
मैं निकला एक कुंए के पास,
देखा मैंने उसमे अनायास !
जल में तैर रहा था भुजंग,
चिल्ला रहे थे जल विहंग !
तभी दृष्टि पड़ी मेरी उस ओर,
एक मेढक लटका था ईंट की कोर !
मैंने देखी दशा उस दादुर की,
जैसे लग रही थी चमगादुर की !
मैंने उठाया रस्सी और घट,
डाल दिया उसमे झटपट !
वह उछलकर घट पर चढ़ा,
मैंने ऊपर खीचा वह मेरी ओर बढ़ा !
बाहर आकर हर्ष का हुआ संचार,
उसने जोर से की टर्र की पुकार !
मैंने कहा हे दादुर मेरे भाई,
किसने तुम्हारी यह दशा बनाई !
था रहता सपरिवार इसी कुआँ घर में,
खा डाला परिवार मेरा इस विषधर ने !
फिर आज आ गई मेरी वारी,
मैंने पूरी शक्ति से उछाल मारी !
मैंने कहा मित्र इतने न हो हतास,
टल गया दुःख अब होगा उल्लास !
तभी घुमड़े बादल दमकी दामिनी,
होने लगी वर्षा मनभामिनी !
सर के दादुरों ने पुकार लगाई,
"निर्भय "हो इसने भी हाँ में हाँ मिलाई !
फिर प्रसन्न हो उसी ओर चल पड़ा,
मै एक टकउसे ही देखता रहा खड़ा !
वक्त गम के घावो को भर देता है,
दुःख सुख के आने का सूचक होता है !
मैंने कहा प्रभु यह कैसा संसार,
यहाँ तो करते हैं जीवों जीवहार !