या विदेशी चश्मे से जो हमें दिखाया गया, वही सही समझते हैं !
'मस्तिष्क-मंथन'
राहुल खटे,
उप प्रबंधक (राजभाषा),
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जब कभी हमें यह प्रश्न पूछा जाता है, तब उसका उत्तर होता हैं - हां, क्योंकि हमें लार्ड मेकाले ने जो शिक्षा पद्धति दी है, वह हमें विदेशी चश्मे से सोचना सिखाती है। आज से ठीक 139 वर्ष और 5 माह पूर्व दिनांक 2 फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में ब्रिटेन के जुझारू, संघर्षशील, देशप्रेमी तथा ब्रिटेन को ''सर्वोत्कृष्ठ'' मानने वाले एक इंसान लॉर्ड मेकाले ने निम्न वक्तव्य दिया था जो आपके समक्ष प्रस्तुत है।
''मैंने भारत के ओर-छोर का भ्रमण किया है और मैंने एक भी आदमी नहीं पाया जो चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धि, ऐसे सक्षम व्यक्ति तथा ऐसी प्रतिभा देखी है कि मैं नहीं समझता कि इस देश को हम विजित कर लेंगे, जब तक कि हम इसके सांस्कृतिक एवं नैतिक मेरुदंड को तोड़ न दें। इसीलिए मैं यह प्रस्तावित करता हूं कि हम भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति को बदल दें क्योंकि यदि भारतवासी यह सोचने लगें कि जो विदेशी एवं अंग्रेजी हैं, वह उनके आचार-विचार से अच्छा एवं बेहतर है, तो वे अपना आत्म-सम्मान एवं संस्कृति खो देंगे तथा वे एक पराधीन कौम बन जाएंगे, जो हमारी चाहत है।''
भारत पर विदेशी आक्रमण तो पहले भी होते है, परंतु उनका प्रभाव इतना नहीं पड़ा क्योकि तब भारतीयों ने अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को नहीं छोड़ा था। इसलिए लॉर्ड मेकाले इसकी जड़ तक गया कि पूर्ण रूप से भारतीयों पर कैसे शासन किया जा सकता है। वह भारतीयों को मानसिक रूप से भी गुलाम बनाना चाहता था। इसलिए उसने भारतीय संस्कृति और भाषाओं पर प्रहार किया। काफी हद तक सफल भी हुआ क्योंकि आज भले ही भारत गुलामी से आजाद हो गया है, परंतु आज भी वह विदेशी भाषा का गुलाम बना हुआ है। आखिर हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान कहां चला गया है ?
किसी भी देश के निवासी को उसकी भाषा, संस्कृति, शिक्षा, संस्कार, नैतिकता पर स्वाभिमान एवं सात्विक गर्व होना ही चाहिये। 139 वर्ष पूर्व भारत का प्रत्येक भारतीय ऐसे राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रीय गर्व से ओतप्रोत था। जिसकी पुष्टि स्वयं उपर्युक्त वक्तव्य के एक-एक शब्द में गूंज रही है। आज प्रश्न है कि जो प्रतिबद्धता, चाहत संघर्ष क्षमता ब्रिटिश कौम में थी क्या आज वो 125 करोड़ भारतायों में है। कुछेक कह सकते हैं, परंतु कुछेक के पास इन प्रश्नों का उत्तर है या नहीं, यह वही जानते हैं। आखिर लॉर्ड मेकाले में ऐसा क्या था जो हम भारतीयों में नहीं है। हमारे पास सब कुछ ''सर्वोत्कृष्ठ'' है पर हम स्वयं से जानबूझ कर अंजान बने हुए हैं।
आज समय की आवश्यकता है कि हम सब लॉर्ड मेकाले द्वारा रोपित मानसिकता को जड़ों से उखाड़ फेंकें और भारतीयता के महान आदर्शों को आत्मसात करते हुए स्वयं को विदेशी तत्वों के समक्ष दीन-हीन व्यक्ति न समझें और कहें कि ''भारत वास्तव में विश्व में महानतम है।'' यह कार्य तभी संभव हो पायेगा जब संपूर्ण राष्ट्र भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुरूप हिंदी व समस्त भारतीय भाषाओं में अपना दैनिक कामकाज, चिंतन, आवसी संवाद करेगा तथा उसे अपने कार्य व्यवहार में अपनाऐगा तभी हरेक भारतीय हीन भावना के दायरे से मुक्त हो पायेगा।
