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एक गज़ल

11 जुलाई 2017

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विलायत गया न वकालत पढ़ी है।

चेहरों पे लिक्खी इबारत पढ़ी है।


पढ़ी हैं किताबें, मगर बेबसी में

लगाकर के दिल, बस मुहब्बत पढ़ी है।


न कर जुल्म इतने के सब्र टूट जाये

मेरे भी दिल ने बग़ावत पढ़ी है ।


मुनाफे से कम कुछ न मंजूर इसको

दुनिया उसूल-ए-तिज़ारत पढ़ी है |


मुस्कुराये लब, तो खुश मान बैठे

दिल की भी तुमने क्या हालत पढ़ी है |


©योगेन्द्र सिंह "संजय"

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