जो स्वयं नहीं कर पाते हैं,
अपनी कोई मौलिक रचना ।
वे भी प्रचार पा जाते हैं,
करके दूसरों की आलोचना ।।
कभी विरोध के स्वर जताते हैं,
तंज कसते शब्दों की व्यूह रचना ।
कहीं मन की कुंठा छिपाते हैं,
करके गैरों की आलोचना ।।
यूँ तो सृजन के सतत विकास में,
विचारों की अभिव्यक्ति जरूरी है।
किन्तु वांछित सुधार के उपायों बिना,
टिप्पणियों की सार्थकता अधूरी है ।।
यह कतई आवश्यक नहीं है,
आलोचना सर्वस्वीकार्य हो ।
किन्तु भावनाओं पर संयम रहे,
जब कहीं कटाक्ष अनिवार्य हो ।।
व्यंग भी मर्यादित रहें,
व्यर्थ अनर्गल प्रलाप से बचें ।
भावनाएं अनाहत रहें,
मनोभाव ऐसे सहज शब्दों में रचें ।।
निंदा का माध्यम न बने,
तर्कसंगत हो आलोचना ।
आत्मचिंतन को प्रेरित करे,
ऐसे स्वस्थ मन से हो आलोचना ।।