स्वतंत्रता का अर्थ ‘ हर तरह की आजादी ‘ नहीं हो सकती | भोग-लिप्सा के लिए आजादी नहीं होती |
सच्ची स्वतंत्रता बंधन के स्वयं- स्वीकार से जुडी हुई है , क्योकि बिना उक्त बंधन-स्वीकार के विकास नहीं हो सकता है |
नदी यदि दोनों तटों के बंधन को स्वीकार ना करे तो वह कभी भी सागर में नहीं मिल सकती है , उल्टा विनाशकारी ही होगी |
वृक्ष यदि धरती के बंधन को स्वीकार ना करे तो कभी भी विकास और हरीतिमा को प्राप्त नहीं हो सकता |
यहाँ तक सर्व-शक्तिमान सागर भी मर्यादा का त्याग नहीं करता | यदि वह मर्यादा का त्याग कर दे तो इस धरा का अस्तित्व ही नहीं रहेगा |
स्वयं में स्थित सागरत्व को पहचानकर स्व-कल्याणार्थ एवं मानव कल्याणार्थ मर्यादा का स्वीकार करने से ही हम सच्चे स्वतंत्रता की और बढ़ सकते हैं |”