*वैदिक एकेश्वरवाद*
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वेद में एकेश्वरवाद का जितना स्पष्ट और सुन्दर वर्णन है ऐसा वर्णन संसार के सम्पूर्ण साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं होगा,देखिये-
*न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते ।*
*न पञ्चमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते ।।*
*नाष्टमो न नवमो दशमो निप्युच्यते ।य एतं देवमेकवृतं वेद ।।*
*स सर्वस्मै वि पश्यति यच्च प्राणति यच्च न ।*
*तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ।*
*य एतं देवमेकवृतं वेद ।।-(अथर्व० १३/४ (२) १६-२०)*
उपर्युक्त मन्त्रों में परमात्मा में दो से लेकर दस तक-संख्याओं का निषेध कर दिया है।ईश्वर दूसरा नहीं है,तीसरा नहीं है इत्यादि।
कणादमुनि-रचित वैशेषिक दर्शन के अनुसार इस मन्त्र की व्याख्या यूँ की जा सकती है- *वह परमात्मा 'न द्वितीयः' पृथिवी नहीं है 'न तृतीयः' जल नहीं है, 'न चतुर्थः' अग्नि नहीं है, 'न पंचमः' वायु नहीं है, 'न षष्ठः' आकाश नहीं है 'न सप्तमः' काल नहीं है, 'न अष्टमः' दिशा नहीं है, 'न नवमः' आत्मा नहीं है, 'न दशमः' मन नहीं है।*
प्रश्न उपस्थित होता है फिर *परमात्मा है क्या?*
विद्वान लोग उस परमेश्वर को अद्वितीय,एकरस और अखण्ड जानते हैं।
वह परमात्मा जड़ और चेतन सम्पूर्ण जगत् को विशेष रुप से देखता है।यह सारा संसार उस प्रभु में ठहरा हुआ है।वह परमात्मा सबका संचालक और प्रवर्तक है।एषः एकः वह एक ही है।वह एकरस,अखण्ड और चेतन है।एकः एव वह एक ही है।
एकेश्वरवाद का इससे स्पष्ट वर्णन और क्या हो सकता है?वेद के इस प्रकार के वर्णनों को देखकर W.D. Brown ने ठीक ही लिखा है-
It (Vedic Religion) recognises but one God.
अर्थात् वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है।
वेद एक ही ईश्वर की पूजा और उपासना का सन्देश देता है-
*मा चिदन्यद् वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।*
*इन्द्रमित् स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ।।-(अथर्व० २०/८५/१)*
अर्थ:-हे विद्वान पुरुषों ! हे मित्रजनो ! व्यर्थ चक्कर में मत पड़ो।परमैश्वर्यशाली परमात्मा को छोड़कर और किसी की स्तुति मत करो।तुम सब मिलकर ऐश्वर्यवान् और सुखवर्षक परमेश्वर की ही बार-बार स्तुति करो।
स्मरण रखो-
*एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः ।।-(अथर्व० २/२/१)*
अर्थ:-समस्त प्रजाओं में एक ईश्वर ही स्तुति और नमस्कार करने योग्य है।
क्योंकि भक्त भली-भाँति जानता है-
*न त्वावाँ२ अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते ।-(यजु० २७/३६)*
अर्थ:-हे परमेश्वर ! तेरे जैसा अन्य कोई न तो द्युलोक में है और न पृथिवी के पदार्थों में है।न अभी तक तेरे जैसा कोई उत्पन्न हुआ है और न भविष्य में होगा।
कुछ लोग इन्द्र,अग्नि,वायु आदि शब्दों को देखकर भ्रम में पड़ जाते हैं और यह समझते हैं कि वेद में बहुदेवतावाद है।वेद में अग्नि,वायु आदि नाम एक परमेश्वर के ही हैं।अवलोकन कीजिए-
*इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।*
*एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।-(ऋग्वेद १/१६४/४६)*
अर्थ:-विद्वान लोग अग्निम्=प्रकाशस्वरुप परमात्मा को इन्द्र,मित्र,वरुण और अग्नि आदि नामों से पुकारते हैं।उसी को गरुत्मान्=महान्,दिव्य और सुपर्ण कहते हैं।उसी को यम और मातरिश्वा भी कहते हैं।विद्वान लोग एक ही परमात्मा को अनेक नामों से पुकारते हैं।
मन्त्र में अग्निम् पद दो बार आया है।यह एक बार विशेषण है और दूसरी बार विशेष्य।
*तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।*
*तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः ।।-(यजु० ३२/१)*
अर्थ:-वह परमात्मा ही अग्नि,आदित्य,वा
यु,चन्द्रमा,शुक्र,ब्रह्म,आपः और प्रजापति आदि नामवाला है।
*त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ ।*
*अधा ते सुम्नमीमहे ।।-(अथर्व० २०/१०८/२)*
अर्थ:-हे सबको बसाने वाले ! हे सबमें बसने वाले ! सैंकड़ों प्रज्ञाओं और बलों से युक्त ! तू ही हमारा पिता,पालक और उत्पादक है।तू ही माता के समान स्नेही और शिक्षक है,अतः हम तुझसे सुख की याचना करते हैं।
वेद में सर्वत्र एक ईश्वर का ही वर्णन है।उसी की स्तुति,प्रार्थना और उपासना का उपदेश है।ईश्वर ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एकमात्र सम्राट है-
*एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ।।-(ऋग्वेद ६/३६/४)*
इस समस्त ब्रह्माण्ड का स्वामी एक ही है।
पाखण्ड को त्यागो,
वेदों की ओर लौटो!
ओ३म्