कानपुर और दिल्ली का शहीद भगत सिहं के क्रांतिकारी जीवन से गहरा रिश्ता रहा है। दिल्ली में उनका बार-बार आना-जाना रहता था। उन्होंने इधर 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका। कानपुर से छपने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारी अख़बार ‘प्रताप’ में नौकरी करते वक्त वे दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगा कवर करने आए । दंगा दरियागंज में हुआ था। वे दिल्ली में सीताराम बाजार की एक धर्मशाला में रहते थे।
अब कानपुर पर आते हैं। वे 1925 में प्रताप में नौकरी करने कानपुर गए थे। पीलखाना में प्रताप की प्रेस थी। वे उसके पास ही रहते थे। वे रामनारायण बाजार में भी रहे। वे नया गंज के नेशनल स्कूल में पढ़ाते भी थे। यानी कि उनका इन दोनों शहरों से खास तरह का संबंध रहा। पर, अफसोस कि इन दोनों शहरों में वे जिधर भी रहे या उन्होंने काम किया,बैठकों में शामिल हुए, उधर उनका कोई नामों-निशान तक नहीं है। उऩ्हें एकाध जगह पर बहुत मामूली तरीके से याद करने की कोशिश की गई है।
भगत सिंह के नाम पर स्कूल भी नहीं
भगत सिंह पढ़ाते थे,उसका नाम भी भगत सिंह पर नहीं रखा गया। अब सोच लीजिए कि कानपुर जैसे शहर ने उनको लेकर कितना ठंडा रुख अपनाया । किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि प्रताप से जुड़ने के चलते उन्हें समझ आया कि कलम की ताकत के बल पर बहुत कुछ किया और बदला जा सकता हैं।
‘प्रताप’ में भगत सिंह ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदाक्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। भगत सिंह यहां पर बैठक घंटों ही पढ़ते थे। वस्तुत: प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी।
खंडहर होती प्रताप की इमारत
अब ‘प्रताप’ की इमारत खंडहर में तबदील हो रही है, पर इमारत के बाहर एक स्मृति चिन्ह तक नहीं लगा जिससे पता चल सके कि इसका भगत सिंह के साथ किस तरह का संबंध रहा है। कानपुर से वर्तमान में केंद्रीय कैबिनेट में दो मंत्री हैं। काश, इन्हें कोई बताए कि कानपुर में भगत सिंह से जुड़ी जगहों के बाहर कम से कम स्मृति चिन्ह ही लगवा दिया जाए।
दिल्ली में 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में भगत सिंह ने बम फेंका। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने “इंकलाब! – जिन्दाबाद!! साम्राज्यवाद! – मुर्दाबाद!!” का नारा लगा रहे थे और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल रहे थे।
इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया। उस स्थान ( संसद) में उस घटना के 79 वर्षों के बाद उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। हालांकि उस प्रतिमा को लेकर भगत सिंह के परिवार को आपत्ति है। उनका कहना है कि संसद में लगी प्रतिमा में उन्हें पगड़ी पहने दिखाया गया है। जबकि वे यूरोपीय अंदाज की टोपी पहनते थे।
क्या भगत सिंह जैसी शख्सियत, जिनसे पीढ़ियां प्रभावित और प्रेरित होती रही है, को शहीद या शहीद-ए-आजम का दर्जा कोई सरकार कब देगी? भगत सिंह पर दशकों से शोध कर रहे डा. चमन लाला ने उन पर लिखी किताब का शीर्षक ‘भगत सिंह’ ही रखा। उन्होंने शहीद या शहीद-ए-आजम का जिक्र नहीं किया। वे कहते हैं कि शहीद तो भगत सिंह के अलावा राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर, खुदी रामबोस समेत सैकड़ों हुए। इन सभी को जनमानस स्वत:स्फूर्त भाव से शहीद पुकारने लगा। तो भगत सिंह शहीद-ए-आजम कैसे बन गए?
डा. चमन लाल कहते हैं कि भगत सिंह संभवत: देश के पहले चिंतक क्रांतिकारी थे। भगत सिंह को फांसी की सज़ा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले ‘प्रताप’ और इलाहाबाद से छपने वाले ‘भविष्य’ जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था। यानी कि जनमानस ने उन्हें अपने स्तर पर ही शहीदे-ए-आजम कहना शुरू कर दिया था। जब भगत सिंह को शहीद-ए-आजम अवाम कहने लगे तो सरकार कहां से आती है।
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