जाने कौन था मेरे अंदर
दरियाओं के संग बहता था,
अपने अंदर खुश रहता था,
हर ग़म को हँस कर सहता था,
गीत, ग़ज़ल नज़्में कहता था।
जैसे हाथों बीच समंदर,
जाने कौन था मेरे अंदर।
आसमान पर नज़र टिका कर,
गहरे पानी भीतर जा कर,
सुख दुख के कुछ मोती पाकर,
तन्हाई में नग्में गाकर,
जीता जैसे मस्त कलंदर,
जाने कौन था मेरे अंदर।
भरी जवानी में मद माकर,
पढ़ के प्रेम का ढाई आखर,
सपने आँखों बीच सजाकर,
मन सपनों के साथी पाकर,
बन बैठा था एक सिकंदर,
जाने कौन था मेरे अंदर।
उम्र की सीढ़ी चढ़ कर सीखा,
वक़्त के साथ फिसल कर सीखा,
गिर कर और संभल कर सीखा,
जीवन आधा जीकर सीखा,
बुरा है क्या और क्या है सुन्दर,
जाने कौन था मेरे अंदर।
आँख खोल कर ढूंढा मैंने,
आँख मूँद कर देखा मैंने,
दे आवाज़ बुलाया मैंने,
फिर भी उसे ना पाया मैंने,
सच मुच था या जादू मन्तर,
जाने कौन था मेरे अंदर।
अखिलेश कृष्णवंशी