शर्म और झूठ संवेदना के कोख से जन्मे जुड़वा बेटे हैं। इतने अभिन्न, इतने समरूपी कि बड़े बड़े पंडित भी गुण, आचरण से भेद नहीं कर पाये। माँ को ये एकात्म इतना भाता कि वस्त्रों का दूर, काजल के टीके तक में फर्क ना करे।
इतने अन्योन्याश्रित कि एक रोए तो दूसरा भी; एक भूखा तो दूसरा भी। झूठ पूरी तरह शर्मसार, शर्म पूरी तरह झूठा।
यूँ हीं कुछ सालों बाद दोनों अभियुक्त आमने सामने थे। निर्धारित करना था की किसका अपराध है। संवेदना कैसे कहे, किस तरह समझाए कि - "दोनों अपराधी हैं और नहीं भी।"
कैसे समझाए की जिसे तुम झूठ समझते हो वो शर्म है। आत्मरक्षा हेतू प्रतिक्रिया को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यूँ समझें की प्रतिक्रिया झूठ की थी शर्म की रक्षा के लिए। वो झूठ शर्म ही है। आत्मरक्षा है। वात्सल्य से भरा है।
अगर शर्म अपराधी है तो झूठ भी, नहीं तो कोई नहीं। शर्म और झूठ की अभेद्य संधि को कोई अपराध अलग नहीं कर सकता। जब तक संवेदना जीवित है तब तक ये जुड़ाव भी। और अगर समाप्त होंगे तो तीनों- संवेदना, शर्म और झूठ।
ये प्रेम नहीं प्रकृति है। सुक्ष्मदर्शन है। सुदर्शन है। इनका अभाव सत्य नहीं ही सकता। "सत्य" सार्वजनिक है। "सत्य" आदर्श है। परंतु सत्य उसी दुर्लभ मोक्ष की तरह है जिसे संवेदना, झूठ और शर्म जैसे दुर्गम रास्तों से प्राप्त किया जा सकता है। "सत्य लक्ष्य है, अन्य मार्ग"।
झूठ के निरपराधिकरण से ही सत्य पुष्ट होगा। कितना गलत है झूठ एवं सत्य को विलोम कहना। ये तो एक दूसरे के पूरक हैं। क्या नदी को कभी सागर के विपरीत रखा गया है। नदी तो सागर का पूरक है, अंग है, दिशा है। हाँ अगर सागर का विलोम है तो वो है "सूखी ज़मीन"। जैसे शरीर होता है संवेदना के बिना। अतः झूठ को सत्य का विलोम बताकर न हम केवल "सत्य" अलभ्य कर रहे हैं, बल्कि वध कर रहे हैं मानवतावादी सिद्धांतों का- संवेदना का, शर्म का, झूठ का।
अबकी देखें तो तीनों का अत्रैत देखें, और विपश्यना भाव से देखते रहें। साथ ही देखें प्रकृति के अवयवों का सामरिक गठजोड़। सत्य अपने वृहद् स्वरुप में स्वतः प्रस्फुटित होगा। "यही सिद्धी है"।