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न जाने कब समझेंगे लोग

12 नवम्बर 2017

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तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई आँख मिलाकर बात करने की, अपनी औकात मत भूलो कि तुम क्या हो! लड़की हो लड़की की तरह रहो, ज्यादा जुबान न चलाओ।


क्या ज़रूरत है तुम्हे पढ़ने की,अच्छे से घर मे तुम्हारा ब्याह तो हो ही जाएगा, कुछ यूं ही हमारा समाज लड़कियों को मानशिक बेड़ियों से जकड़ देता है।

उसके सपनो के कोई मायने नही होते क्योंकि सपने देखने का हक़ तो सिर्फ बेटों को है, और इसी तरह उनकी सारी ख्वाहिशे, पिंजरे में कैद उस पंछी की तरह सिमट जाती है, जिसे घर की सजावट के लिए उसका ख्याल तो रखा जाता है लेकिन उसकी ख़्वाहिशों का कोई मायना नही होता।


दरअसल बेवजह के मुद्दों पर बहस तो हम सब करते हैं पर ऐसे सामाजिक मुद्दों पर बात करना बेवकूफी समझते है, पिछले साल एक क्लीनिक के पीछे बहते गंदे नाले में 50 भ्रूण तैरते मिलें, हाँ ऐसा कह सकते है कि 50 बेटियों का कोख में ज़िंदा मार दिया गया, तब कितनी आवाज़े उठी, फ़िज़ूल मुद्दें है।


हमारी सोच का दायरा क्या है? हम धार्मिक मुद्दों पर बहस करते है- पर बेटियों का तो कोई धर्म नही होता, तभी शायद हम ढोंगी ख़ामोश हो जाते हैं। यही हमारा दोगला चरित्र है।

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