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ग़ज़ल

10 फरवरी 2017

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इन बंज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है

प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है


कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक

बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है


उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर

उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है


अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं

बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है


दैर-ओ-हरम, दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे उनको

वो जो बशर के दिल के अंदर कल भी था और आज भी है


वक़्त का मरहम भी "जय" इसको भरने में नाक़ाम रहा

दिल पे निशान-ए-ज़ख्म-ए-नश्तर कल भी था और आज भी है


© जयनित

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11 फरवरी 2017

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