ओ प्रिये !
जब भी मिलते हो प्रियेकुछ अनकहा कह जाते होमन वीणा की तान कोतुम झंकृत कर जाते होतुम दूर कहीं भी होते होमैं तुमको देखा करती हूँअपनी सांसों की डोर मेंकुछ यादें पिरोया करती हूँये नेह कोई अनुबंध नहीराग -अनुराग का खेला हैमेरे आँगन के अम्बर मेंनित लगता तारों का मेला हैतुमसे रूठू