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कहानी स्वयं पराजित

4 दिसम्बर 2021

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 “स्वयं-पराजित”  

   --राजा सिंह 

उसकी नींद खुल गई थी। उसने अपना सर
कछुवे की तरह रजाई से बाहर निकाला। आंखों में प्रकाश पड़ने से आंखें चुंधियां सी
गयीं। सर को एक झटके से फिर रजाई के अन्दर कर लिया । अब वह रजाई के भीतर ही भीतर
बांयी ओर खिसक गया। अब की बार आंखे  बन्द
किये ही सर को बाहर निकाला । वह अपने को आश्वस्त कर लेना चाहता था कि धूप उसकी
आंखों में पड़ रही है या नहीं। उसने धीरे से आंखें खोली । रोशनदान से धूप उतर कर
पलंग के दायीं ओर आ बैठी थी। उसने आहिस्ता से अपने को रजाई से मुक्त किया और लेटे
ही लेटे एक भरपूर अंगड़ाई ली। करवट बदल कर अलार्म घड़ी को देखा....साढ़े आठ। उसके
चेहरे पर मुस्की तैर गयी। मन ही मन बुदबुदाया ......धत तेरे की....।  

कल रात सोते समय उसने निश्चय किया था
कि सबेरे चार बजे उठकर कहानी लिखेगा। कहानी का प्लाट कई दिनों से उसके जेहन में
चक्कर काट रहा था .....पता नहीं कब अलार्म बज गया । खैर ...दोपहर को लिखूंगा। यह
सोचकर वह आश्वस्त हुआ। लेटे ही लेटे उसने चाय के लिये आवाज दी और आंखें मलने लगा।
आंखों में हाथ रखकर वह कुछ देर निश्चल पड़ा रहा ।  

आहट पर धीरे से आंख उठाकर देखता है। मां
चाय और अखबार लेकर आयीं थीं। वह धीमे-धीमे चाय पीता रहा और अखबार पढ़ता रहा। मां
सामने ही स्टूल में बैठी उसके मूड को परख रही थीं।  

क्या बात है मां ? उसने
चाय और अखबार एक साथ समाप्त करके बडे़ दुलार से पूछा।  

मां ने अपने भीतर साहस महसूस किया।
‘ऐसा है...कल तुम्हारे बाबूजी ..‘ कह कर वह फिर उसकी प्रतिक्रिया देखने लगीं।  

‘कहती जाओ‘, उसकी मुखाकृति
बदलती मालूम पड़ रही थीं। वह लापरवाही से पलंग पर पसर गया था।  

‘एक प्राइवेट स्कूल में डेढ़ हजार रूपये
की मास्टरी की जगह खाली है। उन्होंने तुमसे पूछने को कहा है। प्रिंसपल तुम्हारे
बाबूजी के जान पहचान का है।‘ यद्यपि माँ को उसका जवाब मालूम था। परन्तु वह सोचती
थी कि प्रयत्न करने में क्या हर्ज हैं।  

‘तुम मेरी औकात डेढ़ हजार रुपये की समझती
हो।‘ उसने बड़ी झुंझलाहट से जवाब दिया। मैं कई बार कह चुका हॅू कि इस प्रकार छोटी
मोटी नौकरी मुझे पसंद नहीं है। फिर भी तुम लोग मेरा खून पिये रहते हो। जाओ ! अपना
काम करो जाकर । बेकार के लफड़े में न पड़ो। जब कोई नौकरी मेरे अनुरूप मिलेगी,
मुझे
देर नहीं लगेगी उसे हथियाने में।‘ 

‘पता नहीं कब अच्छी नौकरी मिलेगी ?‘
मां
बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर हो रहीं थीं: चार साल हो गये एम0 ए0
करे हुये। अच्छी नौकरी मिलना क्या ? कहीं से इंटरव्यू तक आया नहीं हैं।
छोटी-मोटी नौकरी लाट साहब करेंगे नहीं। ‘ मां का बड़बड़ाना चालू हो जाता है तो
मुश्किल से ही थमता है। ‘अरे मैं कहती हूँ दो-चार ट्युशन ही कर ले तो कम से कम खुद
का खर्चा तो निकाल ले । पता नहीं कब तक पराये बूते खाता रहेगा।‘  

‘अब चुप भी करो।‘ यह कहते हुए वह काफी
बेबस हो गया था। उसका मूड बुरी तरह से आंफ हो गया । उसने जल्दी से घर के बाहर का
रास्ता नापा।  

  

