कर शांति से जीवन व्यतीत हेतू।
महात्मा जी ने उसे बोध दिया की यही तुम्हारा आश्रम है जहा तुम्हे बिना निर्लिप्त हुवे ,मानव सेवा के प्रकल्पो को पूर्ण करने में अपनी महत्ती भूमिका निभा कर अपने गृहस्थ आश्रम को
शांति निकेतन बना कर सबको सुख पहुंचा सको ,एक बुद्धात्मा की तरह!
आलेख:
कुश मेहता
साबरमती तट
अहमदाबाद