भारत में कई भाषाएं बोली जाती हैं। कई भारतीयों को केवल हिंदी या अंग्रेजी ही नहीं बल्की कई भाषायें आती हैं। विदेशी भाषा अर्थात अंग्रेजी भाषा सीखना हमारी विलक्षण बौद्धिक क्षमता और विद्वत्ता का प्रतीक है। विदेशी भाषा सीखना अथवा उसका ज्ञान होना तो बहुत अच्छी बात है परंतु उसे अपने दैनिक कार्य व्यवहार में लाकर उसके अधीन हो जाना और अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करना सर्वथा अनुचित है। मात्र 4 प्रतिशत भारतीय ही अंग्रेजी पढ़ सकते हैं, बोल सकते हैं, लिख सकते हैं, लिख सकते हैं। मात्र 2 प्रतिशत सरकारी कार्यालयों/उपक्रमों/बैंक/बीमा कंपनियों आदि में कार्यरत हैं। शेष 96 प्रतिशत भारत कश्मीर से कन्याकुमारी व द्वारका से ब्रह्मपुत्र तक हिंदी व भारतीय भाषाओं में ही संवाद करता हैं व अपने दैनंदिन कार्यकलापों को पूरा करता है। जब सरकारी क्षेत्र इस 96 प्रतिशत भारत से सीधे जुड़कर राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करेगा, तभी देश सही दिशा में अग्रसर होगा तभी सर्वांगीण विकास संभव हो पायेगा, वरना संवाद हीनता की एक गहरी खाई प्रशासन व जनता के मध्य स्थापित रहेगी, दूरियां बढ़ती ही रहेगी।
उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर यदि आपके पास है और आप स्वयं को आज और अभी से ''सर्वोत्कृष्ठ'' भारतीय मानते हैं, साथ ही भारत की प्रत्येक भाषा, वस्तु, कार्यप्रणाली को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तो आज से ही संकल्प करें कि हमारे भीतर से लार्ड मेकाले और ब्रिटिश कौम की चाहत जड़ों से उखाड़ दी गई है और वह तार-तार होकर सुदूर विदेश चली गई है। अभी स्थिति इतनी जटिल नहीं हुई हैं कि इसको सुधारा न जा सके। बस आवश्यकता है एक पहल की। अपनी मानसिक सोच को बदलने की। अबअ निर्णय आपको करना है कि विदेशी भाषा सर्वश्रेष्ठ है कि हिंदी व भारतीय भाषायें सर्वश्रेष्ठ हैं या लार्ड मेकाले आज भी हमारी सोच में, भाषा में, अस्मिता में यह तथ्य मानने को विवश कर रहा है कि जो भी विदेशी है, वही सर्वश्रेष्ठ है।
हमारे वेदों में ज्ञान-विज्ञान के सभी सूत्र मौजुद हैं लेकिन वे सभी सूत्र संस्कृत भाषा में होने के कारण हमें उसका ज्ञान नहीं हो पाता है। विदेशी अनुसंधानकर्ता जो हमारे देश की संस्कृति व ज्ञान एवं विज्ञान का अध्ययन करने आये उन्होंने हमारे संस्कृत के सूत्रों का अपनी (अंग्रेजी) भाषा में अनुवाद किया और वही सूत्र हमें उनकी भाषा में बतायें इससे हमें लगता हैं कि यह उन्होंने ढुंढें हैं, और हमें उन्हें विदवान मानते हैं। जब कि हमारे भारत में आर्यभट्ट से लेकर भास्कराचार्य ऐसे कितने की संशोधन करने वाले वैज्ञानिक हो चुके हैं, जो यह आविष्कार पहले ही कर चुके हैं। लेकिन हमें यह सब पता नहीं होने के कारण हम विदेशी संशोधको का मानते एवं जानते हैं। गुरूत्वाकर्षण शक्ति का सिद्वांत हमारे ऋग्वेद में पहले से संस्कृत सूत्रों के रूप में मौजूद हैं। ऐसे कई सारे उदाहरण हम बता सकते है जिसकी खोच करने वाले सबसे पहले भारतीय ही थें। महर्षि कणाद ने सबसे पहले अणु की खोच की थी। अन्न के कणों को एकत्र करते हुए उन्हें पदार्थ सूक्ष्मतम इकाई अणू का विचार आया था। ग्रहों की संख्या एवं उनको गुण-विशेषणों के बारे में ज्योतिष में पहले से ही वर्णन किया पाया जाता है। गणितीय सिद्धांतों में भी भारत अग्रगण्य है। 4 वेद और 6 शास्त्रों को रचने वाले महर्षी व्यास हमारे भारत में ही हुए हैं, जो कि संपूर्ण विश्व को देन हैं।
