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अजय सोडानी का जन्म 8 अप्रैल, 1961 को इन्दौर में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर के वैष्णव स्कूल में हुई। एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज, इन्दौर से इन्होंने एम.बी.बी.एस. और एम.डी. तथा एम्स, नई दिल्ली से न्यूरोलॉजी में डी.एम. की उपाधि प्राप्त की। फिलहाल सेम्स मेडिकल कॉलेज, इन्दौर में प्रोफेसर (न्यूरोलॉजी) के रूप में कार्यरत हैं। भ्रमण करना इनके जीवन का विशेष पक्ष रहा है। इन्होंने शहरों से इतर, भारत के सुदूर इलाकों में भी सपत्नीक पैदल भ्रमण करने का गौरव हासिल किया है। अपनी यात्राओं के दौरान अर्जित अनुभवों को कविता, निबन्ध, छायाचित्र तथा कहानियों का रूप देने वाले अजय सोडानी देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित व प्रशंसित होते रहे हैं। अपनी विशिष्टता के कारण ही इनकी यात्राएँ ‘लिम्का बुक ऑफ रिकॉड्र्स’—2006 तथा 2011 में दर्ज की जा चुकी हैं। हिमालय-यात्रा सीरीज़ में यह इनकी पहली पुस्तक है। उनका प्रबल विश्वास है कि इतिहास की पोथियों से गुम देश की आत्मा दन्तकथाओं एवं जनश्रुतियों में बसती है। लोककथाओं से वाबस्ता सोंधी महक से मदहोश अजय अपनी जीवन-संगिनी के संग देश के दूर-दराज़ इलाक़ों में भटका करते हैं। बहुधा पैदल। यदा-कदा सड़क मार्ग से। अक्सर बीहड़, जंगल तथा नक़्शों पर ढूँढ़े नहीं मिलने वाली मानव बस्तियों में। उनको तलाश है विकास के जलजले से अनछुए लोकों में पुरा-कथाओं के चिह्नों की। इसी ग़रज़ के चलते वे तक़रीबन दो दशकों से साल-दर-साल हिमालय के दुर्गम स्थानों की यात्राएँ कर रहे हैं। अब तक प्रकाशित : एक कथा-संग्रह—‘अवाक् आतंकवादी’; तीन यात्रा-आख्यान—‘दर्रा-दर्रा हिमालय’, ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ व ‘इरिणालोक’। मिर्गी रोग को लेकर एक लम्बी कहानी ‘टेक मी आउट फॉर डिनर टुनाइट’। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

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दरकते हिमालय पर दर-ब-दर

दरकते हिमालय पर दर-ब-दर

अजय सोडानी की किताब 'दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ इस अर्थ में अनूठी है कि यह दुर्गम हिमालय का सिर्फ़ एक यात्रा-वृत्तान्त भर नहीं है, बल्कि यह जीवन-मृत्यु के बड़े सवालों से जूझते हुए वाचिक और पौराणिक इतिहास की भी एक यात्रा है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए बार-बार

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अजय सोडानी की किताब 'दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ इस अर्थ में अनूठी है कि यह दुर्गम हिमालय का सिर्फ़ एक यात्रा-वृत्तान्त भर नहीं है, बल्कि यह जीवन-मृत्यु के बड़े सवालों से जूझते हुए वाचिक और पौराणिक इतिहास की भी एक यात्रा है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए बार-बार

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दर्रा-दर्रा हिमालय

दर्रा-दर्रा हिमालय

‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ एक परिवार की हिमालय पर घुमक्कड़ी का वृत्तान्त है। ऐसा परिवार जो फ़ुर्सत के क्षणों में विदेशों की सैर के बजाय बर्फ़ ढँके इन पहाड़ों को वरीयता देता है। इंदौर के अजय सोडानी को हिमालय की सर्द, मनोहारी और जानलेवा वादियों से गहरा अनुराग

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दर्रा-दर्रा हिमालय

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‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ एक परिवार की हिमालय पर घुमक्कड़ी का वृत्तान्त है। ऐसा परिवार जो फ़ुर्सत के क्षणों में विदेशों की सैर के बजाय बर्फ़ ढँके इन पहाड़ों को वरीयता देता है। इंदौर के अजय सोडानी को हिमालय की सर्द, मनोहारी और जानलेवा वादियों से गहरा अनुराग

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 सार्थवाह हिमालय

सार्थवाह हिमालय

अजय सोडानी जानते हैं कि देखे हुए को दिखाया कैसे जाए। जैसे कि सफ़र के दौरान अगर एक कैमरा उनके हाथ में है तो एक भीतर भी है जो बाहर के चित्रों को शब्दों की शक्ल में कहीं अंकित करता चलता है। यही कारण है कि उनके यात्रा-वृत्तान्त, ख़ासकर जब वे हिमालय के बा

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 सार्थवाह हिमालय

सार्थवाह हिमालय

अजय सोडानी जानते हैं कि देखे हुए को दिखाया कैसे जाए। जैसे कि सफ़र के दौरान अगर एक कैमरा उनके हाथ में है तो एक भीतर भी है जो बाहर के चित्रों को शब्दों की शक्ल में कहीं अंकित करता चलता है। यही कारण है कि उनके यात्रा-वृत्तान्त, ख़ासकर जब वे हिमालय के बा

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इरिणा लोक

इरिणा लोक

संस्कृति की लीक पर उल्टा चलूँ तो शायद वहाँ पहुँच सकूँ, जहाँ भारतीय जनस्मृतियाँ नालबद्ध हैं। वांछित लीक के दरस हुए दन्तकथाओं तथा पुराकथाओं में और आगाज़ हुआ हिमालय में घुमक्कड़ी का। स्मृतियों की पुकार ऐसी ही होती है। नि:शब्द। बस एक अदृश्य-अबूझ खेंच, अन

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इरिणा लोक

इरिणा लोक

संस्कृति की लीक पर उल्टा चलूँ तो शायद वहाँ पहुँच सकूँ, जहाँ भारतीय जनस्मृतियाँ नालबद्ध हैं। वांछित लीक के दरस हुए दन्तकथाओं तथा पुराकथाओं में और आगाज़ हुआ हिमालय में घुमक्कड़ी का। स्मृतियों की पुकार ऐसी ही होती है। नि:शब्द। बस एक अदृश्य-अबूझ खेंच, अन

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