वह जीवन भी क्या जीवन है,
जिस जीवन में कोई सार नहीं।
वह वीणा भी क्या वीणा है,
जिस वीणा में झंकार नहीं।।
जो भरे घमण्ड में फिरते हैं।
बुद्धि भी जिनकी मारी है।
जिन्हें भले बुरे का ज्ञान नहीं,
वो शासन में अधिकारी हैं।
मैं किसे सुनाऊं दु:ख अपना।
कोई सुनने को तैयार नहीं।
ये दुनियां केवल मतलब की,
यहां कोई सच्चा यार नही।।
यहाँ रोती है अब मानवता,
यहाँ चरमपंथ अब भारी है।
यहाँ बेशर्मी ने हद लांघी,
अब नंगे नाच तैयारी है।।
हो राजनीति या धर्मनीति,
सब में ही भ्रष्टाचार भरा।
अब दया-धर्म सब खत्म हुआ,
अब सारा शिष्टाचार मरा।।
यहाँ किया भरोसा बहुतों पर,
बहुतों पर आश लगाई है।
जब देखा निर्णय अन्तिम तो,
यहाँ सबमें भरी निठुराई है।
सब लगे हुऐ घर भरने मे,
'सीता' ने ये ही जाना है।
नेता और साधु सबने ही,
पैसे को ईश्वर माना है।।
।। सीता राम ।।