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395 पन्नो का तीन तलाक जजमेंट का सार

20 जनवरी 2022

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तीन तलाक - 395 पन्नों पर न्याय...

बारिश की तेज़ आवाज़ कानों पर पड़ती है .... उठ कर देखता हूँ तो सुबह के 6:30 बज रहे हैं..... बालकनी में जा कर बैठता हूँ.... और बारिश को निहारता रहता हूँ... इस बार यूँ तो बारिश कम हुई है लेकिन जब कभी सुबह के समय बारिश होती है बहुत खूबसूरत मालूम पड़ती है....

9:00 बजे ऑफिस पहुँचता हूँ... लगातार meetings और क्लासेज का दौर... और इस बीच में ऑफिस बॉय आकर कहता है, “सर, मीडिया वाले आये हैं... सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय पर आपकी राय जानना चाहते हैं..” तब पता चलता है कि बहुप्रतीक्षित तीन तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है... मैं लगातार इस मामले को फॉलो करता  रहा हूँ | केस की सुनवाई  के दौरान किये गए कई मुर्खता पूर्ण बातों और दिए गए विद्वत्ता पूर्ण तर्कों का मैं साक्षी रहा हूँ |

तो प्रश्न है मेरी राय क्या है??? कठिन प्रश्न है क्यूंकि मेरी राय से हो सकता है कई लोगों कि भावनाए आहत हो जाएँ.... चलिए फिर भी राय रखते हैं....

अव्वल तो ये कि बार– बार ये पढने में आ रहा था कि जो पीठ मामले कि सुनवाई कर रही हैं उनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी धर्म को मानने वाले जज शामिल हैं जो हैं : चीफ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस यू यू ललित और जस्टिस अब्दुल नजीर । मेरे देखे ये कोरी मुर्खता है क्यूंकि न्यायाधीश केवल न्यायाधीश होता है वह धर्म, जाति , सम्प्रदाय, लिंग, वंश  के परे अपना निर्णय सुनाता है, जो केवल और केवल सुसंगत तथ्यों पर आधारित होता है...

तकरीबन 22 मुस्लिम देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन तलाक की प्रथा खत्म कर चुके हैं.

मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में इस विचार को कानूनी मान्यता दी. वहां कानून के जरिए घोषणा की गई कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है. लेकिन लगातार तीन तूहरा  (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) के दौरान तलाक कहने से तलाक अंतिम माना जाएगा. 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया. आज ज्यादातर मुस्लिम देश – ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर तैमिया के विचार को स्वीकार कर लिया है.

ट्यूनीशिया तो तैमिया के विचार से भी आगे निकल चुका है. 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है. ट्यूनीशिया में बाकायदा पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है और यदि जोड़े के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है. अल्जीरिया में भी तकरीबन यही कानून है.

वहीं तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1926 में स्विस सिविल कोड अपना लिया था. यह कानून प्रणाली यूरोप में सबसे प्रगतिशील और सुधारवादी मानी जाती है और इसके लागू होने का मतलब था कि शादी और तलाक से जुड़े इस्लामी कानून अपने आप ही हाशिये पर चले गए. हालांकि 1990 के दशक में इसमें कुछ संशोधन जरूर हुए लेकिन जबर्दस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे. बाद में साइप्रस ने भी तुर्की में लागू कानून प्रणाली अपना ली.

पाकिस्तान में तीन तलाक के नियम पर दोबारा विचार की शुरुआत एक विवाद के चलते हुई. 1955 में वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने अपनी बीवी को तलाक दिए बिना सेक्रेटरी से शादी कर ली थी. इसपर पाकिस्तान के संगठन ऑल पाकिस्तान वूमैन एसोसिएशन ने आंदोलन छेड़ दिया और सरकार को शादी और पारिवारिक कानूनों पर एक सात सदस्यीय आयोग बनाना पड़ा.

श्रीलंका जहां तक़रीबन  10  प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती है, का शादी और तलाक अधिनियम, 1951 जो 2006 में संशोधित हुआ था, तुरंत तलाक वाले किसी नियम को मान्यता नहीं देता. इसके मुताबिक शौहर को तलाक देने से पहले काजी को इसकी सूचना देनी होती है. नियमों के मुताबिक अगले 30 दिन के भीतर काजी मियां-बीवी के बीच सुलह करवाने की कोशिश करता है. इस समयावधि के बाद ही तलाक हो सकता है लेकिन वह भी काजी और दो चश्मदीदों के सामने होता है. इस्लामाबाद की इंटरनेशनल इस्लामिक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ मुहम्मद मुनीर अपने एक शोधपत्र में बताते हैं कि श्रीलंका में तीन तलाक के मुद्दे पर बना कानून एक आदर्श कानून है.

इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है; ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है; ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है. कुल मिलाकर यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची हुई है.

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में लिली थॉमस मामले में कहा था कि समान नागरिक संहिता क्रमिक तरीके से ही लागू होना चाहिए. मुस्लिम पर्सनल लॉ को आधुनिक समाज में महिलाओं की समानता के अनुसार कानूनबद्ध करके अदालतों में न्याय की व्यवस्था होने से इसकी शुरुआत हो सकती है. मुस्लिम महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून का लाभ मिलता है. व्हॉट्सएप्प, ट्विटर, ई-मेल द्वारा आधुनिक तकनीक से दिए गए तीन तलाक को मानने वाले मुस्लिम संगठन विवाह की न्यूनतम आयु एवं पंजीकरण के आधुनिक कानून पर सहमत क्यों नहीं होते? सोती हुई पत्नी को पति द्वारा तीन बार तलाक बोलने से होने वाले तलाक को शिया भी स्वीकार नहीं करते और पाकिस्तान समेत 22 इस्लामिक मुल्क इसे बैन कर चुके हैं.

2008 के एक मामले में फैसला देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज बदर दुरेज अहमद ने कहा था कि भारत में तीन तलाक को एक तलाक (जो वापस लिया जा सकता है) समझा जाना चाहिए |

सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला :

मामले के पक्षकार :

1)   केंद्र सरकार : इस मुद्दे को मुस्लिम महिलाओं के ह्यूमन राइट्स से जुड़ा मुद्दा बताता है। ट्रिपल तलाक का सख्त विरोध करता है।

2)   पर्सनल लॉ बोर्ड : इसे शरीयत के मुताबिक बताते हुए कहता है कि मजहबी मामलों से अदालतों को दूर रहना चाहिए।

3) जमीयत-ए-इस्लामी हिंद: ये भी मजहबी मामलों में सरकार और कोर्ट की दखलन्दाजी का विरोध करता है। यानी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ खड़ा है।

4) मुस्लिम स्कॉलर्स: इनका कहना है कि कुरान में एक बार में तीन तलाक कहने का जिक्र नहीं है।

1400 साल पुरानी तीन तलाक की प्रथा पर सुप्रीम कोर्ट के  5 जजों की बेंच ने 3:2 की मेजॉरिटी से कहा कि तीन तलाक शून्य, असंवैधानिक और गैरकानूनी है।

चीफ जस्टिस जे एस खेहर और जस्टिस नजीर ने अपने निर्णय में लिखा : “तीन तलाक मुस्लिम धर्म की रवायत है, इसमें ज्यूडिशियरी को दखल नहीं देना चाहिए। अगर केंद्र तीन तलाक को खत्म करना चाहता है तो 6 महीने के भीतर इस पर कानून लेकर आए और सभी पॉलिटिकल पार्टियां इसमें केंद्र का सहयोग करें|”

जस्टिस जोसफ ने लिखा : मैं मुख्य न्यायमूर्ति से सहमत नहीं हूँ | तीन तलाक कभी भी इस्लाम के मूल में नहीं रहा... कोई प्रथा केवल इसीलिए वैध नहीं ठहराई  जा सकती क्यूंकि वो लम्बे समय से चली आ रही है.... (क्या ! बुद्धिमानी पूर्ण बात कही विद्वान न्यायमूर्ति ने वाह...)

जस्टिस नरीमन ने स्वयं का और यू यू ललित साहब का फैसला पढ़ते हुए कहा: “तीन तलाक 1934 के कानून का हिस्सा है। उसकी संवैधानिकता को जांचा जा सकता है। तीन तलाक असंवैधानिक है|”

इस मामले में एक लड़ाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 25 के बीच भी थी.... न्याय पीठ ने बहुमत से फैसला किया की अनुच्छेद 25 धर्म से सम्बंधित है और अनुच्छेद 14 का सम्बन्ध मानवीयता से है और इन दोनों में अनुच्छेद 14 को वरीयता दी जानी चाहिए....

मेरे देखे तलाक का अधिकार होना ही चाहिए लेकिन एक सम्यक कानूनी प्रक्रिया के तहत ..... सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ नया नहीं है... कोर्ट ने 2002 में लिली थॉमस मामले में दिए गये स्वयं के निर्णय को ही दोहराया है... एक तरह से कोर्ट ने इस मामले में निर्णय देने से अपने आप को दूर कर लिया है और केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर कानून बनाने के लिए दिशा निर्देशित किया है देखें अब छः माह के भीतर सरकार क्या करती है??

रात के 9 :40 हो रहे हैं श्रीमती जी दो बार खाने के लिए  आवाज़ लगा चुकी हैं...

-      मनमोहन जोशी “MJ”

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