सुपर कंप्यूटर बनाने वाला हमारा भारत देश हैं। विदेशों के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वालों में भारतीयों की संख्या 35 से 40 प्रतिशत हैं। वैद्यकिय क्षेत्रों में भी भारतीय आगे हैं। परमाणू एवं आण्विकी के क्षेत्र में भी भारतीय आगे हैं। कृषि की पैदावार में हमारे भारत की कोई तुलना नहीं हैं । विभिन्नता में एकता को पिरोने वाला भारत देश हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना करने वाले कई भारतीयों के नाम गिनाये जा सकते हैं। जिसमें स्वामी विवेकानंद सर्वश्रेष्ठ हैं जिनके आध्यात्मिक ज्ञान का लोहा पूरा विश्व मानता है उन्हें मनन किया जाता हैं।
लेकिन 150 वर्षों की गुलामी के कारण हमारी शक्तिस्थानों को हमारे भारत देश के कुछ लोग भूल चुके हैं, इसलिए विदेश में बनने वाली वस्तुओं एवं अन्य को हम सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। लौर्ड मेंकाले की पेट भरन शिक्षा पद्धति के कारण हमारे विद्या का हमें विस्मरण हो चुका हैं।
आज भी जब कभी कुछ नया स्वीकार करने की बारी आती हैं तो जब तक पश्चिम से उसका स्वीकार नहीं किया जाता तब तक हम उसे नहीं अपनाते हैं। परिवर्तन की धारा पश्चिम से पूरब की तरफ बहती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सूर्य का अस्त भी पश्चिम में ही होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखे गये सूत्रों का ही प्रात्यक्षिक आज के आधुनिक विज्ञान में देखने को मिलते हैं। गुरूत्वाकर्षण शक्ति का सिद्धांत हमारे ऋग्वेद में पहले से ही लिखा हुआ है। पायथागोरस के शोध के सिद्धांत भी वेदों मे मौजूद है। आज भी कंप्यूटर के लिए यदि कोई भाषा सर्वश्रेष्ठ है तो वह संस्कृत ही है।
विदेशी चष्मे से दिखाया गया |
हमारे सर्वश्रेष्ठ भारतीय होने का प्रमाण |
मनुष्य की उत्पत्ति: प्राय: विज्ञान की सभी शाखाओं में यह पढाया जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति आफ्रिका खंड में हुई। |
वास्तविकता यह हैं कि पृथ्वी पर सबसे पहले मनुष्य की उत्पत्ति मानसरोवर क्षेत्र, अर्थात हिमालयी क्षेत्र में सबसे पहले हुई हैं, और वही से वह पूरे विश्व में फैला है। इसका मतलब है कि पूरे विश्व के लोगों के आदि माता-पिता हमारे भारत के ही रहने वाले थे, जो प्राचीन काल में हिमालयीन क्षेत्र में रहते थें। इस दृष्टि से देखें तो शिव और पार्वती ही आदिम मनुष्य हैं। मनुष्य' शब्द से स्पष्ट होता है कि सभी मनुष्य मनु की संतान है, अर्थात उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। संदर्भ: सत्यार्थ प्रकाश, दयानंद सरस्वती, वैदिक विनय, आर्य समाज प्रकाशन देखें। |
किसी भी विज्ञान की शाखा के व्यक्ति से आप जानने की कोशिश करें कि पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई। इसके लिए वह आपको तीन सिद्धांत बताएगा, जो केवल अनुमान मात्र हैं। |
भारतीय वैदिक साहित्य में सूर्य, पृथ्वी, चंद्र, एवं अन्य ग्रहों की सटीक और स्पष्ट जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलती है। आर्यभट्ट, वराहमिहीर ने अपने सूर्यसिद्धांत में स्पष्ट रूप से विश्व उत्पत्ति की वैज्ञानिक परिभाषा को स्पष्ट किया है। |
