मेरा एक अन्तरंग मित्र और मैं अक्सर इस बात पे घंटों बहस करते हैं कि हमारी सोच बिलकुल भिन्न है फिर भी हम इतने दिनों से साथ कैसे है ?? घंटों की बहस के बाद हर बार निष्कर्ष निकलता है 'मतभेद होना चाहिए मनभेद नही'। सच है अक्सर ऐसा होता हैं कि वैचारिक मतभेद होने पर लोग मनभेद स्वतः पैदा कर व्यक्तिगत संबंधो में भी दूरी बना लेते हैं। मतभेद से आशय है विचारो में अंतर होना। भिन्न-भिन्न मतों के साथ लोग न केवल जीवन भर एक साथ रह सकते हैं, काम कर सकते हैं, बल्कि भिन्न-भिन्न मतों और विचारधाराओं के संगम से नई बात,नये विचार समाने आतें है और मनुष्य विकास की ओर बढ़ता है! परन्तु मनभेद अर्थात दिलों में अंतर होने से विनाश की ओर बढ़ता है, मनुष्य-मनुष्य से दूर होने लगता है ! महर्षि तुलसीदास ने भी रामायण में कहा है :
जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना,
जहाँ कुमति तहँ विपति निधाना ।।
मति अर्थात सोच जो एक व्यक्ति के मन में किसी दुसरे व्यक्ति के लिए उपजे हों। जहाँ सुमति होगी वहां सुख-सम्पत्ति और विकास की प्राप्ति होती है जबकि कुमति विनाश और विपत्ति का कारण बनती है ।
अक्सर लोग मानते हैं कि फला व्यक्ति से मेरी नहीं बन सकती क्यूंकि उसकी सोच-विचारधारा मुझसे बिलकुल भिन्न है । वैचारिक सम्बन्ध अलग चीज़ हैं और व्यक्तिगत सम्बन्ध अलग । वैचारिक रूप से तो कर्ण और दुर्योधन भी एकदम विपरीत थे किन्तु फिर भी आज तक दोनों की मित्रता की मिशाल दी जाती हैं। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के विचार गाँधी से बिलकुल भी मेल नही खाते थे, फिर भी बोस जी गाँधी को पिता के समान सम्मान देते थे ।
बहुधा मतभेद से हम अज्ञान के कारण मनभेद उत्पन्न कर बैठते है यह मनभेद वास्तव में स्वार्थ का पर्याय है और इसका उदय भी अज्ञान के कारण होता है। आवश्यकता इस बात कि है कि हम हर परिस्थिति और कर्म को अलग दृष्टीकोण से भी सोच कर देखें, शायद यहीं से आपको अच्छे-ख़राब का असल भेद ज्ञात होगा। मगर किसी भी हाल में मतभेद के कारणों को मनभेद तक ना आने दें,अन्यथा आपकी तमाम क्रियाशीलता एक स्वार्थ, जलन और हीन भावना का रूप ले बैठेगी और आपका विकास मार्ग स्वयं अवरुद्ध हो जायेगा ।