ग़ज़ल
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जो जीते जी न आए वो अज़ादारी को आएंगे |
अभी कुछ लोग मदफ़न पे अदाकारी को आएंगे॥
मुझे ये रात में भी चैन से सोने नहीं देंगे |
कुछ इक हैं ख़ाब जो नींदों में गम- ख़्वारी को आएंगे॥
यक़ीं गर हो नहीं आवाज़ देकर के ज़रा देखो |
मेरे पाले हुए ग़म हैं वफ़ादारी को आएंगे॥
लहू का एक भी कतरा मेरा ज़ाया नहीं होगा |
हैं मुस्तक़बिल के ग़म बाकी जो ख़ूँ- ख़्वारी को आएंगे॥
इलाजे ग़म ही बस करते मुझे तुमने यहाँ देखा |
अभी तुम देखना कुछ लोग बीमारी को आएंगे॥
कहो झुठलाओगे कैसे मेरे अश्कों के सागर को |
कयी दरिया हैं जो मेरी तरफ़दारी को आएंगे॥
हुदूदे ग़म कहा क्या अब भी बाकी है, अभी कुछ लोग |
हमारे बाद भी यानी ग़ज़ल कारी को आएंगे॥
मुझे बेबस करेंगे पहले वो मा'ज़ूर होने तक |
वो ही फिर लेके बैसाखी मदद-गारी को आएंगे॥
- अमन कुमार साव "हैफ़"
शब्दार्थ:-
अज़ादारी- शोक मनाना / मदफ़न- क़ब्र / अदाकारी- नाटक करना / ग़म ख़्वारी- हमदर्दी / इलाज ए ग़म- ग़म का इलाज /
हुदूद ए ग़म- ग़म की सीमा / ग़ज़ल कारी - ग़ज़ल कहना या लिखना / मा'ज़ूर- विवश, मजबूर