जब भी मिलते हो प्रिये
कुछ अनकहा कह जाते हो
मन वीणा की तान को
तुम झंकृत कर जाते हो
तुम दूर कहीं भी होते हो
मैं तुमको देखा करती हूँ
अपनी सांसों की डोर में
कुछ यादें पिरोया करती हूँ
ये नेह कोई अनुबंध नही
राग -अनुराग का खेल ा है
मेरे आँगन के अम्बर में
नित लगता तारों का मेला है
तुमसे रूठू या तुम्हे मनाऊ
कुछ फ़र्क
नही अब पड़ता है
स्नेह के इस करोबार में
दृग मोती कौन गिनता है