 ......सड़क पर वह काफी
धीमे कदमों से चल रहा था-एक दिशाहीन पड़ाव की तरफ । बोझिल कदमों के साथ उसका दिमाग
भी बोझिल था। वह महसूस करता हैं उस पर काफी जिम्मेदारी हैं। बड़ी बहन की शादी की
समस्या छोटे भाइयों की पढ़ाई की समस्या, घर के खाने खर्चे की समस्या और खुद
अपने खर्चे की समस्या। इन सब समस्याओं को फेन निकालते भैंसे की तरह ढोते बाबूजी।
सड़क पर पड़े कंकण को उसने पैरो से लुढ़का दिया। बड़ी देर तक वह लुढ़कते हुये कंकड़ को
देखता रहा । उसे लगा कुछ दिनों बाद उसकी भी नियति इस कंकड़ की तरह हो जायेगी।  

रास्ते में कमल दिख गया, वह
और कमल साथ-साथ पढ़े हैं, कमल को बैंक में नौकरी करते तीन साल हो
रहे हैं ? कभी वह और कमल काफी गहरे मित्र थे। कमल अब भी उससे काफी खुल कर मिलता
हैं। परन्तु वह उससे कन्नी काटता है। वह हीन भावना से ग्रसित हो जाता है, जब
भी कमल दिखता है। शायद वह उससे ईर्ष्या भी करता है। 

कमल उसी की तरफ आ हा था कमल ने उसके
दोनों कन्धे पकड़ लिये ‘मैंने कहा, कहां जा रहे हो? गुमसुम‘ उसे लगा
उसके स्वर में जिज्ञासा नहीं सहानुभूति हैं । 

‘बस ऐसे ही‘ उसने बड़े निर्विकार भाव से
उत्तर दिया था।  

कमल ने उसे कुरेदा-‘कहीं से इण्टरव्यू
आदि के लिये आया है?‘ 

‘नहीं‘। उसने एक नजर उठाकर बड़े शान्तिः
से जवाब दिया, उसे कमल पर कोफ्त सवार हो गयी थी, उसे लगता है कि
कमल जानबूझकर उसके ऐसे सवाल पूछकर उसकी दुखती नस को छेड़ता हैं।  

‘तुम्हारे लेखन के क्या हाल-चाल है ?‘
कमल
ने फिर कोंचा। 

‘भाड़ में गया लेखन‘ वह काफी बोर महसूस
करता है। उसका गुबार फूट पड़ना चाहता है । परन्तु वह जब्त कर गया था।  

‘चलो पिक्चर चलते है।‘ कमल उसका हाथ
पकड़कर चलते हुये बोला।  

‘नहीं-ई‘ । उसने हाथ छुड़ाकर चलते हुये
कहा। उसकी आवाज काफी ऊंची थी। उसे खुद अपनी आवाज पर झेंप महसूस हो रही थी। कमल समझ
गया था.........कि शायद घर में तकरार हो गयी है। और ऐसे मौके पर उसे अकेला छोड़
देना ज्यादा बेहतर होगा। उन दोनों के बीच कुछ दूरी तक शब्दहीन वार्तालाप था।
एक-दूसरे के प्रति सोच और मनन । 

‘अच्छा तो मैं चलता हॅू‘ कमल हताश सा
बोला । उसने कोई जवाब नहीं दिया । सिर्फ कमल का जाना देखता रहा। वह काफी देर तक
भटकना चाहता था एकदम से पता नहीं क्या सोच कर वह घर की तरफ लौट आया।  

....खाना खाते समय
घर में एक घुटा-घुटा सा माहौल व्याप्त था। एक-दो कौर के बाद वह इधर-उधर देखता है।
बाबूजी चुपचाप खाना खा रहें है। मांग उसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद घूर लेती थी। कभी-कभी
सन्नाटा हिलने लगता था, जब मां बिना पूछें रोटी रखने लगती थी। उसने महसूस कर लिया था कि
बाबूजी एवं मां में लड़ाई हुयी होगी-जिसका कारण निश्चय ही वहीं होगा।  

‘बेटा तुम ये नौकरी कर क्यों नहीं कर
लेते ?‘ मां ने शायद बड़ी हिम्मत बटोर कर कहा था। उसने सिर्फ एक नजर उठाकर मां
की तरफ देखा। फिर बाबूजी की तरफ। वे शायद इस समय यह प्रसंग छेड़े जाने को तैयार नहीं
थे। उनके चेहरे पर एक सपाट निःशब्द प्रतिक्रिया क्षण भर में गुजर गयी।  

‘जब तुम्हें अच्छी नौकरी मिल
जाये....तुम इसे छोड़ सकते हो। ‘ मां को शायद उसके प्रतिरोध हीन चेहरे से उत्साह
मिला था । आखिर कब तक ऐसे चलेगा ? वह आंखें फाड़ते हुये मां को देखने लगा
। उसे खाने से गंध आने लगी थी। वह गंध उसे अपने में घेरने लगी। उस के दिलों दिमाग
में एक पागल सी सनक घूमने लगी। एक अजीब सी वितृष्णा उसे जकड़ने लगी थीं।  

