यादों के झरोखें से: "काला पत्थर" कहें या "राजनैतिक पत्थर"
राजनैतिक शास्त्र के जनक चाणक्य और रुपहले परदे की चमक, दोनों अलग विषय एक दूसरे से जुदा वास्तविकता से परे कोरी कलप्ना मात्र, मगर दूर से ही सही आस पास है?
कोयला, खदान, खनन से जूझती राजनीती जब यथार्थ के धरातल पर उतरी तब, हाथ की सफाई के जादूगरी को दरकिनार करती जिस परिदृश्य को देश के सामने रखा उससे तीन दशक पहले की फिर वही कहानी याद दिला दी? "काला पत्थर" वनाम "राजनैतिक पत्थर" के वही दो किरदार, संयोग कहें या हकीकत फिर आमने सामने खड़े नजर आ रहें है!
१९७९ में बनी एक चलचित्र "काला पत्थर" के कहानी पे गौर फरमाइए और उसी परिदृश्य में आज की राजनीती में चल रही गतिविधियों पर हम अगर एक नज़र डाले तब न कहानी जुदा है न किरदार?
यह मात्र एक महज संयोग है और इससे आगे की परिकल्पना सिर्फ और सिर्फ एक कोरी कल्पना से अधिक कुछ नहीं!