कल घूमती थी गांव में,
आज कमरे में दिखती हो
चांदनी रात के पहर में,
जाने किस से मिलती हो ।
कल झलकता था चेहरा,
मधुवन में एक तुम्हारा
आज रूप का सागर,
घूंघट में छिपाती हो ।
आंचल कहीं तुम्हारा
हो जाए ना मैला
हर बांके छैले को,
तुम अपना बताती हो ।
छुड़ा के दामन अपना
तुम बढ़ जाती हो आगे,
इसलिए सदियों से
बेवफ़ा कहलाती हो ।
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सुनील वर्मा