 अचानक
उसने थाली उठा कर आंगन में फेंक दी। और उठकर खड़ा हो गया। मां और बाबूजी हतप्रभ रह
गये, जड़वत हो गये थे।  

 ‘हर समय
वही बकवास,...‘मैं तुम लोगों को बोझ लगता हॅू।‘ दिल के भीतर एक गुबार उठा और वह
फूट गया था। वह चीखने लगा....‘ मैं इस घर में अब कभी नहीं आऊँगा और उन लोगों की
प्रतिक्रिया देखे बिना ही वह घर से बाहर हो गया था । 

 कितनी
देर वह उस दिन लाइब्रेरी में बैठा रहा, उसे कुछ पता नहीं चला। वह अपने ही
ख्यालों में सिकुड़ कर बैठा था, वह कमरे, किताबों अखबारों,
मेज,
कुर्सी
सबसे बाहर था। उसने हर अखबार, हर पत्रिका उलट डाली थी। क्या पढ़ा था ?
कुछ
ध्यान नहीं था। बड़ी देर तक वह एकटक चलते हुये पंखे को घूरता रहा था। लाइब्रेरी
खाली हो चुकी थी, सभी लोग जा चुके थे। शायद टाइम हो चुका था। चपरासी उसकी तरफ आ रहा
था। वह उठ खड़ा हुआ।  

 बाहर
दूर-दूर तक लॉन  बिछा हुआ था। बाहर का
अंधेरा उसके भीतर धीमे से घुस आया था। शरीर के बाहर और भीतर के सन्नाटे में एक
व्यवधान था ..........उसकी चप्पलें। वह लॉन में लेट जाता है। चप्पलों को तकिये के
रूप में प्रयोग करता हैं ।  

 अचानक
उसके भीतर एक दुःख दहकने लगता है। बाबूजी उसे ढूंढ रहें होंगे । मां रोते-रोते निढाल
हो आयी होगी। अब शायद उसके लौट आने की राह देख रही होगी। उसके भाई-बहन गुमसुम बैठे
होंगे।  

  एक छोटा सा डर उसके दिलों-दिमाग में
छाने लगा था। एक अनिश्चित भविष्य का खोफ, यह चिन्ता उसके सारे शरीर को मथनी की तरह
मथ डाल रही थी। क्या पेट के लिए उससे भी बदतर हालातों से सामना नहीं करना पड़ेगा,
जिसके
लिए वह घर छोड़ आया है।  

 उसने
आंखों से हाथ को हटाया। ऊपर विशाल आकाश सीना ताने खड़ा था। बादल का एक टुकड़ा उसकी
ओर देखकर सरक गया। शायद वह भी उसके पास ठहरना नहीं चाहता था। उसकी नींद बादलों के
साथ बड़ी दूर चली गयी थी । जिसका लौटना उस दिन मुश्किल था। ‘अब, मैं
कहां हॅू ? ‘ …..उसने अपने से पूछा ? लेटे-लेटे वह काफी देर तक अपने से
बातें करता रहा। लान में पड़े-पड़े वह ठंड से सिकुड़ सा गया था। पेट के भीतर भूख का जीवित ज्वालामुखी फूट गया था। जिसका
लावा सारे शरीर में फैल गया था। बाहर हवा सांय-सांय कर रही थी। उसकी जिद वाष्प
बनकर उड़ रही थी। जो चारों ओर झींगुरों की आवाज के साथ मिलकर शोर कर रही थी।
धीरे-धीरे उसका शोर बढ़ता ही जा रहा था। 

 वह
उठ बैठा। सामने बाबूजी खड़े थे। सुन्न स्तब्ध और आंखें फाड़ते हुये। उसने ग्लानि से
सर झुका लिया।  

 ‘चलो
घर।‘ उन्होंने धीरे से उसके बालों को छूआ, एक सिहरन सर से चल कर पैरो तक गुजर गयी।
उनके स्वर में बुलावा था, धीरज था ।  

 ‘नहीं
....नहीं ......नहीं..‘ वह चीख पड़ना चाहता था। परन्तु आवाज गले में दम तोड़ गयी थी।
 

  ‘पागलपन नहीं
करते है।‘ उनके स्वर में कराहट थी। बाबूजी ने उसे अंगुली पकड़कर उठाया था। वह अपनी
अंगुली न छुड़ा सका और उनके साथ चल पड़ा।  

  

राजा सिंह 



  

  

   

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