यह फूल इस सृष्टि का अनमोल उपहार है। कितना सुंदर, मनमोहक और आकर्षक है। वास्तव में प्रकृति की दी हुई हर चीज सुंदर होती है। जिसमें फूलों की तो बात ही कुछ और होती है। रंग विरंगे फूल अपने रंग रूप और सुगंध को फैला देते हैं। जिससे प्रकृति के रूप सौंदर्य में और अधिक निखार आ जाता है। जबकि इन फूलों का जीवन सिर्फ चंद दिनों का होता है। इन चंद दिनों में खिलना, मुस्कुराना, रंग रूप बिखेरना और फिर मुरझा जाना। मुरझाना अर्थात मिट जाना, उसके जीवन का अंत होना। पर मुरझाने से पहले निस्वार्थ भाव से रंग रूप व सुगंध को बिखेरकर जीवन को सार्थक बना लेता है।
प्रकृति की हर चीज हमें जीवन की सीख और प्रेरणा देती है। सूर्य और चंद्रमा को ही ले लो। समय के साथ उदय होना और समय के साथ अस्त होना, जग को निस्वार्थ भाव से रोशनी देना, अनुशासन व नियम की सीख देना। नदी और वृक्ष को ही ले लो। नदी के जल का सेवन दूसरे प्राणी करते हैं और अपनी तृष्णा मिटाते हैं। वृक्ष निस्वार्थ भाव से फल, फूल, पत्ते और लकड़ी देकर परोपकार का कार्य करता है। पशु पक्षी उसकी छाया में सुस्ताते हैं। प्राणदायिनी वायु प्रदान करके वृक्ष पर्यावरण के संतुलन को बनाये रखता है।
मनुष्य को इन सबसे जीवन जीने की सीख लेनी चाहिए और जीवन को सार्थक बनाने की सीख मिलने के कारण इन्हें गुरु मानना चाहिए। अपने इन गुरूओं के प्रति उसे कृतज्ञ भी होना चाहिए। मनुष्य को भी अपने जीवन में परोपकार को अपनाना चाहिए।
"आओ फूलों से हम सीखें, समय से खिलना और मुरझाना,
रंग रूप और सुगंध बिखेरकर अपनी अदा पर इतराना..,
जीवन चार दिनों की पाकर आजीवन मुस्कुराते रहना,
स्व से सर्व में परिवर्तित होकर अंत में मुरझा जाना..।"
प्रकृति और मानव जीवन के बीच गहरा संबंध है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। प्राकृतिक संसाधनों व संपदा का उपभोग मानव धड़ल्ले से करता है पर उसके प्रति थोड़ा लापरवाह हो जाता है। लोभ और लालच में आकर स्वार्थी बन जाता है और प्रकृति का दोहन करने लगता है। प्राकृतिक संसाधनों व संपदा को क्षति पहुंचाने लगता है। जबकि उसका संरक्षण करना उसका परम कर्तव्य होना चाहिए पर वह कर्तव्यपरायण नहीं है। नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन सही तरीके से नहीं करता है। जिसके कारण प्राकृतिक संपदा और सौंदर्य नष्ट होने लगता है और पर्यावरण में असंतुलन बढ़ने लगता है। इसका दुष्परिणाम भी मानव के साथ समस्त जीवों को झेलना पड़ता है।
कहने को तो मानव सृष्टि का सबसे बुद्धिमान और श्रेष्ठ प्राणी है। उसकी बुद्धि ही उसे श्रेष्ठ और शक्तिशाली बनाती है। वह अत्यंत समझदार है फिर नासमझी का कार्य कैसे करता है…? बेशक स्वार्थ…. हाँ स्वार्थ में मनुष्य अंधा हो जाता है। आपने सोचने समझने की शक्ति खो बैठता है अर्थात उचित और अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता है। जबकि प्रकृति का इस प्रकार से दोहन करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। उसका उपभोग करने के कारण उसका संरक्षण करना नैतिक उत्तरदायित्व बनता है और इसी दायित्व का निर्वाह करना है।
प्राकृतिक संसाधनों व संपदा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए और पर्यावरण का संतुलन बनाये रखने के लिए मनुष्य को इस तरह के कदम उठाने पड़ेंगे ➖
⏺️ अधिक से अधिक संख्या में वृक्ष लगाना चाहिए।
⏺️ वृक्षों की देखभाल और संरक्षण करना चाहिए।
⏺️ वृक्षों की कटाई तत्कालिक प्रभाव से बंद करना चाहिए।
शास्त्रों में तो वृक्षों की तुलना देवों और संतानों से की गई है। एक तरफ हमारी संस्कृति में वृक्षों की पूजा करने की परंपरा मिलती है तो दूसरी तरफ इसे पुण्य का कार्य बतलाया गया है। कहते हैं कि एक वृक्ष लगाकर उसकी देखभाल करना संतान के पालन पोषण जैसा ही है। पहले भी सड़क के दोनों किनारों पर वृक्ष लगाये जाते थे जिससे की राहगीरों को शीतल छाया मिल सके। जगह जगह बैग बगीचे भी इसी उद्देश्य से लगाये जाते थे। इससे फलों की प्राप्ति के साथ - साथ वातावरण भी शुद्ध रहता है। चारो तरफ हरियाली ही हरियाली रहती है। पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। अतः वृक्ष लगाना हर एक मानव का उत्तरदायित्व है।
कहते हैं कि ➖
"वृक्ष रहेंगे तो हम रहेंगे….. हरियाली रहेगी तो खुशीहाली रहेगी..।"
➖ प्रा. अशोक सिंह