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ग़ज़ल

16 सितम्बर 2021

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ग़ज़ल
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ये ख़ौफ़-ए- ख़ामुशी और ख़ौफ़ वहशतों का भी |
ग़म-ए- हयात का दुख और कुछ आदतों का भी॥ 

उदास जिस्म को शीशे में देख कर जाना |
रखा है बोझ कहीं इसपे हसरतों का भी॥ 

शिकस्तगी पे मेरी तंज़ कर न यूँ हरदम |
भरम ज़रा सा तो रख ख़ुद में किस्मतों का भी॥ 

गये हरम में भी तो सर में ले गए सौदा |
ख़याल कुछ तो किया होता रहमतों का भी॥ 

हद-ए- नवर्दी- ए-सहरा के पार जाना है |
कि ज़िक्र कुछ तो करो इसकी वुसअतों का भी॥ 

है बेक़रार कि फिर से हयात मिल जाए |
हुआ न रंज ज़रा सा नदामतों का भी॥ 

ज़मीर बेच के हमसे न इश्क़ हो पाया |
भरम है तोड़ा सदा हमने उल्फ़तों का भी॥ 

यूँ रायगाँ न लिखें ज़िन्दगी को "हैफ़" सदा |
यक़ीन कुछ तो करें आप इबादतों का भी॥ 

- अमन कुमार साव "हैफ़"

ख़ौफ़ ए ख़ामुशी- सन्नाटे का डर / वहशत- पागलपन/ शिकस्तगी- हार, दुख / हरम- मस्ज़िद / हद - ए- नवर्दी - ए - सहरा - रेगिस्तान में भटकने की सीमा/ वुसअत- विस्तार / नदामत- पश्चाताप, अफ़सोस / उल्फ़त- मोहब्बत / रायगाँ- ब्यर्थ

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