पाश्चात्य देशों में पिछले तीन-चार दशकों में वैज्ञानिक जागरूकता के नाम पर नये नये सिद्धांतों की रचना की गई। औद्योगिक क्रांती ने यंत्रों के निर्माण और स्पर्धा को जनम दिया। |
भारत पहले से ही वैज्ञानिक सिद्धांतों के विदवानों की भूमी कही जाती रही है, जिसमें भौतिकवाद के स्थान पर दार्शनिकता को प्रश्रय मिला और'' जिओ और जीने दो'' के सिद्धांत का आदर्श माना गया। |
प्रकृति का दोहन करने का संदेश पाश्चात्य दर्शन सिखाता है और प्रकृति को अपना गुलाम बनाने के सपने देखना ही विदेशी विचारधारा का मूल है। |
भारतीय दर्शनशास्त्र कभी भी प्रकृति को अपना गुलाम नहीं बनाना चाहती, बल्की प्रकृति की शक्ति को स्विकार कर उसका संरक्षण करने की पहल ऋषि-मूनियों द्वारा की जाती हैं। भारत के सभी उत्सव और त्यौहार प्रकृति की पूजा के साथ-साथ विवेकपूर्ण उपयोग सिखाते हैं। प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप ही सभी त्यौहारों का क्रम दिखाई देता है। |
विदेशी चश्मे से हमें बताया गया कि भारत में अंग्रेज आने के पहले भारत में किसी भी प्रकार की शैक्षिक व्यवस्था और राजकिय व्यवस्था नहीं थीं। अंग्रेजों ने ही हमें वैज्ञानिकता के साथ जिना सिखाया इत्यादि। अंग्रेज न आते तो भारत में न ही रेल आती और न हीं हम विकास करते इसी विचार को पालने वाले लोग आपको मिलेंगे। |
भारत में अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भी भारत में समृद्ध शैक्षिक व्यवस्था के प्रमाण मिलते हैं। राजकिय व्यवस्था के भी प्रमाण मिलते हैं। भारत के पृथ्वीराज चौहान और शिवाजी राजा जैसे शुरवीर राजाओं के शासन के किस्से सभी को पता है। |
भारत में विज्ञान और तकनिकी को ज्ञान नहीं था ऐसा दुष्प्रचार बाकायदा शिक्षा संस्थानों के माध्यम से किया गया। जिसके कारण नयी पिढ़ी के लोग आज भी अपने आप को असहाय मानते हैं, और पाश्चात्य देशों में जाने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं। जिसके कारण भारत का प्रतिभा पलायन हो रहा है। |
वास्तविकता यह हैं, कि हमारे देश में ज्ञान, विज्ञान और तकनीक और प्रॉद्योगिकी के बहुतायत उदाहरण दिखाई देते हैं। यदि हमारे भारत में कुछ था ही नहीं तो बार-बार विदेशी आक्रमणकारियों ने हमारे देश पर आक्रमण क्यों किए। ऐसी कौनसी बात थी जो उन्हें आकर्षिक करती थी। आज भी विदेशों में हमारे देश के 35-40 प्रतिशत वैज्ञानिक, डॉक्टर, संशोधक और विद्वान मौजूद हैं। |
भारत में अंग्रेजो द्वारा आर्य और द्रविडों का भेद बनाया गया और बार-बार यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि, आर्य इस देश के मूल रहिवासी नहीं है। |
जबकि अब यह सिद्ध होने लगा है कि, भारत में आर्य कहीं बाहर से नहीं आए, बल्कि आर्य लोग भारत से पूरे विश्व में फैले हैं। भाषाविज्ञान के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। प्राचीन काल की संस्कृत भाषा के शब्द ही विदेशी, लैटीन, फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी भाषाओं में पाए जाते हैं। विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत ही है। आर्य कोर्इ जाति वाचक शब्द न होकर, वह गुणवाचक है, जो श्रेष्ठ हैं, वही आर्य हैं। |
इसके जैसे कई उदाहरण हैं, जिन्हें बताया जा सकता है। आप भी इस विषय पर 'मस्तिष्क-मंथन' करें। |